ओम थानवी,संपादक,जनसत्ता
आज गांधी जयंती पर जब प्रधानमंत्री से लेकर मंत्रियों और भाजपा नेताओं तक में गांधी-गांधी का शोर है, हिंसाप्रेमी अनुयायी राजदीप सरदेसाई पर न्यूयॉर्क में हुए हमले को जायज ठहरा रहे हैं। एक ही पोस्ट अलग-अलग नामों से मुहिम की तरह चलाकर राजदीप के घर-परिवार, रिश्तेदारों तक को बदनाम किया जा रहा है। एक मोदी-मुदित चैनल ने तो पूरा कार्यक्रम राजदीप की निंदा में बनाया और उसे बार-बार दिखाया, जबकि चैनल प्रभारी सौ करोड़ की उगाही के आरोप में खुद जेल होकर आए हैं।
मैं राजदीप का मित्र नहीं हूँ, बल्कि उनमें मैंने निरर्थक अहंकार पाया है। यह भी मानता हूँ कि न्यूयॉर्क में हुड़दंगियों के उकसावे में आकर उन्हें अपना आपा नहीं खोना चाहिए था। लेकिन क्या इससे उनके साथ हुई बदतमीजी जायज ठहराई जा सकती है? अगर वह जायज थी तो उसके लिए भाजपा नेता विजय जॉली और अन्य भाजपाइयों ने माफी क्यों मांगी? सच्चाई यह है कि इक्के-दुक्के विवादस्पद फैसलों के बावजूद राजदीप सरीखे ईमानदार, निष्पक्ष और बेपरवाह पत्रकार हमारे यहाँ इने-गिने हैं।
मैंने ‘आज तक’ पर राजदीप का वह पूरा कार्यक्रम देखा था और भक्तों द्वारा टुकड़े में प्रसारित वीडियो भी देखा है। कार्यक्रम के दौरान निरंतर ‘राजदीप मुर्दाबाद’ के नारे लगे, फिर भी राजदीप ने संजीदगी और सौम्य बरताव बनाए रखा। लेकिन बाद में उन्हें बेतरह उकसाया गया और उन्होंने भी घड़ी भर को अपने आप को उस धक्का-मुक्की में धकेल दिया।
मगर सवाल राजदीप अकेले का नहीं है, मोदी सरकार के आने के बाद अभिव्यक्ति (वह चाहे अखबार-टीवी की हो, चाहे सोशल मीडिया की या साहित्य-कला आदि की) के प्रति असहिष्णुता बहुत बढ़ी है। लंबलेट पत्रकारों की जमात से ताकत हासिल कर उनके भक्त या मुरीद आलोचना करने वालों की नीयत और चरित्र से लेकर परिवार तक पर कीचड़ उछाल रहे हैं। चैबीसों घंटे मोदी की प्रंशसा करने वाले चैनल उन्हें ठीक लगते हैं, लेकिन आलोचना करने वाले पत्रकारों-ब्लॉगरों आदि को वे पहले वे चुप रहने, दूसरे विषयों पर लिखने जैसे उपदेश देते हैं और फिर हिंसा का रास्ता अख्तियार करते हैं। इस सिलसिले में अनेक हमले, यहाँ तक कि हत्या भी हो चुकी है।
ऐसी हिंसा को इतनी सरेआम शह कहाँ से मिलने लगी है? क्यों पार्टी के जिम्मेदार नेता — मौन-लुप्त आडवाणी भी — ऐसी हरकतों की कड़ी निंदा नहीं करते हैं? प्रधानमंत्री के चेहरे वाली गंजी धारण कर और उनके नाम का अनवरत जाप कर हुड़दंगी जो सन्देश प्रसारित करते हैं, उसका खंडन आखिर कौन करेगा? गांधीजी का नाम लेना और हिंसक तत्त्वों की लीलाओं पर चुप रहना कैसी राजनीति हुई? यह चुप्पी ऐसी गतिविधियों का सिलसिला और बढ़ाएगी। इससे देश का लोकतंत्र तो कमजोर होगा ही, आगे जाकर, बहुत संभव है, यह शायद भाजपा और खुद प्रधानमंत्री को भो शर्मिंदा करे। (स्रोत-एफबी)