पुष्य मित्र
थोड़ी बहस स्टिंग ऑपरेशनों पर भी होनी चाहिये. स्टिंग पत्रकारिता से लोगों का कितना लाभ हुआ है? मैं कभी टीवी में नहीं रहा मगर जिन छोटे बड़े शहरों में काम करने का मौका मिला वहां टीवी वालों से राफ्ता रहा. मैंने वहां स्टिंग पत्रकारिता के कुछ ट्रेंड देखे, उनका उल्लेख कर रहा हूं.
– 10 में से एक स्टिंग ही प्रसारित होते हैं. 6 चैनलों के दफ्तर तक भी नहीं पहुंचते, रिपोर्टर उनका इस्तेमाल सामने वाली पार्टी को ब्लैकमेल करने के लिए करते हैं. जो 4 स्टिंग दफ्तर पहुंचते हैं उनका सौदा संपादक और मालिक मिल कर करते हैं, सौदा नहीं पटा तो एक-आध दिखा भी दिया जाता है.
– स्टिंग हमेशा किसी व्यक्ति को टारगेट करके किया जाता है. अधिकांश मामलों में अपोजिट पार्टी पैसा लगाने और सबूत जुटाने में मदद करने के लिए तैयार रहती है. कई मामलों में तो अपोजिट पार्टी खुद स्टिंग करके रिपोर्टरों को सौंप देती है.
– जिलों और छोटी जगहों में टीवी जर्नलिस्ट जिन्हें उनका संस्थान वेतन नहीं देता, स्टिंग आपरेशन कई रिपोर्टरों का धंधा बन जाता है. उनके पास शहर के कई संभ्रांत लोगों की सीडी होती है और वे लोग नियमित तौर पर ब्लैकमेल होते हैं.
यह पत्रकारीय नैतिकता के मानदंड पर कितना खरा है यह भी सोचने की जरूरत है.
– इससे एक दोषी का तो बंटाधार हो जाता है मगर 99 दोषी साफ बच जाते हैं. जैसे संसद में पैसे लेकर सवाल पूछे जाते हैं यह बताने के लिए जो स्टिंग किया गया उसमें जिन लोगों का चेहरा सामने आया उन पर कार्रवाई की गयी. मगर इस व्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया गया कि सवाल इस तरह न पूछे जायें.
– वैसे यह जरूर है कि स्टिंग के प्रसारण के बाद दोषियों के मन में खौफ उत्पन्न होता है और उस तरह के प्रचलन में कमी आती है.
वैसे तो व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि अच्छी पत्रकारिता के लिए स्टिंग की कोई खास जरूरत नहीं है. मगर यह अपने-अपने पसंद की बात है स्टिंग की खूबियां भी होंगी, मगर हमें स्टिंग के संदर्भ में ऐसे मानदंड तय करने चाहिये कि इसका दुरुपयोग कम से कम हो.
(स्रोत-एफबी)