नए चैनलों की समस्या और चुनौतियाँ (Challenges of new and upcoming channels)
मीडिया खबर, मीडिया कॉनक्लेव और एस.पी.सिंह स्मृति व्याख्यान का पहला सत्र नए चैनलों की चुनौतियों पर केंद्रित था. इस सत्र में न्यूज़ नेशन के सीईओ ‘शैलेश’, मीडिया गुरु के वाइस प्रेसिडेंट ‘संजय दास’, शगुन टीवी के एमडी अनुरंजन झा, न्यूज़ एक्सप्रेस के चैनल हेड निशांत चतुर्वेदी, दूरदर्शन के सुधांशू रंजन, वरिष्ठ पत्रकार अजय एन झा और अनुराधा मंडल शामिल थी. सत्र को सीएमएस मीडिया लैब के प्रमुख ‘प्रभाकर’ ने मॉडरेट किया.
सारांश (synopsis) :
कहने को तो दर्शकों के हिसाब से बात करें तो मौजूदा दौर में उसके लिए चैनल और कार्यक्रमों के विकल्प पहले से न केवल ज्यादा है बल्कि ऐसे मौके लगातार उनके हाथ में होते हैं कि वो नएृनए कार्यक्रमों और टीवी चैनलों को आजमाकर देख-समझ सके. टेलीविजन की दुनिया का ये तो एक पक्ष है और ऐसे में ये एक डेमोक्रेटिक प्रोजेक्ट की तरफ बढ़ता दिखाई देता है..लेकिन इसी बात को हम मीडिया इन्डस्ट्री के हिसाब से सोचें तो क्या सालों से बनी-बंधी ऑडिएंस को तोड़कर अपनी तरफ खींचना, उस चैनल से जुड़ने के लिए तैयार करना जिसका न तो कोई इतिहास मौजूद है और न ही इस बात की गारंटी ही कि भविष्य में वो कितने वक्त तक मौजूद रहेगा ? दर्शकों के हिसाब से टीवी चैनलों की तेजी से बढ़ती संख्या जहां डेमोक्रेटिक प्रोजेक्ट का हिस्सा हो सकता है वही इस दौड़ में हिस्सा लेनेवाले नए चैनलों के लिए भारी चुनौती और बड़ा सिरदर्द..और गौर करें तो ये सिरदर्दी सिर्फ कंटेंट के स्तर पर नहीं है, सिर्फ इस बात पर टिका नहीं है कि अगर हमने दर्शकों के मुताबिक कार्यक्रम और घटनाओं का प्रसारण शुरु कर दिया तो बाकी चीजें अपने आप दुरुस्त हो जाएगी..
देखें तो एक नए चैनल की चुनौती एक ही साथ एक नई कंपनी या फैक्ट्री खोलने, एक नई राजनीतिक पार्टी को चलाने और स्थापित करने, एक स्वतंत्र मीडिया हाउस के रुप में साख अर्जित करने से लेकर बॉलीबुड सिनेमा की तरह डिस्ट्रीब्यूशन के मोर्चे पर दुरुस्त होने से भी है..ऐसा इसलिए कि आज जिस टेलीविजन से हम गुजर रहे हैं वो कोई सिंगुलर एक्टिविटी न होकर हाइब्रिड बिजनेस है और इस हाइब्रिड बिजनेस में भी सरोकार और दर्शकों को एंगेज रखने के सवाल उतने ही जरुरी हैं जितनी कि बैलेंस शीट की सेहत को बनाए रखने की..
दर्शकों के सरोकार और बैलेंस शीट के सेहत की दोहरे स्तर की ये चुनौतियां ही जहां टीवी चैनल के बिजनेस को बाकी की इऩ्स्ट्री से अलग करती है वहीं सामान्य दर्शकों के लिए ये जानने की दिलचस्पी भी कि आखिर टीवी चैनलों के कारोबार की ऐसी कौन सी स्ट्रैटजी होती है जो उसे एक तरफ उतनी ही मजबूती से लोकतंत्र का चौथा खंभा के रुप में भी स्थापित करता है और दूसरी तरफ एक मजबूत मीडिया बिजनेस संस्थान के रुप में भी…और इससे भी ज्यादा कि आखिर किन मोर्चे पर ये मार खा जाते हैं कि वो बेहतर चौथा खंभा बनकर भी सफल मीडिया संस्थान नहीं बन पाते तो दूसरी तरफ सफल मीडिया संस्थान होकर भी लोकतंत्र का चौथा खंभा कहलाए जाने के मेटाफर से दूर होते चले जाते हैं.
नए टीवी चैनलों की चुनौतियां का ये सत्र इस अर्थ में भी मजेदार होगा कि हम इसमे नए चैनलों पर बात करनेवाले वक्ता के जरिए ये बेहतर समझ सकेंगे कि कई पुराने संस्थान होकर भी नई चुनौतियों का सामना करते हैं वही नए होकर भी कुछ संस्थान कैसे पुराने संस्थानों की व्यावसायिक सफलता को एन्ज्वॉय करते हैं और इन दोनों ही स्थितियों के बीच दर्शक कंटेंट के स्तर पर क्या हासिल कर रहा होता है ?
नए चैनलों की समस्या और चुनौतियों पर वक्ताओं के विचार :
निशांत चतुर्वेदी , चैनल हेड , न्यूज़ एक्सप्रेस
देखिए मेरी नज़र में राइट मैन सेल्क्शन सबसे बड़ी चुनौती होती है. आप शुरूआती दौर में पैसा नहीं खर्च करना चाहते हैं. इसलिए आपको युवा और अनुभव का मिक्सअप लेकर चलना पड़ता है. यूथ जिसके पास जोश तो है लेकिन अनुभव नहीं है तो आप विजन के जरिए कैसे उसमें संतुलन बनाने का काम करते है. ये महत्वपूर्ण है. आपको खुद उसमें सक्रिय होना होता हैं. ये जानना होता है कि और कौन लोग हैं जो आपके माइंड सेट के हिसाब से काम कर रहे हैं. टेक्नलॉजी से काम चल जाता है लेकिन जब तक विजन शेयर करनेवाले लोग उपर से लेकर नीचे तक न हो और आपके साथ ये भी चुनौती होती है कि कैसे पीढ़ी –दर- पीढ़ी तैयार कर पाते हैं. सेल्केशन ऑफ मैन पावर में आपको कॉकटेल बनाना पड़ता है और इसके लिए बहुत ही साफ़ समझ होनी चाहिए.
दूसरा ये पहले तीन-से-चार महीने तो आपका हनीमून पीरियड चलता रहता है तब मामला रिवन्यू पर आकर टिकता है. आप इस तरीके से प्रोग्रेस करें तो कैसे? अगर आप रिवन्यू जेनरेट नहीं कर पा रहे हैं तो खर्च पर कैसे एक संतुलन कर सकते हैं. आप बड़े प्लेयर से नहीं लड़ सकते. डिस्ट्रीब्यूशन पर नहीं लड़ सकते. आपको तब उसी मैनपावर का इस्तेमाल करके कुछ ऐसा कंटेंट जेनरेट करना होता है कि लोगों को अपील करे. आप बिग प्लेयर के टेरेन में कैसे घुस सकते हैं.
निगेटिव- एक आदमीके उपर सवारी कर के किया..
पॉजेटिव- मैंने एक शो शुरु किया तो हमने जो एक सोशल ऑब्जेक्टिव है उसको पकड़कर रखे तो हमारा आइडिया था कि जो भी विजुअल्स आएंगे हम व्युअर को दिखाएंगे और तब सर्कुलेगट करेंगे और जब हमने तेरह चौदह को कनेक्टकर दिया. उत्तराखंड को लेकर..
जो भी विजुअल्स आए उसको सीधा दिखाए..एक-एक नाम नोट कराते हैं.मैं ओल्डस्कूल ऑफ थॉट्स से हूं..
एक फोन आया ज्ञान सिंह जी को कानपुर से मैंशो वाइन्डअप कर रहा था कहा जो विजुअल्स चला उसमें मेरा भाई है..पीसीआर को रोल करना कहा और तब हमने उसको फ्रीज किया.उसने कहा वही है मेरा भाई. लेकिन कल मेरे लिए ही बड़ी अंडरलाइनिंग फैक्टर था मेरी लाइफ में.
छोटे स्तर पर आइडिया जेनरेट करना पड़ेगा, आप अगर व्यूअर की जिंदगी में वैल्यूएडिशन कर देते हैं तो वो बेहतर होता है. आइडियाको कैसे स्टे करते है, सोशल मार्केटिंग आइडिया को कैसे प्रोटेक्ट करते हैं
विज्ञापन बहुत बड़ा चैलेंज है. लेकिन मेरा यही मानना है और मैं यही तरीका अपनाता हूं कि व्यूअर का विश्वास हासिल करके ही विज्ञापन हासिल कर सकते हैं
शैलेश, सीइओ, न्यूज़ नेशन
“न्यूज नेशन भी नए प्रयोग कर रहा है”
नए चैनल को किस तरह की चुनौतियां होगी? नए के सामने हमेशा ही चुनौतियां होगी, पहले के प्लेयर स्टैब्लिश होते हैं, फॉलोअर होते हैं, जिस इलाके में सबसे बड़ा बिजनेस होता है वहीं आते हैं, सवाल है कि मार्केट में गैप जो है उसकी पहचान आप कर पाते हैं कि नहीं.
मार्केट लीडर जो कर रहा है वही को औऱ हम कुछ न कुछ पा लेंगे जैसे पहले लाफ्टर शो था, एस्टोरेलॉजी है तो वही चलाओ तो कुछ –न- कुछ मिल जाएगा
मार्केट में क्या गैप है और पता करें कोई एक जगह है कि नहीं. ये आसान काम नहीं है और किसी भी रिसर्च से आप आखिरी नतीजे तक नहीं पहुंच सकते. लेकिन अनुभव और फीडबैक से ये समझा जा सकता है कि गैप क्या है या किसी से नकल तो नहीं और लोग इसको किस तरह से लेते हैं. अलग ढंग से आने पर लोग देखते-समझते हैं.
कई जगहों पर लोग सिर्फ मसाला को देखते हैं..भारत में भी इसी तरह की स्थिति है. जैसे स्पीड न्यूज आया.. जो लोग इनसे नकल करने की कोशिश करते रहे वो कही नहीं पहुंच पाए. ऐसा नहीं है लोग बिजनेस नहीं करने आएंगे, सच्चाई ये है कि जहां एक दूकान खुलती है वही दूसरी दूकान भी खुलती है.
लेकिन नया रास्ता थोड़ा कठिन होता है.
प्रभाकर (मॉडरेटर का सवाल) – आपका चैनल जो प्रोमो दिखा रहा है कि आप हार्ड न्यूज पर फोकस करेंगे न्यूज24 ने वही किया. इसपर टिके रहना कितना मुश्किल है नए चैनल के लिए क्योंकि मार्केट में पैसे नहीं है और ऑडिएंस बढ़ नहीं रहे हैं. और कितना समय मिल पाता है, कितने दिनों तक आप प्रयोग कर पाएंगे.
शैलेश – मैं दूसरे चैनलके बारे में बोल नहीं सकता..मैं तो सिर्फ अपने बारे में कह सकता हूँ कि 4 पर्सेंट का मार्केट शेयर 20 मिलियन रिच है, 23 मिनट टाइम स्पेंट है..टैम के चार महीने का ये नतीजा है. हमने लोगों को बताया नहीं है कि हम कोई नया चैनल ला रहे हैं. आज हम 7 पर है. हमने खबर लौटाकर लाने की बात नहीं की हमने लोगों से पूछा और जैसा कहा वैसा दिखा दिया, हमने सिलेब्रेटी को पकड़कर नहीं कहा कि आप हमें शुभकामनाएं दे, ये आसान काम था हम आम आदमी के पास गए और हमने उस छोटे छोटे टुकड़ों को दिखा दिया.
अजयनाथ झा, वरिष्ठ पत्रकार
सबसे बड़ा सवाल उसका मौजूदगी और उसकी पहचान को बनाना है. आजतक जब 20 मिनट का कैप्सूल होता था तो शिवसेना प्रमुख ने लिखकर दिया था कि भले ही हमे एसपी से गुरेज हो लेकिन हर शिव सैनिक उसे देखता ही देखता है.. सालता है हमारा पेशा, आज हमारा पेशा धंधा बन कर रह गया.
2, विश्वसनीयता का अभाव, एक पत्रकार जब खड़ा होकर बोलता था तो लोग उसकी बात को सही मानते थे, अब दुनिया भर के विषय पर लिख बोल ले वही पत्रकार है. खबर एक आलू बनकर रह गया है जिसे कि चैनल 24 गुना 7 तल के छिलके परोस रहे हैं
3.वो जमात नहीं दिखाई देती लेकिन कहने को साढ़े सात सौ इन्सटीट्यूट है लेकिन दस भी शामिल होता है तो संपादक डरता है कि स्टोरी देने से न्याय कर पाया की नहीं
4 पत्रकारिता या सियासत. सहाफत में अब तिजारत होती है. पहले सियात पर सहाफत होती थी. इस देश को देखिए, 87 ऐसे चैनल हैं जो चैबीस घंटे न्यूज चैनल दिखाते हैं, परेशानी तब होती है जब न्यूज में व्यूज दिखाते हैं
उत्तराखंड मिसाल है, एक लड़के ने ऐसी हिमाकत कर डाली तो निकाल दिया, 35 फौजियों को मार दिया तो पद्मविभूष मिला.
सुझाव – 1. मैं यही कहना चाहूंगा कि अभी कुछ बिगड़ा नहीं है, सहाफत अपनी जमीन से भटक गया है, आधी पहचान खो गया, खोई हुई पहचान वापस करे. एक लड़का जिसने उसे देखा नही, मिला नहीं, उसे एकलव्य की तरह याद करता है. नेता की गाय मरने पर बरसी होती है,कंबल बंटते हैं लेकिन हमारा एक शख्स तारा टूटा तो बहुत टूटा तो हम चंदा करके एक पुरस्कार तो पैदा तो करे
अनुरंजन झा, एमडी, शगुन टीवी
प्रयोग के कितने स्कोप हैं………
हम बात करें उद्देश्य की तो ज्यादा बेहतर होगा- चुनौती है कि शुरु करने का उद्देश्य क्या है अगर उद्देश्य बाजार है तो उसी के हिसाब सोचना चाहिए.आप क्रांतिकारिता सेठ की नाव पर सवार होकर नहीं कर सकते. मेरी नजर में चुनौती है कि हम उद्देश्य को लेकर साफ नहीं है.हर रोज नए चैनल आ रहे हैं और एक आंकड़ा हमेशा आता है कि ये चैनल आया और नुकसान में रहा.
क्यों नहीं आए, नयापन नहीं है और आया है लेकर नयापन तो सस्टेन क्यों नहीं करते
अगर नुकसान में है तो फिर भी क्यों आ रहे हैं ? पहले हमे उस उद्देश्य को समझना होगा और अगर नहीं बात कर रहे हैं तो हम मूर्ख बन रहे हैं. हमारी सोच खबर को लेकर कैसी होनी चाहिए.
हाल के चैनलों में न्यूज नेशन में नयापन इसलिए दिखा कि वो भाग नहीं रहा. आजतक जिस तरीके से शुरु किया गया है, अब आजतक में वो कहीं नहीं बची. वो भाग रहा है. कॉपी कर रहा है,वो अपने आप में नहीं है. न्यूज नेशन भाग नहीं रहा है. आगे क्या होगा. ये सब आगे की बात है.
दूसरी जो बड़ी जरुरत है इस देश में राजनीतिक खबर को ही खबर समझा जाता है. मैंने शगुन टीवी के रूप में मेट्रिमोनियल चैनल शुरू किया है. न्यूज नहीं छोड़ा है, शादी की खबर है. ऐसे बाजार की खबर दे रहा हूं जो हर व्यक्ति की जरुरत है. मनमोहन सिंह ने कहा सोनिया ने झाड़ लगायी ये सिर्फ खबर नहीं है. हमें उद्देश्य को लेकर साफ होना होगा. पहली और आखिर चुनौती यही है
सुधांशु रंजन, दूरदर्शन
अखबार चलाने के लिए राजस्व कमाना गलत नहीं है. राजस्व के लिए अखबार चलाना सही नहीं है. सरकार कभी -कभी कहती तो है कि राजस्व लाओ. लेकिन जब सरकार अपने तरीके से जो चाहे चलाए तो दूरदर्शन स्वायत्त नहीं रह पाता. कभी तो विज्ञापन का मामला रहा ही नही. रैटरेस में रहा नहीं है.
कुछ पुस्तकें पढ़ी है जिसमे महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसी प्रतिबद्धता थी,सिर्फ पैसा कमाना ही जीवन का उद्देश्य नहीं. ये सेठ वाली बात से मैं बिल्कुल सहमत नहीं. जमनालाल बजाज की भी तो प्रतिबद्धता तो थी..आप अपनी पीठ भले ही ठोंक ले लेकिन कुछ बचा नहीं..अजयनाथ से सहमत हूं.
थोड़ा फीता खोलिए,सीना को चौड़ा कीजिए,
दूसरी बात है नए चैनल..अब पत्रकारों को कहा जाता है कि मंत्री के यहां से विज्ञापन लाओ तो पत्रकार की क्या इज्जत रह गयी,मालिक ने तो नौकर बना दिया.विज्ञापन की एकरा राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए.बिहार में स्वतंत्र नहीं है.. बिहार में चैनलों ने जिंदा रखा है अखबारों ने नहीं.
तीसरी बात कि किसके पैसे लग रहे हैं बिल्डर के..अब सारी चीजें सस्ती हो गयी है,अब तो ब्रिफकेस में लेकर सब चल सकते है, 10करोड़ में शुरु कर लेंगे लेकिन आगे क्या..
आप बड़े चेहरे देखकर तो दस लाख की बातकर ले रहे हैं लेकिन बाकी को क्या मिल रहा है उसी भी तो बात तो करो न..दूसरे को 10 हजार भी मिलने में दिक्कत हो रही है.जो देखता हूं कि वहां जकड़बंदी बना रखी है..समाज में एक सुपरस्टार नहीं 100 सितारें बनाएं.
अंतिम बात,ये जो जबरदस्ती है कि दर्शक कैसे बनाए जाएं. आज टीवी में कितना मनोरंजन है कितना समाचार है देख लीजिए..
संजय दास, वीपी, मीडिया गुरु
440को जो लाइसेंस मिला है क्या सच में उनका उद्देश्य खबर दिखाना है.
क्या मार्केट में इतने चैनल आ भी पाएंगे. मार्केट में स्कोप है..
ये मुद्दा थोड़ा ज्यादा इमोशनल हो गया. मैं इसे बिजनेस कह रहा हूं. इनकी स्थापना सिर्फ बिजनेस के लिए नहीं बल्कि कुछ और के लिए भी किया गया.
यहां मैं बिजनेस एक पॉजेटिव टर्म में ले रहा है. मैं धंधा नहीं कह रहा हूं जैसा कि झाजी ने कहा, और जब हम बिजनेस कह रहे हैं तो हर तरह के तथ्यों और संदर्भों को ध्यान में रखना होगा. हमने क्या प्रयोग किया, क्या बिजनेस स्ट्रैटजी पर बात करनी होगी.
मैं इसे चैलेंज के रुप में नहीं देखता. मैं इसे मौके अवसर के रुप में देखता हूं..कलर को लीजिए,कितना मुश्किल था लेकिन कंटेट नया था और अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश की और उसने लोगों के मूड को बदलने की कोशिश की,नए किस्म के ऑडिएंस पैदा किए.
टेक्नलॉजी आ रही है तो इसका मतलब एकस्तर परपारदर्शिता भी आ रही है, और अगर तकनीक बदल रहा है तो इसका मतलब है कि पहले सेचीजें बदल रही है.
मैं पूरी चर्चा को बिजनेस के एंगिल से ही देखना चाहूंगा नकि इमोशनल ट्रीटमेंट को लेकर. मीडिया का बिजनेस लंबे समय का है, ये रातों रातवाला मामला नहीं है.
अजयनाथ झा
बीबीसीके पासफंडिंग थी
सतीश के सिंह, चैनल प्रमुख, लाइव इंडिया
ज्यादा मुश्किल नहीं है..सुख सुविधाओं को अगर छोड़ दीजिए तो चीजें उपर की खाली रहती है तो उसे भरे जाने की क्षमता रहनी चाहिए.टैम के मीटर से जो आगे हैं इसका मतलब नहीं है कि वो आगे ही हैं,हर चैनल की अपनी एडीटोरियल पॉलिसी है और देखनेवाली बात है कि उसे वो कितना बेहतर तरीके से लागू कर पा रहा है.
राहुल देव, वरिष्ठ पत्रकार
हम कैसे मान लेतें हैं कि बाजार अनंत है. मैं नहीं मानता कि सारे फार्मूला मान लेने के बाद भी नंबर वन टू फाइव पर आ जाएंगे. अगर छुटभैय्ये नेता लोग नंबर दो का पैसा शुरु करने के लिए चैनल शुरु करते हैं,वो चिंतनीय है. वो हमारा नाम खराब करते हैं, हमें उनसे बहुत उम्मीद नहीं. पन्द्रह साल से आजतक बना है तो कैसे बना है? भाई,मीडिया चाय की स्वाद की तरह है,खुशबू की तरह है,जिसकी बचपन में आदत लग जाती है छूटने में दशकों लग जाते हैं. ये सिर्फ उपयोगिता हुआ उत्पाद नहीं है. भीतर तक बैठ जाता है तो बाहर निकालना बहुत कठिन है. आप पांच के बीच छठे बनकर नहीं आ सकते. उतना आसान नहीं है. उतना सरल नहीं है तब तो रोज उथल पुथल होता. अंबानी से शुरु किया, वापस हो गए, थापर ने शुरु किया, वापस हो गए. जितनी होड़ होगी, उतना मुश्किल होगा.
दो बात कहनी है- एक पैसेवाला सिरा, दूसरा सिरा पत्रकार वाला, इस प्रवेश पर निगरानी रखने की जरुरत है,सबको मीडियाकर्मी बनने का नहीं होना चाहिए और न ही मालिक बनने का..
आर अनुराधा, संपादक, डीएवीपी
डीडी के लिए रिवन्यूका मसला कभी बहुत उसतरह से गंभीर रहा नहीं है और न ही उसने बहुतइस पर ध्यान दिया लेकिन निजी चौनलों के लिए क्रेडिबिलिटी चुनौती.
(पहले सत्र में हुई परिचर्चा को ज्यों –का- त्यों रखने की हमने कोशिश की है. बाद में इसे किताब की शक्ल में लाने की योजना है)