एबीपी चैनल का सीरियल भारतवर्ष महानायकों की कड़ी में इस बार दारा शुकोह पर केंद्रित था। चौंक सकते हैं कि दारा शुकोह अपने व्यक्तित्व में इस तरह महानायकों की पंक्ति में शूमार हो सकता है। बेशक अगर इतिहास के पन्नो में उसके व्यक्तित्व और कार्यों पर सही रोशनी पड़ती।इस मायने में दारा शुकोह पर यह कड़ी देखना महत्वपूर्ण है।
वरना इतिहास में इतना भर बताया गया कि वह धार्मिक कट्टरता के खिलाफ था। शाहजहा उसे बेहद पसंद और ओरगंजेब बेहद नापसंद करता था। और आखिर वह औरंगजेब के सत्ता उसका वध किया गया। साथ ही साथ यह भी बात उठती है कि अगर औरगंजेब की जगह शुकोह राजा होता शायद इतिहास अलग होता।
एबीपी चैनल में शुूकोह के इन प्रसंगों को तो लाया ही गया साथ ही बताने की कोशिश की गई कि आखिर वह महानायक क्यों है। इतिहास में उसका अलग मूल्यांकन किए जाने की जरूरत क्यों हैं। आखिर क्यों अकबर को दीन इलाही धर्म के नाते जो सम्मान दिया गया शुकोह को हिंदू मुस्लिम एकता की अलख जगाने मज्म उल्ल बहुरेन ( बहुत से सागरों का एक जगह मिलना) जैसे उच्च कोटी रचना को देने, तमाम हिंदू ग्र्ंथों और उपनिषदों का फारसी में तुर्जुमा करने , और आदि शंकराचार्य की अवधारणा को महसूस करने पर इतिहास वो जगह क्यों नहीं दे पाया। जबकि शुकोह अकबर से एक कदम आगे हिंदु मुस्लिम की आध्यात्मिक एकता की बात करते रहे। जिस मायने में इतिहास ने अमीर खुसरों की रचनात्मकता पर बखूबी नजर दौड़ाई, कबीर को नमन किया उस तरह दारा शिकोह उनसे ओझल ही रहे।
2- एबीपी ने अच्छा किया कि दारा शुकोह का शुद्ध नाम लिखा। वरना प्रचलन में शिकोह शब्द है। शुकोह मतलब शानशौकत। शाहजहा अपने बेटे दारा से बहुत प्यार करता था। उसके लिए सोने की कुर्सी बनाई गई थी। हालांकि एक दिन वो भी आया कि वह औरगंजेब की जेल में कैद हुआ। उसे पहले दीनहीन हालत में शहर में घुमाया गया। और एक समय उसका कत्ल भी किया गया। नाम में क्या रखा है । क्या सोचकर बादशाह बाबर ने अपने बेटे का नाम हुमायूं रखा यानी सुख से जीने वाला, वह दर दर भटकता रहा। शुकोह को नाम के अनुरूप जिंदगी नहीं मिली
3 एबीपी चैनल की यह कड़ी इस मायने में बेहद महत्व रखती है कि ठीकठाक अनुसंधान के बाद और कई तथ्यों को परखने के बाद कुछ पहलुओं को सामने लाया गया। यह बताया गया कि दारा शिकोह केवल फकीरी जीवन तक सीमित नहीं था बल्कि उसने युद्ध भी लडे। हां वह औरगजेंब की तरह कुशल सैन्य व्यूह रचने वाला नहीं था। इसके अलावा जिन पहलू पर रोशनी डाली गई वह उनके मियां मीर सूफी संत और बाबा लाल बेरागी की शरण में आध्यात्मिक शिक्षा लेना है। शुकोह इन महात्मा सूफी फकीरों से प्रश्न करते थे और अपने जीवन का रास्ता बनाते थे। जिसे औरगजेब के समय के कट्टर मौलवियों ने और दरबारियों ने पसंद नहीं किया। इसी कड़ी में महत्व की बात कही गई कि उनके फारसी अनुवाद का जब लेटिन भाषा में अनुवाद हुआ तो पश्चिम जगत को भारतीय संस्कृति सभ्यता का ज्ञान हुआ।
4- शुकोह संस्कृति कला धर्म साहित्य के गहन अध्येता थे। उनके बेटे सलमान शिकोह ने जब औरंगजेब के डर से गढवाल के राजा पृथ्वपति शाह के यहां शरण ली थी तो हिमाचल के कुछ चित्रकार भी उनके साथ गए थे। दुनिया में ख्यातिप्राप्त चित्रकार मोलाराम तोमर इन्हीं चित्रकारों के वंशज थे। लेकिन यह प्रसंग अभिव्यक्त करता है कि शुकोह ने अपने बेटों को भी संस्कृति साहित्य कला की तालीम में निपुण बनाने की कोशिश की थी।
5 एबीपी ने प्रो सादिक, इरफान हबीब आदि कुछ विद्वानों के साथ चर्चा करते हुए इस पहलू को उठाने की कोशिश की है कि शुकोह अगर औरगंजेब की जगह देश के बादशाह होते तो क्या भारत की तस्वीर दूसरी होती, इसी संदर्भ में यह भी रेखाकित होता रहा कि उनकी इच्छा राजकाज में ज्यादा नहीं थी. औरगजेब के अत्याचार एक अलग कहानी लेकिन शासक होने का हुनर उसे ही आता था। बड़ी चतुराई से उसने मुराद को भी साथ ले लिया था। लेकिन यह पक्ष भी उठाया गया कि राजवंश में युवराजों को जो कुछ सिखाया जाता था शाहजहां ने अपने सबसे बडे बेटे दारा को सिखाया। वह युद्ध भी लडा।
6- भारतवर्ष सीरियल में दारा शुकोह पर केंद्रित इस कड़ी को देखने समझने के बाद यह प्रश्न उभरता है कि आखिर सूफीवाद , मानवतावाद, धार्मिक एकता , आध्यात्मिक एकता के इतने बडे प्रवक्ता को प्रगतिशीलों और आधुनिक सोच का दावा करने वाले विचारकों ने इस तरह क्यों नजरअंदाज कर दिया। दारा शुकोह को तो कबीर के समक्ष रखना था। अमीर खुसरो की तरह देखना था। अकबर में तो कुछ पेबंद भी लगे थे लेकिन दारा शुकोह तो एकदम पवित्र था।
7- एक जगह शायद लाल किला दिखाते हुए आजाद भारत का झंडा दिख गया। जबकि प्रसंग चार सौ साल पुराना है। औरंगजेब ने जब शाहजहां से सत्ता छीनी थी तो उस प्रसंग पर कुछ मंचन भी हुए हैं। वह इतिहास का एक मोड है, उसे थोड़ा दिखाया जा सकता था।
8- शुकोह को लोग बहुत पसंद करते थे। उसकी थोडा विस्तार से व्याख्या होनी चाहिए थी। क्या मुस्लिम सत्ता के युवराज के उदारवादी होने पर हिंदु ही पसंद करते थे या मुस्लिम भी उन्हें चाहते थे। औरंगजेब के दरबार में उन्हें कत्ल किए जाने का फरमान होने पर उनके अंदर जीने के लिए ललक दिखाई गई। उन्होंने शाही दरबार में एक पत्र भी भेजा। यहां लगता है कि जैसे वह असहाय से होकर याचना कर रहे हो। जबकि इतिहास की पुस्तकों में वर्णन आता है कि वह शाही फरमान से कभी डरे नहीं। उनका मिजाज फकीरी था वे अलमस्त थे लेकिन इसलिए उन्होंने कहा हो कि मुझे क्या चाहिए बस दो रोटी एक छत। लेकिन इसका आशय यह नहीं था कि वह औरंगजेब सल्तनत से दबे हों डरे हों।
वेद उनियाल,वरिष्ठ पत्रकार