विनीत कुमार
ये सही है कि जिन न्यूज चैनलों के रगों में कार्पोरेट और राजनीतिक पार्टियों का खून दौड़ता है, उनसे लोकतांत्रिक परिवेश बनाने की बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती और जो ऐसी उम्मीद रखते हैं उनकी मीडिया के प्रति नासमझी साफ झलक जाती है. पूंजी और ताकत के दम पर वो जिस लोकतांत्रिक प्रकिया से होनेवाले चुनाव को शक्ति प्रदर्शन में बदल रहे हैं, उसके आगे कहने को कुछ रह नहीं जाता. इन सबके बावजूद इतना लोकतंत्र तो फिर भी बचा रह जाता है कि लोग चलकर मतदान करते हैं, भले ही वो किसी न किसी रूप में प्रभावित होकर मतदान करते हैं लेकिन प्रक्रिया तो लोकतांत्रिक ही है. ऐसे में इसके बाद चुनकर आनेवाले का राजतिलक कैसे हो जाता है ?
लोकतंत्र के भीतर राजतिलक शब्द क्या ये बतलाने के लिए काफी नहीं है कि दरअसल चैनलों के डीएनए में ही राजतंत्र, सामंतवाद और औपनिवेशिक चिन्ह रचे बसे हैं.
आजतक तो कार्यक्रम की शुरुआत में महाभारत वाला भोंपू तक बजाता है लेकिन आज जब सतीश के सिंह ( Satish K Singh) की एफबी दीवार पर एक कार्यक्रम के लिए यही “राजतिलक” शब्द का प्रयोग देखा तो लगा, आजतक तो नहीं लेकिन सतीश के सिंह जैसे राजनीति और संविधान कीगहरी समझ रखनेवाले संपादक तो इससे बच ही सकते थे. कॉर्पोरेट की आग में सबकुछ तो स्वाहा हो ही रहा है, निशानी के तौर पर लोकतंत्र के कुछ शब्द ही बच जाए तो क्या हर्ज है ?
(स्रोत-एफबी)