थोड़ी देर से ही सही लेकिन कारवां (caravan) का मीडिया अंक डाक से आ गया. कुछ हिस्सा तो इ-एडिशन में ही देख लिया था लेकिन अब बारी-बारी से देख रहा हूं. जितनी पर नजर गयी है, आपसे कह सकता हूं- अंक खरीदकर रख लीजिए.
भारतीय मीडिया बिजनेस को समझने के लिए अभी तक हमारे पास गिने-चुने दो-तीन ही टेक्सट हुआ करते हैं. एक तो वनिता कोहली की इंडियन मीडिया बिजनेस पुस्तक और दूसरा फिक्की-केपीएमजी या प्राइसवाटर कूपर की मीडिया एंड एन्टरटेन्मेंट इन्डस्ट्री रिपोर्ट. अब तक मीडिया पर पत्रिकाओं के मैंने जितने भी अंक देखे हैं, बिजनेस और ऑडिएंस को इतना तरीके से शामिल नहीं किया गया है.
अमूमन तो आधा पन्ना तो नैतिकता, चौथा खंभा और ध्वस्त हो जाने के विलाप में ही खपा दिया जाता है. इस अंक की खास बात है कि ये अपने लगभग सारे लेखों में मीडिया को इन्डस्ट्री, मैनेजमेंट और आर्टिकुलेटेड कल्चरल प्रैक्टिस के तौर पर विश्लेषित करता है..बाकी विस्तार से पढञने के बाद.
(स्रोत-एफबी)