अभिषेक श्रीवास्तव,स्वतंत्र पत्रकार
कल प्रेस क्लब में एक परिचर्चा हुई जिसका शीर्षक था ”वैकल्पिक राजनीति का भविष्य”। विषय का ही आकर्षण था कि इतने लोग कार्यक्रम में पहुंच गए वरना आधार वक्तव्य पढ़े जाने के बाद तकरीबन सभी की समझ में आ चुका था कि सारी बातचीत दरअसल आम आदमी पार्टी के अंदरूनी संकट पर केंद्रित होनी है। हुआ भी यही। यह कार्यक्रम योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को वैकल्पिक राजनीति का हरकारा ठहराते हुए उन्हें बेलआउट देने वाला साबित हुआ।
आम आदमी पार्टी किसी भी दूसरी बुर्जुआ संसदीय पार्टी की तरह एक और पार्टी है। आंदोलन से कांग्रेस भी निकली थी और बीजेपी भी, सिवाय इसके कि आम आदमी पार्टी घोषित रूप से तीसरा पक्ष है। यह कोई नई बात नहीं है। तीसरा पक्ष इस देश में कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में 1925 में ही खड़ा हो चुका था। अब कम्युनिस्ट पार्टियां ढलान पर हैं, सिर्फ इसलिए आम आदमी पार्टी को ”वैकल्पिक राजनीति” का पर्याय मान लिया जाए, यह कैसी समझदारी है? आम आदमी पार्टी पर बात करने में किसी को क्या दिक्कत होगी, लेकिन विषय में उसके नाम को छुपाना बहुत घातक है। आप सोचिए कि कार्यक्रम में करीब पचास छात्र भी मौजूद थे। उन्हें तो यही मैसेज गया होगा कि आम आदमी पार्टी ही वैकल्पिक राजनीति की वाहक है!
”वैकल्पिक राजनीति” के बाद अब ”वैकल्पिक मीडिया” को भी हाइजैक करने की तैयारी है। सुनने में आ रहा है कि ”वैकल्पिक मीडिया” का उद्घोष कर के कुछ घुटे हुए पत्रकार-जीव आम आदमी पार्टी की एक वेबसाइट (बाद में चैनल) लाने जा रहे हैं। पहले आम आदमी पार्टी ने ”आम आदमी” को छीन लिया, फिर ”ईमानदारी” को छीन लिया, अब ”विकल्प” को भी छीन लिया। समाज में प्रयोग होते रहने चाहिए, लेकिन विवेकहीन जल्दबाज़ी में उनके साथ ”वैकल्पिक” जोड़ने में दिक्कत यह है कि जैसे ही प्रयोग संदिग्ध या नाकाम होता है, वह विकल्प की वास्तविक कोशिशों को बरसों पीछे धकेल देता है। हो सकता है कि यह समस्या हमारी भाषा की सीमा के चलते हो, लेकिन सहज ज्ञान तो यही कहता है कि आप जो कहना चाह रहे हैं वही कहिये, कुछ और कहने का भ्रम मत फैलाइए। अगर अगली बार कहीं कोई ”वैकल्पिक राजनीति” के नाम से कार्यक्रम करेगा तो क्या उन लोगों को उस पर शक़ नहीं होगा जो कल के कार्यक्रम में विकल्प की उम्मीद लेकर गए थे?