संजीव चौहान
: सवाल पूछने का अधिकार, आखिरकार खो दिया
खैर छोड़िये। इन दोनो के मालिकों ने इन्हें इस कदर हड़का दिया है इन दिनों…कि इन्हें नौकरी के लाले पड़े हैं। सो इन्होंने जल्दबाजी में अपनी पगार-परिवार सलामत रखने के लिए एक ऐसा “ज़हर-बुझा” नुस्खा खोजा है, जिसे अमल में आते ही….सैकड़ों परिवार चौराहे पर खड़े हो गये हैं। दोनो उस्तादों ने अपनी पगार और परिवार की सलामती का वास्ता देकर, कल तक इन्हीं के वफादार रहे, अनगिनत वफादारों और उनके परिवारों को इन्होंने ‘दांव’ पर लगा दिया है।
मतलब अपनी पगार की खातिर दोनो उस्तादों ने अपने से नीचे वालों को, जिनकी पगार ((तन-खा) एक लाख से ऊपर है, उनकी नौकरी ‘चबाना’ शुरु कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे हाथी मुंह में गन्ना चबाता है। वजह सिर्फ वही कि चैनल घाटे में है। खर्चे बढ़ गये हैं। मुनाफा तेल हो चुका है। मालिक का डंडा इनके सिर की तरफ घूमा। सो अपना सिर बचाकर इन्होंने अपने नीचे वालों के सिर मालिक के डंडे के नीचे दे पटके। बिलकुल वैसे ही जैसे अचानक सामने आये सांप को इंसान मार डालने के लिए एकजुट होकर टूट पड़ते हैं।
परमप्रिय कथित रुप से मेरे आदरणीय इन दोनो ही मीडिया के कथित मठाधीशों ने यह तक विचार करना मुनासिब नहीं समझा, कि अपनी पगार पचाने-बचाने के लिए आज जिस तरह और जिनके सिर यह कलम कर रहे हैं, उन्हीं की दम पर सीएनएन में राजदीप सरदेसाई ‘राजदीप’ बन सके और आईबीएन-7 में परम आदरणीय आशुतोष गुप्ता आज ‘डंके की चोट पर खुद को आशुतोष’ कह पा रहे हैं। जिनके आज यह दोनो अपने पेट-परिवार की खातिर सिर कलम करके ‘बलि’ ले रहे हैं या ले चुके हैं, अगर दोनो चैनलों के शुरुआती दौर में, वे ही लोग इनके सिर कलम कर चुके होते, तो आज जो यह दोनो हैं, वह शायद कभी न होते।
चलिये छोड़िये। किसकी गुनहगारी, कौन कातिल कौन शिकार? मीडिया की मंडी में यह रोज होता है। फिर बिचारे और निरीह राजदीप और आशुतोष गुप्ता जी के ही सिर ठीकरा क्यों फोड़ा जाये। इनसे पहले भी बहुतों ने ऐसा किया था। संभव है कि इन दोनो ने भी यही दुख भोगा हो, जब किसी ने अपनी पगार बचाने के लिए इनकी पगार बंद कर दी हो। और इसीलिए भी ये दोनो अनुभवी हो चुके हैं। लिहाजा इनके साथ इनके उस्तादों ने जो सलूक किया होगा, वही सलूक अब ये भी अपने चेलो(वफादारों) के साथ कर रहे होंगे। चलता है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। मीडिया है…यहां सब एक से बढ़कर एक मिल जायेंगे…अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग भौंकते।