किसी के त्योहार के रोज़ ख़लल पैदा करने वाले सच्चे भारतीय नहीं हो सकते। ईद पर पशु-हिंसा का मुद्दा भाजपा नेता और कार्यकर्ता-भक्त उठा रहे हैं। उन्हें इस ओछे आचरण पर शर्म आनी चाहिए। घृणा और सांप्रदायिकता के पुजारी, मानव हिंसा (‘वध’!) के गुनहगार पशु-हिंसा की बात कर रहे हैं। उन समुदायों के लोग भी, जहाँ मौक़े-बेमौक़े बलि दी जाती है और जिनके समाज में मुसलमानों से कहीं ज़्यादा मांसाहारी मौजूद हैं।
दरअसल यह हिंसा या मांसाहार का नहीं, मुसलिम समुदाय के प्रति पाली और पनपाई जा रही हिक़ारत का इज़हार है। इसीलिए मैंने इसे शर्मनाक कहा।
कतिपय जैन समाजियों की आकस्मिक सक्रियता भी हैरान करती है। उनकी शाकाहारी जीवन-शैली का मैं मुरीद हूँ। मैं ख़ुद (प्याज़-लहसुन त्यागी होने के कारण) लगभग किसी जैन सरीखा ही शाकाहारी हूँ। पर उससे क्या। क्या हम अपनी विचार-पद्धति, जीवन-शैली, खान-पान, पहनावा दूसरे समाज पर ज़बरन थोपे सकते हैं? त्योहार के दिन किसी समाजी को ज़लील कर पर-पीड़ा का सुख लेना किस तरह सहनीय है? मेरे मित्र Deep Sankhla ने अच्छी मिसाल दी है: इसलाम में ब्याज हराम है। क्या कभी किसी मुसलमान ने ब्याज-बट्टे का रोज़गार करने वाले जैन या वणिक समुदाय के सदस्यों पर उँगली उठाई है?
धार्मिक आस्थाएँ तर्कों के पार होती हैं। हर धर्म में कुरीतियाँ मौजूद हैं। मगर दूसरों पर झाड़ू लहराने से बेहतर होता है अपने घर में झाड़ू बुहारना! अपनी हक़ीक़त से (जान-बूझकर) बेख़बर रह दूसरे के घरों की ओर ताकना और झाँकना शरीफ़ों का काम नहीं हो सकता।
ओम थानवी,वरिष्ठ पत्रकार @fb