मनीष कुमार,चौथी दुनिया
कालेधन के मुद्दे पर संसद में ज्यादातर पार्टियों ने वाकआउट किया. यह देख कर लगता है कि सचमुच भारत बदल गया है. अगर बदला नहीं तो यह कैसे संभव है कि इंडियन नेशनल कांग्रेस स्कैम पार्टी कालेधन को लेकर इतनी चिंतित दिखाई दे रही है. उनकी चिंता तो लिस्ट में शामिल नामों से होना चाहिए. कालेधन की आड़ में सरकार को घरने में सबसे आगे वो पार्टियां रहीं जिसे देश की जनता “ईमानदार” मानती है. कालेधन पर चिंतित पार्टियों में लालू यादव की राष्ट्रीय जनता चारा दल, मुलायम सिंह की समाजवादी डीए पार्टी और मायावती की बहुजन समाज ताज कोरिडोर पार्टी और तो और संसद की नई छाता पार्टी यानि ममता दीदी वाली तृणमूल शारदा पार्टी शामिल है. सबसे मजेदार बात यह है कि इन सब पार्टियों की एक रेनबो यानि इंद्रधनुषी गठजोड़ बनाने की कोशिश है जो कालेधन पर सरकार पर हमला चाहती है. लेकिन जलेबी की तरह गोल गोल दलील देने वाले अरुण जेटली ने अपने जवाब को इतना टेक्निकल बना दिया कि उनकी बातें किसी के पल्ले नहीं पड़ी. शायद वाकआउट की असल वजह वही रही होगी. कई लोगों ने चैनल भी बदल दिया.
ये देश के ईमानदार नेता यही पूछ रहे हैं कि कालाधन वापस कब आएगा. इन पार्टियों का आरोप है कि कालेधन के मामले पर बीजेपी ने लोगों को धोखा देकर जनता से वोट लिए इसलिए सरकार को माफी मांगनी चाहिए. कांग्रेस पार्टी की यह नासमझी है कि उन्हें लगता है कि सिर्फ कालेधन के मुद्दे की वजह से पार्टी लोकसभा चुनाव हारी है. इन दलों को अब तक साधारण सी बात समझ में नहीं आई है कि इनकी राजनीति, इनके भाषण, इनकी विचारधारा और इनके तरीके से भारत लोग उब चुके हैं. ये सब लोग जनता की नजरों को खटकते हैं. लोग इन्हें देखना नहीं चाहते. लेकिन ये राजनीतिक दल हैं. चुनाव जीत कर संसद में आएं हैं. सरकार पर हमला करना उनका अधिकार है.
लेकिन अब ये समझ में नहीं आ रहा है कि ये लोग चुनाव में हार का बदला लेने के लिए सरकार को घेर रहे हैं या फिर सचमुच कालेधन को लेकर चिंतित हैं. इनकी बातों से यही जाहिर होता है कि इन राजनीतिक दलों की चिंता कालेधन को वापस लाने की नहीं है बल्कि राजनीति से प्रेरित है. वो अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं. एक के बाद एक चुनाव हो रहे हैं. राज्यों के चुनाव में एक के बाद एक राज्य बीजेपी के खाते में जा रहा है. इन स्कैम, चारा, डीए ताज और शारदा वाली पार्टियां इस बात से परेशान है कि लोकसभा तो गया सो गया अब राज्यसभा में भी इनकी ताकत खत्म हो रही है और सबसे परेशानी वाली बात यह कि वो अपने ही गृह राज्यों में हाशिये पर जाने लगे हैं. गैर-बीजेपी पार्टियां इस बात पर एकमत है कि अगर मोदी को नहीं रोका गया तो एक एक करके सब खत्म हो जाएंगे. यही वजह है कि हर मुद्दे पर सारा विपक्ष एक साथ नजर आ रहा है.. और आगे एक साथ नजर आते रहेंगे.
अब सवाल यह है कि क्या विपक्ष के हमले का कोई वैचारिक और सैद्धांतिक आधार है. चाहे वो मसला कालेधन का हो.. इंशोरेंस बिल का हो.. एफडीआई का हो.. विदेश नीति का हो.. या फिर कोई और हो.. क्या विपक्षी पार्टियों के पास कोई विकल्प या सुझाव है या फिर सिर्फ विरोध करने के लिए ये पार्टियां विरोध कर रही हैं. दरअसल, बीजेपी का विरोध सिर्फ और सिर्फ नव-उदारवाद के विरोध के जरिए ही संभव है. लेकिन नव-उदारवाद को भारत में लाने वाली पार्टी तो कांग्रेस है.. निजीकरण की शुरुआत करने वाली भी कांग्रेस ही है.. नव-उदारवाद को फैलाने वाले में ये सारी पार्टियां आगे है.
निजीकरण की नीतियों को यही टायर्ड एंड रिटायर्ड नेताओं ने समय समय पर मंत्री मुख्यमंत्री बनकर पाला पोसा है तो आज इनके पास विरोध करने का नैतिक आधार भी नहीं है. इसलिए.. लोगों को फिर से विश्वास जीतने के लिए और खासकर के युवाओं का समर्थन लेने के लिए इन्हें अपना चाल चरित्र और चेहरा बदलाना होगा.
जहां तक बात सरकार की है तो यह बात भी सही है कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने चुनाव के दौरान सौ दिनों में कालेधन को वापस लाने का आश्वासन दिया था. ये बात भी सही है कि इस तरह का आश्वासन बीजेपी के अलावा किसी और पार्टी ने नहीं दिया था. भारतीय जनता पार्टी पर यह आरोप भी सही है कि उन्होंने वादा करके पूरा नहीं किया. यह बात भी सही है कि बीजेपी के इस वादे का देश की जनता को भी पता है. मीडिया में बहस के जरिए देश की जनता पूरा मामले से वाकिफ है. इसलिए इस बात का फैसला भी जनता ही करेगी कि भारतीय जनता पार्टी और मोदी सरकार की नीयत क्या है? क्या सचमुच सरकार कालेधन को लाने की कोशिश कर रही है? या कालेधन को छिपाना चाहती है?
केंद्र सरकार के कामकाज पर जनता का फैसला तो पांच साल बाद आएगा लेकिन जहां तक बात विपक्ष में बैठी कुंठित राजनीति दलों की है तो दो राज्यों में चुनाव हो रहे हैं.. देखना ये है कि कालेधन को मुद्दा बना कर सरकार को घेरने वाली पार्टियों को कितने सीटें जनता देती है. प्रजातंत्र में जनता ही सुप्रीम होती है.. जनता का फैसला ही आखरी फैसला है.
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