आलोक ,एक्जीक्यूटिव एडिटर,नेटवर्क18 डॉट कॉम
अरनब के बहाने… साल 2006 की ही बात है. यूनीवार्ता में था. नई नौकरी की तलाश थी. तब टाइम्स नाऊ की चर्चा थी. ये भी की हिंदी चैनल भी आ रहा है. रांची में रिपोर्टिंग के गुर सिखा चुके Ajay Verma जी वहां लग गए थे. मैं लटक बनना चाहता था. उनने कहा कि सीधे बात करो. मैंने भी यूनीवार्ता के अहाते में मूड बना कॉल लगाया. वैसे हिम्मत नहीं थी. अरनब ने फोन उठा लिया था. मैंने अपनी इच्छा जताई. बेहद सौम्य तरीके से पूछा गया आप हिंदी के लिए कॉल कर रहे या अंग्रेजी. मैंने तपाक से हिंदी बोला. जवाब मिला, फिलहाल अंग्रेजी पर फोकस है, हिंदी की शुरुआत होगी तो कनसीडर करेंगे.
नौकरी नहीं मिली. संतुष्टि मिली. सिर्फ बातचीत के तरीके से. मौजूदा स्वभाव के बारे में मालूम नहीं. हालांकि अनुभव के आधार पर एक पैटर्न जरूर बता सकता हूं. शायद आपने भी गौर किया हो. कारण, पत्रकारिता में कोई वैकेंसी नहीं आती थी. अब कभी-कभार लिंक्डइन, नौकरी पर छोड़ देते हैं. तो करियर की बेहतरी के लिए संपादकों को फोन मिलाना ज़रूरी होता था. तब भी. लिंक्ड इन के बावजूद अब भी.
हिंदी के संपादकों को भी कई बार फोन मिलाया. पर अनुभव खट्टा रहा. अव्वल तो फोन नहीं उठाते थे. अगर उठा भी लिया तो कुछ बातचीत कुछ ऐसे होती थी. राष्ट्रीय हिंदी अख़बार के एक संपादक से हुई बातचीत का सार.. सर, मैं फलां हूं और फलां जगह काम करता हूं.. जवाब – तो,.. मैं – सर, जानकारी मिली कि आपके यहां पोजीशन ओपन है. जवाब – किसने नंबर दे दिया. कभी भी फोन कर देते हो. कट. लगा बिजी होंगे. हमें भी टाइम पूछ लेना चाहिए. मैसेज सबसे सही है.
फिर अनुभव हुआ कि संदेश का तो जवाब ही नहीं मिलता है. फोन की सेटिंग में डिलिवरी रिपोर्ट भी ऑन कर के कइयों को संदेश भेजे थे.बता दूं जेनरिक चर्चा कर रहा हूं, अपवाद मौजूद हैं.
लेकिन जिन महोदय ने फोन काटा उनके इतर एक अंग्रेजी सपादक से कैसे जवाब मिला था. बता दूं.. हैलो सर आलोक दिस साइड, जवाब – हाय आलोक , हाऊ आर यू. .. सर, फाइन, केम टू न अबाउट ओपनिंग विथ यू.. जवाब.. आलोक एक्चुअली एम इन ए मीटिंग (आवाज भी धीमी जैसे मेहनत से दूसरी हथेली भी मुंह पर लगा कर बात हो रही हो), विल बी टेक्स्टिंग यू आईडी. प्लीज सेंड यूर सीवी.. बाय..
अंग्रेजीदां कह कर भले गरिया ले जाएं पर एसएमएस का प्रॉम्ट जवाब भी उन्हीं से मिलता रहा.. अब ये तो कह नहीं सकते कि हिंदी संपादक मैसेज नहीं पढ़ते या आता नहीं. फिर कारण क्या हो सकता है, आज तक पता नहीं चला. एटीट्यूड भी तो अंग्रेजी वालों पर हावी रहता है. उनके मुकाबले हिंदी वाले ज्यादा संघर्ष कर आगे बढ़े होते हैं. ये मेरा मानना है. फिर भी तहजीब के स्तर पर तुलनात्मक गिरावट स्पष्ट दिखाई देती है.
गाहे बगाहे इंटरव्यू के लिए बुला लिए गए तब भी ये गिरावट कई बार दिखाई देती हैै. जैसे, जागरण का चैनल शुरु हो रहा था. अजीत शाही भर्ती कर रहे थे. किसी तरह उन तक पहुंचा. पूछा.. क्या कर सकते हो. मैंने कहा.. लिख सकता हूं.. कहीं भगदड़ में कई लोगों की मौत हुई थी. उन्होंने कहा.. ऐसी स्क्रिप्ट लिखो जो न एनडी के पास हो न आज तक के. मन में खटका तो लग गया. फिर भी जी जान से कॉपी लिखी. दिखाई. बोले – इसमें कुछ नया नहीं है पर कॉपी साफ सुथरी है. बताएंगे. इसी शब्द से डर लगता था. बताएंगे दरअसल रिजल्ट होता है.
क्यों दे नौकरी, आपको क्या आता है.. ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब हमेशा कठिन रहे.. मन में कई बार आया कि अगर ये पूछा गया कि आप क्या कर सकते हैं.. तो बोल दूंगा.. सर, जो आप करने आए हैं उसे अंजाम तक पहुंचाने में पूरा सहयोग करूंगा.
नोट – यहां सिर्फ अपने मन की बात की है. निजी अनुभव के आधार पर. कुछ या सारे निष्कर्ष या संदर्भ मेरी अक्षमता के कारण भी वर्णित हो सकते हैं. #ArnabGoswami #TimesNow
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