सेंसर बोर्ड का गठन 1920 में भारतीय सिनेमैटोग्राफिक ऐक्ट के तहत हुआ। इसके गठन के पीछे उद्देश्य यह था कि यह लोकप्रिय मीडिया राष्ट्रीय भावना का मंच न बने। इसे पुलिस के नियंत्रण में रखा गया। जहां इस तरह के दूसरे उद्योग स्व नियंत्रण के तहत चलते हैं, वहीं फिल्मों को सर्टिफिकेट दिए जाते हैं। मैसेंजर ऑफ गॉड पहली फिल्म नहीं है, जिसने सेंसर बोर्ड में तूफान खड़ा कर दिया है। हाल के वर्षों में कई फिल्मों के कारण विवाद पैदा हुए हैं। विगत मई में बोर्ड के सीईओ को रिश्वतखोरी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। तब आरोप यह लगे थे कि फिल्मों को हरी झंडी देने के बदले में पैसे लिए गए। बोर्ड के साथ मुश्किल यह है कि इसका जिस तरह का ढांचा है, उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप के साथ व्यावसायिक लाभ उठाने की भरपूर आशंकाएं हैं। लीला सैमसन के मुताबिक, इस संस्था को स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार नहीं है, और फिल्म उद्योग को भी इस पर भरोसा नहीं है। इसीलिए उन्होंने सेंसर बोर्ड के पुनर्गठन की जरूरत बताई है।
सवाल यह है कि क्या वाकई ऐसी किसी संस्था की जरूरत है, जो यह तय करे कि कौन-सी फिल्म कौन देखेगा। गौरतलब है कि टेलीविजन, विज्ञापन और मीडिया में सेंसरशिप नहीं है। फिल्म उद्योग लंबे समय से मांग कर रहा है कि उसे भी स्व-नियंत्रण का अधिकार दिया जाए। अगर इस विवाद का अपने हित में लाभ उठाते हुए सरकार सेंसर बोर्ड में अपनी वैचारिकता वाले लोग भर देती है, तो यह भी त्रासदी ही होगी।