हरेक साल दिल्ली में ‘सिने बहसतलब’ का आयोजन होता है जिसमें सिनेमा के विविध पहलुओं पर परिचर्चा होती है। इस बार इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दो दिनों तक यह परिचर्चा चली। परिचर्चा के दौरान जिस तरह की बातचीत हुई, उसमें से कुछ बातें। दरअसल ये कोई मुकम्मल रिपोर्ट नहीं बल्कि मीडिया खबर डॉट कॉम के एफबी पेज पर शेयर किये गए स्टेटस हैं।
1) फिल्म इंडस्ट्री के लोगों के साथ समस्या है कि वे एक जगह अटक जाते हैं तो फिर अटक ही जाते हैं। दिल्ली में सिनेमा पर हुई एक परिचर्चा में दस और रा-वन जैसी बड़े बजट की फिल्मों के निर्देशक ‘अनुभव सिन्हा’ फ्लेवर्ड कंडोम पर अटक गए थे। बार – बार जिक्र कर रहे थे। उनकी तकलीफ थी कि टीवी पर फ्लेवर्ड कंडोम से सम्बंधित विज्ञापन का प्रसारण होता है तो उसपर कोई रोक – टोक नहीं। लेकिन फिल्मों में सिगरेट के छल्ले पर सेंसर बोर्ड की कैंची चल जाती है कि इस दृश्य को ऐसे दिखाओ-वैसे दिखाओ, यह लिखो-वह लिखो। दरअसल अनुभव सिन्हा बड़े फिल्म निर्देशक होने के बावजूद कंडोम और सिगरेट के आधारभूत अंतर को समझ नहीं पा रहे थे। शगुन टीवी के प्रमुख ‘अनुरंजन झा’ ने फिल्म निर्देशक ‘अनुभव सिन्हा’ से जब आक्रामक ढंग से सवाल पूछा तब जाकर अनुभव सिन्हा का ट्रैक बदला। ऐसे – ऐसे फिल्मकार हैं।
2) फिल्म इंडस्ट्री वाले नहीं चाहते कि सिनेमा के दर्शक सिनेमा के बिजनेस को समझे। कंटेंट और कलेक्शन के द्वन्द पर बातचीत करते हुए अनुभव सिन्हा और फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज बार – बार इस बात पर जोर दे रहे थे कि दर्शक को कलेक्शन से क्या मतलब? दर्शक को फिल्म जाकर देखनी चाहिए। अपने आप में ही ये बात अजीब लगती है कि जो दर्शक ‘कलेक्शन’ का मुख्य जरिया है , उसे कह रहे हैं कि आप इन सबसे दूर रहे और अपने परिवार के साथ हज़ार रूपये थियेटर में जाकर आपकी बकवास (जिससे मनोरंजन न हो) फिल्म पर फूंक आये। अखबारों में छपने वाली वाली समीक्षा किस तरह से मैनेज होती है ये किसी से छूपा नहीं है। ऐसे में क्रॉस चेक करने के लिए सिनेमा के दर्शक फिल्म के कलेक्शन पर भी नज़र डालते हैं तो फिल्म निर्देशकों को खुजली क्यों होती है? वैसे भी यह आग आपही लोगों की लगायी हुई है। फिल्म सौ करोड़ के क्लब में …………..
3) फिल्म जर्नलिज्म में जमकर पीआर जर्नलिज्म होती है। इसकी झलक आप फिल्मों को स्टार देने वाले फिल्म पत्रकारों की समीक्षा में देख सकते हैं। तभी मल्लिका शेरावत की ‘हिस्स’ जैसी महाबकवास फिल्म की भी तारीफ़ दैनिक जागरण जैसे अखबार में पढने को मिल जाती है। लेकिन पीआर जर्नलिज्म का दौर सिर्फ समीक्षा तक सीमित नहीं है। सभा संगोष्ठियों तक में दिखाई देता है। दिल्ली में दो दिनों तक चले ‘सिने बहसतलब’ में एक फिल्म पत्रकार बॉलीवुड और गैंग्स ऑफ़ वासेपुर सरीखी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक का ऐसे बचाव कर रहे थे जैसे मानों उनके प्रतिनिधि ही हों।
4 ) सिने बहसतलब में कल फिल्म निर्देशकों के साथ – साथ पत्रकार ‘दिबांग’ को भी सुनने गए थे। हाल ही में वे पहली बार ‘मद्रास कैफे’ में अभिनय करते हुए दिखाई दिए थे। बहरहाल वे तो नहीं आये, लेकिन एनडीटीवी इंडिया के प्रियदर्शन Priya Darshan) को सुनने का मौका। सुनकर लगा कि सिनेमा पर भी उनकी समझ बेहद गहरी है। उन्होंने एक बेहद अहम् सवाल उठाया कि यथार्थवाद के नाम पर गाली को गाली के तरह पेश कर देते हैं तो इसमें निर्देशक की कल्पनाशीलता कहाँ हैं? (संदर्भ – गैंग्स ऑफ़ वासेपुर)l
5 ) दिल्ली में हुए ‘सिने बहसतलब’ के दौरान नो वन किल्ड जेसिका के निर्देशक राज कुमार गुप्ता मीडिया विश्लेषक ‘विनीत कुमार’ के सवाल पर इस कदर भड़क गए कि उन्हें मूर्ख तक कह डाला। लेकिन सवाल उठता है कि सवाल दमदार नहीं था तो उन्हें इतनी चोट क्यों लगी? चोट ऐसी लगी कि उन्होंने इस व्यक्तिगत स्तर तक ले लिया। इससे ज्यादा सहनशील तो हमारे न्यूज़ चैनलों के चैनल हेड हैं जो इतने सवाल पूछे जाने पर कम – से – कम किसी को मूर्ख तो नहीं कहते हैं। महेश भट्ट को भी ऐसा करते हुए पहले भी कई बार देखा जा चुका है। सवालों से इतना ही डर लगता है तो उन्हें मायानगरी के बंद दरवाजों के भीतर ही रहना चाहिए। दिल्ली उनके लिए माकूल जगह नहीं। सवाल नो वन किल्ड जेसिका के चैनल पार्टनर एनडीटीवी से सम्बंधित था।
अजय ब्रह्मत्मज इस वक्त सबसे बड़े फिल्मी दलालों में से एक हैं, इनकी समीक्षाएं, लेख सबकुछ पीआर कैटेगरी के होते हैं जरूरत इस बात की है कलम का सौदा करने वाले इस दलाल पत्रकार का बायकाट किया जाए।
Pushkar pushp badhai ke patr hain jihone in muddon ko itni bebaki se uthaya hai.