रेडियो एक ऐसा जरिया है, जो सिर्फ ध्वनि यानी आवाज से फैलता है। जब से रेडियो शुरू हुआ, तब से ऐसे कई लोग आए जिन्होंने इस मीडियम को तराशा। एक जमाना था जब ऑल इंडिया रेडियो बहुत अच्छा था और आकाशवाणी को लोग आकाशवाणी की तरह ही सच्चा मानते थे। उस जमाने में वहां जो संगीत बजाया जाता था, वह परंपरा का सार लेकर चलता था। लिटरेचर और पॉइट्री इसका आधार रहे थे। भाषा को भी सीधा और सरल रखा गया था। एक वक्त ऐसा भी आया, जब ऑल इंडिया रेडियो में बहुत ज्यादा गंभीरता आ गई। रोमांटिक गीत भी वे सीरियस होकर अनाउंस करते थे। मगर जिस रेडियो में मिठास और अपनापन न हो वह ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रह सकता। हालांकि, बाद में उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ और फिर से अच्छे लोग जुड़े।
रेडियो का स्टाइल अगर रोचक हो तो वह टीवी की भी बराबरी कर सकता है। रेडियो में अनाउंसर या जॉकी सिर्फ बोलकर ही एक रंगीन दुनिया बना लेते हैं, जहां सुनने वालों को लगता है कि अगर वे हाथ बढ़ाएं तो उस दुनिया को छू सकते हैं। यह करामात टीवी में नहीं है। अब जमाना है एफएम का। यह एक खुली हवा के झोंके की तरह आया है। इसमें रेडियो जॉकी खुलकर बात करते हैं। मैंने अपने इतने लंबे करियर में हमेशा स्क्रिप्ट के साथ प्रोग्राम किए हैं। लेकिन मुझे पता लगा कि आजकल एफएम में रेडियो जॉकी को स्क्रिप्ट अंदर ले जाने की इजाजत नहीं होती। यह वाकई एक क्रांतिकारी बदलाव है। लेकिन हर अच्छाई के साथ बुराई भी चली आती है। कई बार जॉकी चिल्ला चिल्लाकर बोलते हैं, यह गलत है। आज के प्रोग्राम्स में बहुत बनावट आ गई है। मेरा मानना है कि संगीत में परंपरा की बात होनी चाहिए।
जिंदगी में परंपरा और प्रगति को साथ जोड़े रखना बहुत जरूरी है। हमारे फिल्मी गाने पहले कैसे थे और कैसे पश्चिम का प्रभाव इन पर पड़ रहा है, यह साफ है। कम से कम दोनों तरह के संगीत को साथ लेकर चला जाए। हमारी आज की पीढ़ी को मालूम होना चाहिए कि हमारा संगीत क्या हुआ करता था। यह जिम्मेदारी रेडियो जैसे संचार माध्यम की बनती है। किसी भी संचार माध्यम के लिए सात ‘स’ बहुत जरूरी हैं। संचार सही हो, सत्य हो, स्पष्ट हो, सरल हो, सभ्य हो, स्वाभाविक हो और सुंदर हो। इन चीजों का खयाल रखकर ही प्राइवेट चैनल फल-फूल सकते हैं। ऐसा नहीं है कि ऑल इंडिया रेडियो ने समय के साथ खुद को बदला नहीं है। विविध भारती आज भी लाखों-करोड़ों लोग बड़े प्यार से सुनते हैं। अब एफएम गोल्ड है जहां पुराने गीतों को सुना जा सकता है। रेनबो भी आ गया है जहां यंगस्टर्स के लिए प्रोग्राम रखे जाते हैं।
रेडियो जॉकी बनने से पहले आपको अपनी पर्सनैलिटी को अच्छी तरह निखारना चाहिए। रेडियो पर जो लोग बोलते हैं, उन्हें भाषा का खास तौर पर ध्यान रखना चाहिए। अगर आपकी भाषा में दो-चार इंग्लिश के शब्द आ भी गए तो कोई बात नहीं, लेकिन आपकी व्याकरण शुद्ध हो। नई पीढ़ी अपने आस-पास के माध्यमों से ही तो सीखती है। लेकिन मैं देखता हूं कि आजकल के रेडियो जॉकी इस बात पर ध्यान नहीं देते। हां, कुछ लोग हैं जो बहुत अच्छे प्रोग्राम्स भी कर रहे हैं। रेडियो में एनर्जी और एंटरटेनमेंट के साथ एजुकेशन भी होना चाहिए। इसके अलावा जिस तरह से रेडियो स्टेशन के बाहर भी अब प्रोग्रा?स प्रोड्यूस होने लगे हैं, वह एक अच्छा कदम है। इन प्रोग्राम्स में वैरायटी मिलती है।
(रीना पारीक से बातचीत के आधार पर. नवभारत टाइम्स से साभार)