तहलका के अतुल चौरसिया की वह रिपोर्ट जिसके लिए उन्हें रामनाथ गोएनका अवार्ड मिला.
महान लोकतंत्र की सौतेली संतानें
नर्मदा और टिहरी की जो वर्तमान त्रासदी है उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जिला उससे आधी सदी पूर्व ही गुजर चुका है. लेकिन इसका दुर्भाग्य कि नर्मदा, टिहरी के मुकाबले विनाश के कई गुना ज्यादा करीब होने के बावजूद यह आज कहीं मुद्दा ही नहीं है. शायद इसलिए कि सोनभद्र के पास कोई मेधा पाटकर या सुंदरलाल बहुगुणा नहीं हैं. अतुल चौरसिया की रिपोर्ट.
सोनभद्र को देखकर पहली नजर में ही लगता है मानो यहां कोई लूट मची हो. वाराणसी-शक्तिनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ट्रकों का तांता कभी नहीं टूटता. मन में सवाल उठता है कि आखिर सोनभद्र में ये आपाधापी मची क्यों है? जवाब सीधा है. सोनभद्र का वरदान ही उसका अभिशाप बन गया है. यहां असीमित मात्रा में कोयला था, पानी था, बॉक्साइट था. जैसे ही इन संसाधनों की हवा दुनिया को लगी यही खजाना पूरे इलाके के जंगल, जमीन, जानवर और जनजीवन के लिए विनाश का सबब बन गया.
1970 के आस-पास इलाके में काले सोने की प्रचुर मात्रा की भनक लगते ही सोनभद्र में रिहंद बांध के बाद रुक चुके विस्थापन ने एक बार फिर से गति पकड़ ली. उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल), एनटीपीसी, हिंडाल्को की रेणुसागर ऊर्जा परियोजना, लैंको अनपरा पॉवर प्राइवेट लिमिटेड समेत तमाम छोटी-बड़ी कंपनियों ने यहां कोयले से बनने वाली तापीय ऊर्जा इकाइयां स्थापित करनी शुरू कीं तो विस्थापन के मानकों की अनदेखी, पुनर्वास में हीला-हवाली और पर्यावरण की धज्जियां उड़ाने का एक ऐसा कुचक्र भी शुरू हुआ जिसका अंत निकट भविष्य में तो दिखाई नहीं देता.
भारत सरकार के एक आकलन के मुताबिक सोनभद्र और इससे सटे मध्य प्रदेश के सिंगरौली इलाके में चल रहे, निर्माणाधीन और प्रस्तावित 20 से भी ज्यादा तापीय ऊर्जा संयंत्रों के लिए यहां अगले 100 वर्षों तक के लिए पर्याप्त मात्रा में कोयला मौजूद है. यही वजह है कि इस साल के अंत तक लैंको की अनपरा इकाई उत्पादन शुरू कर देगी, यूपीआरवीयूएनएल के तहत आने वाले अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन (एटीपीएस) की ‘डी’ इकाई निर्माणाधीन है, ‘ई’ के लिए सरकार ने हरी झंडी दे दी है. सिंगरौली में भी अगले कुछ सालों में रिलायंस, एस्सार और जेपी समेत कई निजी कंपनियों के ऊर्जा संयंत्र अस्तित्व में आ जाएंगे.
इसका खामियाजा यहां का आम आदमी उठा रहा है. वह आम आदमी जिसके घरों और खेतों पर ये परियोजनाएं खड़ी हैं या खड़ी होने वाली हैं. विस्थापन दर विस्थापन झेल रहे इन लोगों की चिंता न तो सरकारों को है और न ही यहां की हवा, पानी में जहर घोल रही कंपनियों को. अगर ये लोग इसके खिलाफ विरोध का मोर्चा बुलंद करते हैं तो इन्हें सरकारी दमन झेलना पड़ता है. एटीपीएस की निर्माणाधीन ‘डी’ इकाई के पास 17 मार्च से अनशन कर रहे विस्थापितों से अब तक किसी अधिकारी ने बात तक नहीं की है. यहां हमारी बड़ी संख्या में ऐसे अदिवासी और दलितों से मुलाकात होती है जिन्हें फर्जी या फिर छोटे-मोटे मामलों (मसलन जंगल से लकड़ी बीनना) में गंभीर धाराएं लगाकर फंसा दिया गया है. परशुराम, नौघाई, बिरजू बैगा,रामदुलारे, देवकुमार, पूरन समेत ऐसे तमाम लोग हैं जो गुंडा एक्ट जैसी संगीन धाराओं में फंसे कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं. धरना-स्थल पर मौजूद रामबली जो खुद भी ऐसे ही एक मामले में आरोपित हैं, बेहद गुस्से में कहते हैं, ‘जमाने से हम लोग इन्हीं जंगलों से अपना गुजारा चला रहे थे. आज एक दातून तोड़ लेने पर भी हमारे ऊपर गुंडा एक्ट लगा दिया जाता है. सरकार इलाके के नक्सलियों के पुनर्वास पर तो करोड़ों रुपया खर्च कर रही है और हमें नक्सली बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है.’ 22 वर्षीय अरविंद गुप्ता का मामला इसकी एक मिसाल है. एटीपीएस में मजदूरी करने वाले अरविंद 27 जून, 2008 को अपनी ड्यूटी पर गए थे. शाम को लौटे तो पुलिस ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिया कि एटीपीएस के ठेकेदारों और अनपरा डिबुलगंज के ग्रामीणों के बीच हुई मारपीट की एक घटना में वे भी शामिल थे. अरविंद पर अब कई गैर जमानती धाराओं के तहत मामला चल रहा है.
विस्थापन
सोनभद्र में विस्थापन की शुरुआत 1958 में रेणु नदी पर प्रस्तावित रिहंद बांध के चलते शुरू हुई. उस परियोजना में कुल 116 गांवों को रिहंद के डूब क्षेत्र में घोषित किया गया था. इसके बाद देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों में वर्णित रहस्य, तिलिस्म और तंत्रमंत्र वाले इस इलाके में विस्थापन की जो काली छाया पड़ी वह आज तक लोगों की जिंदगी को नर्क बनाए हुए है. रिहंद बांध की स्थापना के वक्त देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विकास के नाम पर लोगों से बलिदान की अपील की थी. उस समय सभी किसानों की जमीन का लगान एक रुपया सालाना मानकर उन्हें तीस गुना मुआवजा यानी 30 रुपए दिए गए साथ ही हर परिवार को सोन के ऊपरी जंगलों में 10 बीघा तक जंगल काटकर खेती करने की छूट भी दी गई.
लोग नई जगहों पर अपनी जड़ें जमा ही रहे थे कि 70 के दशक में यहां तापीय ऊर्जा कंपनियों ने दस्तक दी. 1975 में एनटीपीसी ने शक्तिनगर में 2,000 मेगावॉट का संयंत्र लगाना शुरू किया. 1980 आते आते यूपीआरवीयूएनएल ने अनपरा में 1,630 मेगावाट की योजना शुरू कर दी जिसके तहत इलाके में कई चरणों में ऊर्जा संयंत्र लगने थे. इसके बाद तो परियोजनाओं का जैसे तांता-सा लग गया.
एक तरफ परियोजनाएं स्थापित हो रही हैं और दूसरी तरफ स्थानीय लोग बार-बार अपनी जड़ों से उखड़ रहे हैं. और ऐसा भी नहीं कि उन्हें इस विस्थापन का कोई अतिरिक्त फायदा पहुंच रहा हो. ज्यादातर लोगों का न तो ठीक से पुनर्वास हो रहा है न ही उन्हें नौकरियों में मौका दिया जा रहा है. बेलवादाह, ममुआर, निमियाडाढ़, पिपरी, चिल्काडाढ़, औड़ी आदि पुनर्वास बस्तियों में कोई भी परिवार ऐसा नहीं है जिसने कम से कम दो बार विस्थापन की त्रासदी न झेली हो. रिहंद से विस्थापित होकर कोटा, अनपरा में जमने की कोशिश कर रहे लोगों को एनटीपीसी और यूपीआरवीयूएनएल ने फिर से विस्थापित किया तो ये लोग अनपरा, चिल्काडाढ़ जैसे इलाकों में बस गए. इन इलाकों में बसीं बस्तियां हिटलर के यातना शिविरों की तरह एक सीधी रेखा में बसी हैं जहां जनसुविधाएं तो दूर तमाम मूलभूत तकनीकी पहलुओं की भी घोर उपेक्षा नजर आती है.
डिबुलगंज विस्थापन बस्ती को ही लें. यहां घुसते ही नाक सड़ांध से भर उठती है. बस्ती और अनपरा पॉवर प्लांट के बीच में सिर्फ एक चहारदीवारी है. मानकों के मुताबिक कोई भी रिहाइशी क्षेत्र संयंत्र से कम से कम दो किलोमीटर दूर होना चाहिए. खुद अनपरा पॉवर की अपनी रिहाइशी कॉलोनी संयंत्र से दो किलोमीटर दूर स्थित है. यह एहतियात इसलिए ताकि संयंत्र से निकलने वाली भयंकर आवाज और चिमनियों से निकलने वाले धुएं के दुष्प्रभाव से लोगों को दूर रखा जा सके. लेकिन जिन लोगों की जमीनों पर यह परियोजना खड़ी है, लगता है उनके जीवन से कंपनी को कोई वास्ता नहीं है. इसी बस्ती में झारखंड और उड़ीसा से आए 3,000 के करीब दिहाड़ी मजदूर भी दड़बेनुमा कमरों में रहते हैं.
पिपरी, बेलवादाह जैसे गांवों के जो लोग इस विस्थापन से बच गए थे उन्हें एक दूसरी भयानक मुसीबत का सामना करना पड़ा. इन गांवों की जमीन को अनपरा और लैंको ने अपने संयंत्रों में कोयले के दहन से पैदा होने वाली राख यानी फ्लाइएश को ठिकाने लगाने के लिए चुन लिया. आज आधे से ज्यादा ऐसे गांव इस राख में डूब चुके हैं. टापू बन चुकीं पहाड़ियों पर जिन लोगों के घर और खेत हैं वे आज भूरे रंग के दलदल में पांव धंसाते हुए उन तक पहुंचते हैं. राख के इस अथाह सागर के किनारे 2-3 फुट गहरे गड्ढे खोदकर लोग पीने के लिए जहरीला पानी निकालते हैं. अनपढ़ आदिवासियों को कोई यह बताने वाला भी नहीं है कि जिस इलाके में 100 फुट की गहराई तक पानी उपलब्ध नहीं है वहां 3-4 फुट के गड्ढे से पानी कैसे आ रहा है?
अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन (एटीपीएस) ने यहां के पीड़ितों को एक लाख रुपए का नगद मुआवजा और नौ सदस्यों पर एक प्लॉट देने का वादा किया था. लेकिन बेलवादाह के ग्राम प्रधान हरदेव सिंह बताते हैं, ‘शुरुआत में इन्होंने 423 लोगों को प्लॉट देने की घोषणा की थी. इसमें हेराफेरी की गई थी. हम लोगों ने जब विरोध किया तो कंपनी ने 1996 में इसमें 272 और नाम शामिल किए. लेकिन अब तक सिर्फ 84 लोगों को ही प्लॉट मिले हैं.’
एनटीपीसी द्वारा बसाई गई विस्थापन बस्ती चिल्काडाढ़ की हालत और भी बदतर है. इस बस्ती से महज 500 मीटर की दूरी पर एनसीएल की बीना कोयला खदान स्थित है. एनसीएल चिल्काडाढ़ को बसाने का विरोध कर रही थी लेकिन एनटीपीसी ने उनकी एक न सुनते हुए वहां 16 गांवों के करीब 500 परिवारों को बसा दिया. मुसीबत तब शुरू हुई जब एनसीएल ने इस गांव के चारों तरफ अपना ओबी (ओवर बर्डेन यानी कोयला खदानों की ऊपरी परत) डालना शुरू कर दिया. देखते ही देखते गांव के चारों तरफ नकली पहाड़ खड़े हो गए. इनसे चौबीसों घंटे धूल उड़-उड़ कर चिल्काडाढ़ बस्ती पर गिरती रहती है. और बीना कोयला खदान में हर दिन होने वाले विस्फोट से यह पूरा इलाका थर्रा उठता है.
चिल्काडाढ़वासियों पर विस्थापन की तलवार लगातार लटक रही है. एनसीएल का कहना है कि उनकी जमीन के नीचे भारी मात्रा में कोयले और गैस का भंडार है. सोनभद्र और सिंगरौली इलाके में लंबे समय से सृजन लोकहित समिति नाम का एक संगठन चला रहे अवधेश कुमार एक पुरानी घटना याद करते हुए कहते हैं, ‘1986 में एनसीएल के बुलडोजरों ने पूरे गांव को घेर लिया था. एनसीएल किसी भी कीमत पर इस जमीन पर कब्जा करना चाहती थी. उस वक्त गांव के सभी पुरुष फरार हो गए थे. महिलाओं ने आकर मोर्चा संभाल लिया था. वे बुलडोजर के सामने अपने बच्चों के साथ लेट गईं. इस तरह से एक और विस्थापन टल गया था.’ पर सवाल है कब तक?
विस्थापन का एक सच यह भी है कि जिस भूमि पर विस्थापितों को बसाया जाता है उसका मालिकाना हक संबंधित कंपनी के पास ही रहता है. विस्थापितों की बस्ती भी परियोजना की भूमि के दायरे में आती है. लंबे समय से विस्थापितों की लड़ाई लड़ रहे यूपीटीयूवीएन(ऊर्जांचल पंचायत ट्रेड यूनियन एंड वॉलंटरी एक्शन नेटवर्क) के सदस्य जगदीश बैसवार बताते हैं, ‘जमीन पाने वाला विस्थापित न तो कहीं जा सकता है और न ही जमीन बेच सकता है. परियोजना की भूमि होने के नाते इस जमीन के आधार पर कोई बैंक कर्ज भी नहीं देता.’
ताक पर पर्यावरण
अनपरा और इसके आस पास स्थित लगभग सभी थर्मल पॉवर प्लांट पर्यावरणीय मानकों की खुलेआम धज्जी उड़ाने में लगे हुए हैं. अनपरा थर्मल पॉवर स्टेशन के राख निस्तारण क्षेत्र बेलवादाह और पिपरी गांव के किनारे-किनारे घूमते हुए हम उस हिस्से में पहुंचते हैं जहां इस फ्लाइएश साइट को रिहंद जलाशय से अलग करने के लिए बांध बना हुआ है. बांध के आखिरी छोर पर पहुंचने पर हमें प्रवेश निषेध का बोर्ड दिखता है और उसके पीछे झाड़ियां नजर आती हैं. सरसरी तौर पर यह प्रतीत होता है कि इसके आगे कुछ भी नहीं है. लेकिन थोड़ा और आगे बढ़ने पर लगभग 50 मीटर चौड़ा कंक्रीट का एक विशाल नाला नजर आता है. ये नाला फ्लाइएश साइट को रिहंद के जलाशय से सीधा जोड़ देता है. एटीपीएस ने फ्लाइएश साइट के स्तर की जो अधिकतम सीमा तय की है वह वर्तमान स्तर से कम से कम 20 मीटर ऊपर है जबकि इस नाले के स्तर से फ्लाइएश का मौजूदा स्तर सिर्फ 8-9 फीट नीचे होगा. यानी साइट की अधिकतम ऊंचाई तक पहुंचने से काफी पहले ही फ्लाइएश बरास्ता इस नाले सीधे रिहंद जलाशय में जाने लगेगी. ऐसा बहुत जल्दी ही होने वाला है क्योंकि कुछ ही दिनों में लैंको पॉवर का कचरा भी इसी फ्लाइएश साइट पर गिरने वाला है?
बांध के दूसरे छोर पर जाने पर एक और ही गोरखधंधा सामने आता है. एक अंडरग्राउंड नाले के जरिए सीधे-सीधे फ्लाइएश का पानी रिहंद में डाला जा रहा है. रिहंद में जिस जगह पर यह गिर रहा है वहां पर पटी हुई फ्लाइएश साफ-साफ देखी जा सकती है. लेकिन इसके लिए पैदल ही एक पहाड़ी का चक्कर लगाकर वहां तक जाना होगा जहां यह नाला रिहंद जलाशय में खुलता है. जब हम एटीपीएस के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग से इस संबंध में पूछते हैं तो वे ऐसे किसी नाले की जानकारी न होने की बात करते हैं. ज्यादा पूछने पर वे उस स्थान पर एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाने की बात करते हैं और बताते हैं कि ‘ट्रीटमेंट प्लांट के लिए लखनऊ प्रस्ताव भेजा गया है. लेकिन ऐसा करने में पैसे की कमी आड़े आ रही है’ यानी जब तक प्रस्ताव पास नहीं हो जाता तब तक यूं ही ज़हरीली राख रिहंद में गिरकर लोगों की जिंदगियों से खेलती रहेगी. विडंबना यह है कि सरकार के पास ‘डी’ और ‘ई’ संयंत्र का विस्तार करने के लिए तो पैसा है पर वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए नहीं.
एटीपीएस जो काम चोरी छिपे कर रहा है वही काम हिंडाल्को की ऊर्जा उत्पादन इकाई रेणुसागर थर्मल पॉवर कंपनी लिमिटेड खुलेआम कर रही है. बिड़ला की रेणुसागर थर्मल पॉवर परियोजना भी रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र के ठीक किनारे पर स्थित है. यहां पहुंचने पर एक और नंगा सच दिखता है. रेणुसागर संयंत्र से निकलने वाली राख का एक बड़ा हिस्सा सीधे ही रिहंद के जलग्रहण क्षेत्र में पाटा जा रहा है. इस स्थिति का संज्ञान क्यों नहीं लिया जा रहा? जब यह सवाल हम सोनभद्र के जिलाधिकारी पंधारी यादव के सामने रखते हैं तो वे तर्क देते हैं, ‘पुराने बने प्लांट अपने कचरे का निपटारा इसी तरह से करते आए हैं. प्रदूषण क्लियरेंस जैसी चीजें तो 10-15 साल पुरानी हैं. इससे पहले ऐसे ही राख का प्रबंधन होता था. अब हमने मानकों को काफी कड़ा कर दिया है. चीजें रातों-रात तो बदलेंगी नहीं.’
इसके दूसरे छोर पर गरबंधा गांव है जो कोयले की धूल में ही सांस लेने को विवश है. इस गांव के बारे में हमें कुसमहा गांव के पास स्थित वनवासी सेवा आश्रम चलाने वाली शुभा बहन बताती हैं. वहां हमने पाया कि रेणुसागर ने इस गांव की चारदीवारी पर ही अपना कोल हैंडलिंग प्लांट लगा रखा है. 24 घंटे कोयला लादते-उतारते ट्रक इस इलाके में दौड़ते रहते हैं और कोयले की धूल उड़-उड़ कर गरबंधा पर अपनी काली छाया डालती रहती है.
इसी तरह रेणुकूट के समीप जंगल में रिहंद के किनारे-किनारे करीब 2 किलोमीटर पैदल चलकर डोंगियानाला पहुंचा जा सकता है. वहां की हवा में दूर-दूर तक रासायनिक तत्वों की महक घुली हुई है. किनारों पर जमी हुई सफेद रंग की तलछट इस बात का इशारा कर रही है कि यहां का पानी साफ तो कतई नहीं है. नाले के मुहाने पर पहुंचने पर दृश्य और भी भयानक हो जाता है. रिहंद के जलग्रहण वाले क्षेत्र में रासायनिक कचरे की मोटी-मोटी परतें जमी हुई दिखती हैं. रासायनिक कचरे वाला यह पानी कनोरिया केमिकल्स लिमिटेड से आ रहा है. वहीं मुहाने पर बैठी कुछ महिलाएं उसी प्रदूषित पानी को अपनी बाल्टियों में भरकर घरेलू इस्तेमाल के लिए ले जा रही हैं. जिस पहाड़ी रास्ते से ये रासायनिक कचरे वाला पानी आता है उस रास्ते के पत्थर भी ब्लीचिंग सोडा के चलते कट-छंट गए हैं. ऐसे विषाक्त पानी में जलीयजीवन की कल्पना करना भी मूर्खता है. शुभा बहन एक बड़े खतरे का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘इस पूरे इलाके में जितना प्रदूषण एटीपीएस और कनोरिया कैमिकल्स फैला रहे हैं उतना ही योगदान हिंडाल्को एलुमिनियम का भी है. रिहंद से आगे जाने वाली नदी की धारा में हिंडाल्को का रेडमड (यानी लालरंग का कचरा) प्रदूषण फैला रहा है. लेकिन राजनैतिक प्रभाव के चलते जब भी प्रदूषण की बात होती है कनोरिया के कान ऐंठ कर मामला खत्म कर दिया जाता है. हिंडाल्को का नाम तक नहीं लिया जाता.’
महामारी बनती बीमारी
पर्यावरणीय मानकों की इतनी खुलेआम अनदेखी का दुष्प्रभाव मानवजीवन पर पड़ना लाजिमी है. अंतत: यही वह पैमाना है जिस पर सरकारें और व्यवस्थाएं इस बात का फैसला करती हैं कि किसी स्थान विशेष पर वास्तव में कुछ गड़बड़ है. सोनभद्र के अतिशय औद्योगिकरण वाले इलाकों में हवा, भूस्तरीय और भूगर्भीय जल बुरी तरह से प्रदूषित हो चुका है. इस इलाके में पानी का सबसे बड़ा स्रोत रहा रिहंद जलग्रहण क्षेत्र आज इस कदर प्रदूषित है कि इसका पानी पीकर बीते तीन-चार महीनों के दौरान ही 25 के करीब बच्चों की मृत्यु हो चुकी है. म्योरपुर ब्लॉक स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा अधीक्षक डॉ उदयनाथ गौतम बताते हैं, ‘रिहंद का पानी पीने वाले गांवों में बीते कुछ महीनों के दौरान असमय मौतों का सिलसिला शुरू हो गया है. कमरी डाढ़ गांव में अब तक 12 बच्चों की मौत हो चुकी है इसी तरह से एक गांव लबरी गाढ़ा है जहां 13 बच्चों की मृत्यु हुई है. इस संबंध में विस्तृत रिकॉर्ड सोनभद्र के मुख्य चिकि त्सा अधिकारी (सीएमओ) के पास भेजा जा चुका है.’
बच्चों की मृत्यु के संबंध में सोनभद्र के सीएमओ ने हाल ही में रिहंद जलाशय के पानी का नमूना जांच के लिए उत्तर प्रदेश राज्य स्वास्थ्य संस्थान, लखनऊ भेजा था. इसकी रिपोर्ट में कहा गया कि नमूने में घातक कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा 180 गुना तक ज्यादा पाई गई जो हैजा, पेचिश और टाइफाइड फैलाता है यह बैक्टीरिया प्रदूषित पानी में ही होता है. इस बाबत जिलाधिकारी पंधारी यादव का कहना था, ‘गांवों में मौतें हुई हैं, लेकिन पानी की जांच में हमें किसी हेवी मेटल के संकेत नहीं मिले हैं. इस इलाके में वायरल डायरिया का गंभीर प्रकोप है. लोग डॉक्टरों से इलाज करवाने की बजाय ओझाओं के चक्कर में पड़ जाते हैं. शायद बच्चों की मौतें इसी वजह से हुई हों.’
रिहंद के किनारे बसे 21 गांवों में फ्लोरोसिस की समस्या आज महामारी का रूप ले चुकी है. नई बस्ती गांव में विंध्याचल शर्मा, सीताराम, शीला, रमेश, राम प्रसाद पटेल, कुंज बिहारी पटेल, लल्लू पटेल, कुसमहा गांव में रामप्यारी, कबूतरी देवी, चंपादेवी, सोनू, पार्वती देवी, बीनाकुमारी, उत्तम, संगम आदि फ्लोरोसिस की अपंगता से पीड़ित लोग हैं. इसके अलावा ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जिनमें फ्लोरोसिस के प्राथमिक लक्षण मौजूद हैं. पिछले 10 सालों के दौरान इस रोग ने अपना दायरा बहुत तेजी से फैलाया है. डॉ गौतम कहते हैं, ‘पहले फ्लोरोसिस की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी. लेकिन जब से कनोरिया केमिकल्स और हाईटेक कार्बन की इकाइयां यहां शुरू हुई हैं तब से फ्लोरोसिस के मामले बहुत बढ़ गए हैं.’ स्थिति की गंभीरता का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि हाल ही में देहरादून स्थित पीपुल साइंस इंस्टिट्यूट ने जब सोनभद्र के 147 गांवों के 3,588 बच्चों में फ्लोराइड के असर की जांच की थी तो 2,219 बच्चे इससे प्रभावित पाए गए थे.
रिहंद के चोपन और म्योरपुर ब्लॉक में फ्लोरोसिस और विषाक्त पानी की समस्या है तो अनपरा में स्थितियां और भी गंभीर हैं. फ्लाइएश के चलते इस पूरे इलाके का भूगर्भीय जल बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है. लेड, आर्सेनिक और पारा जैसे खतरनाक रसायन फ्लाइएश से रिस-रिस कर भूगर्भीय जल को विषाक्त कर रहे हैं. इसके अलावा सूखी हुई फ्लाइएश के महीन कण हमेशा हवा में उड़ते रहते हैं जिससे यहां पेट और सांस संबंधी बीमारियों की बाढ़ सी आ गई है. वाराणसी स्थित हेरिटेज हॉस्पिटल की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर साल भर पहले ही अनपरा में आकर अपना क्लीनिक खोलने वाले डॉ राज नारायण सिंह बताते हैं, ‘दिन भर में मेरे यहां आठ से दस मरीज जोड़ों के दर्द और ऑस्टियोपोरोसिस के आते हैं. इसका सीधा संबंध लेड और पारे से प्रदूषित पानी से है. लोगों में असमय ही बुढ़ापे के लक्षण दिखने लगते हैं. इसके अलावा दमे के काफी मरीज आते हैं. हर तीन में दो आदमी यहां पेट की बीमारी से पीड़ित हैं.’
डिबुलगंज के आस पास स्थित बैगा आदिवासियों की बस्ती में टीबी की बीमारी छुआछूत की तरह फैली हुई है. गौरतलब है कि ये वही गांव है जो फ्लाइएश के सागर से घिर चुके हैं और इसी के इर्द-गिर्द बने गड्ढों से पानी पीते हैं. इसी बस्ती में 28 वर्षीय सुनील बैगा रहते हैं जिन्हें टीबी है. इलाज के बारे में पूछने पर सुनील कहते हैं, ‘दो-तीन महीने तक दवा खाई फिर बंद कर दिया. पैसा नहीं था.’
नियुक्तियों में वादाखिलाफी
रिहंद बांध को पार करके जैसे-जैसे हम शक्तिनगर की तरफ बढ़ते हैं एक के बाद एक डिबुलगंज, पिपरी, बेलवादर, निमियाडाढ़, परसवार राजा, जवाहरनगर, खड़िया मर्रक, चिल्काडाढ़ आदि गांव आते-जाते हैं. इनमें से किसी भी गांव में घुसने पर इनकी बनावट और बसावट में एक खास तरह की एकरूपता नजर आती है. ठीक मुंबई की किसी झुग्गी बस्ती की तरह.
इन बस्तियों में बेरोज़गारों की बहुतायत है. 1980 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अनपरा में थर्मल पॉवर संयंत्र लगाने की घोषणा के साथ ही जब एक बार फिर से यहां बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए थे तो उस वक्त सरकार ने सभी विस्थापितों का पुनर्वास और योग्यता के हिसाब से सभी परिवारों के एक सदस्य को नौकरी देने का वादा किया था. लेकिन इतने साल बीतने के बाद भी सरकारों और यहां स्थापित कंपनियों में यहां के निवासियों का किसी भी तरह से नियोजन करने की नीयत ही नहीं दिखती. 1980 के बाद से प्रदेश में एक के बाद एक सरकार बदलती रही, अनपरा इकाई अपना दायरा ए, बी, सी से फैलाकर डी तक पहुंच गई लेकिन विस्थापितों की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं. अनपरा इकाई में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘पुनर्वास को लेकर उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (यूपीआरवीयूएनएल) न तो गंभीर है न इस मामले में उसकी नीयत साफ है.’
अपनी पहली सूची में एपीटीएस ने 1,307 लोगों को नौकरी के लिए पात्र माना था. आज 30 साल बाद कंपनी के सेवायोजन का आंकड़ा है 304 यानी 30 फीसदी के करीब. असल में यहां स्थित यूपीआरवीयूएनएल हो या फिर लैंको या फिर एनटीपीसी, सभी कंपनियों ने अब स्थानीय लोगों को नौकरी नहीं देने की अलिखित नीति अपना रखी है. कुशल कर्मियों के लिए देश या प्रदेशस्तरीय परीक्षाएं होती हैं और अकुशल कामगार, कंपनियां ठेके पर रखती हैं. ये दैनिक मजदूर झारखंड, उड़ीसा आदि के आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं. स्थानीय लोगों को नौकरी न दिए जाने के सवाल पर लैंको पॉवर के कार्यकारी निदेशक आनंद कुमार सिंह बहुत दिलचस्प उत्तर देते हैं, ‘शुरुआत में ही स्थानीय लोगों ने हमारा विश्वास तोड़ दिया. ये लोग स्थानीय नेताओं के इशारे पर कंपनी में काम रोक देते थे.’
जल्दी ही इन कंपनियों ने दैनिक मजदूरों को ठेके पर रखना शुरू कर दिया. अकेले अनपरा की ए, बी इकाइयों और लैंको में इस वक्त कुल मिलाकर 3,000 के करीब दैनिक मजदूर काम करते हैं. यानी कि विस्थापितों के पुनर्वास और समायोजन की समस्या काफी हद तक हल हो सकती है. 2007 में उत्तर प्रदेश विद्युत मजदूर संगठन के अध्यक्ष आरएस राय और यूपीआरवीयूएनएल के तत्कालीन अध्यक्ष अवनीश कुमार अवस्थी के बीच इस संबंध में एक समझौता भी हुआ था जिसमें ठेका मजदूरी में 50 फीसदी स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर सहमति हुई थीं लेकिन आज तक इसे लागू नहीं किया गया है. आखिर कंपनियां ऐसा क्यों कर रही हैं? पहली नजर में तो मामला नीयत का दिखता है लेकिन किसी मजदूर से और स्थानीय लोगों को थोड़ा विश्वास में लेकर बात करने पर इसकी कुछ नई परतें उघड़ती हैं. ठेका आधारित दैनिक मजदूर असल में कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों के आपसी गठजोड़ और करोड़ों रुपए की अवैध कमाई का साधन है.
दरअसल, कंपनी के अधिकारी ठेकेदार को मजदूरों की व्यवस्था करने और उनके लेनदेन का जिम्मा संभालने का आदेश दे देते हैं. एक दैनिक मजदूर की प्रतिदिन की दिहाड़ी होती है 138 रुपए. मजदूर महीने में 26 दिन काम करता है और महीने के अंत में उसे लगभग 2500 रुपए का भुगतान ठेकेदार करता है जबकि उसे मिलना चाहिए 3588 रुपया. इस तरह से प्रति मज़दूर करीब 1000 रुपया कंपनी के अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबों में चला जाता है. पर कोई भी मजदूर इस बात को स्वीकार नहीं करता क्योंकि अगले ही दिन ठेकेदार उन्हें चलता कर देगा.
नौकरियों पर रखे जाने के सवाल पर अनपरा इकाई के प्रशासनिक महानिदेशक पीके गर्ग के बयान विरोधाभासी हैं. कभी तो वे यह कहते हैं कि हम डी इकाई में अस्थाई पदों पर स्थानीय लोगों को समायोजित करने पर विचार करेंगे. और फिर अपनी ही बातों को काटते हुए कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश सरकार ने 1994 में एक शासनादेश पारित किया था जिसके मुताबिक अधिग्रहण के सात साल बाद किसी को भी समायोजन का अधिकार नहीं रह जाता है, सिर्फ मुआवजा दिया जाएगा.’ यह पक्ष उत्तर प्रदेश सरकार ने पहली बार हाई कोर्ट में साल 2007 में रखा जबकि स्वयं कंपनी ने लोगों को 1998 तक इस आशय के पत्र दिए हैं कि जब भी कंपनी में रिक्तियां होंगी उन्हें अर्हता के आधार पर समायोजित किया जाएगा. तहलका के पास ऐसे कई पत्रों की प्रतियां हैं. सवाल है, आखिर 1994 में शासनादेश पारित हो जाने के बाद भी अधिकारियों ने लोगों को इस तरह के पत्र किस आधार पर दिए? मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है और उत्तर प्रदेश सरकार आज तक इस शासनादेश की कॉपी न तो सुप्रीम कोर्ट को सौंप सकी है न ही आरटीआई दाखिल करने वाले गैर सरकारी संगठनों को. कमोबेश यही स्थितियां एनटीपीसी के विस्थापितों की भी है. यहां लोगों के पुनर्वास का स्तर तो कुछ हद तक संतोषजनक है लेकिन नौकरियों में सेवायोजन का प्रतिशत महज 33 फीसदी है. स्थानीय लोगों को दरकिनार करके ठेके पर मजदूरों से काम करवाने की प्रथा यहां भी धड़ल्ले से जारी है. स्थानीय लोगों ने भी कमाई का दूसरा जरिया निकाल लिया है. अपने घरों के आधे हिस्सों में लोगों ने दड़बेनुमा कमरे बनवा रखे हैं जिनमें 10-10, 15-15 की संख्या में बाहर से आए मजदूर अमानवीय स्थितियों में किराए पर रहते हैं. अनपरा शक्तिनगर के इलाके में दो पीढ़ियां नौकरी और काम की आस में बैठी रहीं, उन्होंने न तो बाहर का रुख किया न ही वैकल्पिक उपायों को अपनाया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि जिस आधुनिक भारत के तीर्थ को बनाने के लिए वे अपने घर, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान और जीविका का बलिदान कर रहे थे वह अपनी संतानों को इतनी आसानी से नहीं दुत्कारेगा. वे गलत थे.
बेमानी जनसुनवाइयां
नई परियोजना को हरी झंडी देने से पहले इसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाली जनता के बीच जनसुनवाई आयोजित की जाती है. ऊपरी तौर पर तो यह व्यवस्था एक स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया का आभास देती है मगर असलियत में यह सिर्फ औपचारिकता भर है. उदाहरण के तौर पर लैंको अनपरा पॉवर प्रा. लि. को ही लेते हैं. श्याम किशोर जायसवाल बताते हैं, ‘हमने 10 अगस्त, 2007 को लैंको परियोजना की जन सुनवाई के दौरान छह बिंदुओं वाली एक मांग सूची जिलाधिकारी को सौंपी थी, लेकिन सरकार ने एक महीने पहले ही लैंको का भूमिपूजन करके वहां निर्माण कार्य शुरू करवा दिया था.’ यही रवैया अनपरा की ‘बी’ यूनिट के निर्माण के दौरान भी रहा था. जनसुनवाई की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जनता के हस्ताक्षर वाला सहमति पत्र अनिवार्य होता है. मगर प्रशासन ने इसका भी एक रास्ता निकाल लिया है. कार्यक्रम स्थल पर उपस्थिति रजिस्टर में दस्तखत करना अनिवार्य होता है. और बाद में प्रशासन इसी को सहमति हस्ताक्षर के रूप में पेश कर देता है.
बनारस जाते समय रास्ते भर सड़कों के किनारे बड़े-बड़े होर्डिंग दिखते हैं. लिखा है, ‘राष्ट्र की सेवा में सतत् समर्पित अ, ब, स ऊर्जा परियोजना.’ मन में एक सवाल उठा, ‘क्या इस देश में भी कई देश हैं?’
(तहलका से साभार)