अभिषेक श्रीवास्तव
आज चार दिन बाद टीवी देखे। हर जगह नरेंदरभाई दिखे। हमारे अजीज़ Navin Kumar शाम 6 बजे श्वेत-श्याम राजनीति पर पहला पैकेज चलाते-चलाते बीच में ही बोल्ड कर दिए गए। अचानक बगैर किसी सूचना के पैकेज गिरा दिया गया और एएनआइ के इंटरव्यू में भए प्रकट कृपाला दीनदयाला। नवीन कुमार ने खून का घूंट पीकर ब्रेक ले लिया और बाद में एक और पैकेज चलाकर बिना किसी पैनल परिचर्चा के कट लिए।
देर शाम कुछ कश्मीरी पंडितों ने आनन्द पटवर्धन को टाइम्स नाउ पर घेर लिया। आनन्द इतने बेचारे कभी नहीं दिखे थे। अकेले हंसल मेहता उनका सहारा थे। इसके बाद इतिहास पुरुष आज़म खान सीएनएन-आइबीएन पर भूपेंदर चौबे को खिझाते दिख गए। भूपेंदर चौबे में प्रभु चावला की आत्मा ठीक वैसे ही घुसी पड़ी थी जैसे आजकल राहुल कंवल में रह-रह कर घुस जाती है। आज़म खान के वक्तृत्व का ऐसा सर्वश्रेष्ठ नज़ारा था कि भूपेंदर तकरीबन रो पड़ते। इधर बीच भूपेंदर और राहुल कंवल की ओढ़ी हुई परिपक्वता गज़ब की छिन्न-भिन्न हुई है।
फिर मैंने ओपेन माइक देखा। सागरिका घोष अमेठी में थीं। ऐसा लगा जैसे गांव के धूसर और अनगढ़ लौंडों के बीच गर्मी की छुट्टियां मनाने आई कोई शहरी बालिका अचानक फंस गई हो। वैसे सच कहूं, चुनाव इसलिए अच्छे होते हैं क्योंकि अंग्रेज़ी डकारने वाले माइकवीर बालक-बालिकाओं को हिंदी बोलने पर मजबूर कर देते हैं। और उनके हिंदी बोलते ही यह समझ में आ जाता है कि वे कितने नकली हैं।