प्रकाश के रे
हिंदी समाचार और विज्ञापन चैनल न्यूज़ 24 के प्रबन्ध संपादक अजीत अंजुम अपने फ़ेसबुक वाल पर तरह-तरह की अपनी तस्वीरें ही आमतौर पर लगाते हैं और बहुत कम ही ऐसा ही होता है जब वे समकालीन मुद्दों या मीडिया से जुड़े मामलों पर टिप्पणी करते हैं. इधर कई दिनों से वे अगर ऐसा कुछ कर या लिख रहे हों तो मुझे पता नहीं क्योंकि अभी मैं उनके मित्रों की सूची में नहीं हूँ और उनकी वाल नहीं देख सकता हूँ. पिछली बार जब उन्होंने कुछ दिनों के लिए अपना प्रोफाईल डिएक्टिवेट किया था तो मैंने अनजाने में सूची से उनका नाम हटा दिया था. मुझे तब लगा था कि उन्होंने फ़ेसबुक छोड़ दिया है. बहरहाल, मेरा यह आग्रह भी नहीं है कि किसी भी व्यक्ति को फ़ेसबुक पर अपने विचार या टिप्पणी सार्वजनिक करना ही चाहिए. यह नितांत उनका अपना निर्णय है और इसका सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन अंजुम जी के मामले में यह बात लागू नहीं होती. इसका पहला कारण यह है कि मौका मिलते ही अपने पसंद (टारगेट सही शब्द होगा) पर अपडेट/कमेंट-रूपी मिसाइल दागने लगते हैं. दूसरा यह कि वे दूसरों से उम्मीद करते हैं कि वह तुरंत स्टैण्ड ले.
इधर उन्होंने IIMC के अध्यापक और टिप्पणीकार आनंद प्रधान पर निशाना साधा है. जब मैंने पहली बार प्रधान जी के वाल पर उनका कमेंट देखा था तो मुझे लगा कि इसमें मेरा कुछ कहना ठीक नहीं है क्योंकि यह बात दो दोस्तों के बीच हो रही है और दोनों वरिष्ठ भी हैं. लेकिन जब यह बात उस वाल से उठकर मीडिया ख़बर के पन्ने पर आ गई तो मुझसे रहा नहीं गया.
आनंद प्रधान तहलका के हिन्दी संस्करण में नियमित लिखते हैं. इसी को आधार बना कर अजीत अंजुम ने उनके वाल पर लिखा कि वे ‘तहलका मामले’ पर चुप क्यों हैं और उनकी इस ‘चुप्पी से ‘सवाल’ उठना स्वाभाविक है. अंजुम जी ने आनंद प्रधान के जवाब का इंतज़ार किये बिना दस मिनट के भीतर दनादन तीन कमेंट ठोक दिया. अंजुम जी ने अपने इन कमेंट में टाइपो का ध्यान नहीं रखा और दो-चार शब्दों के बाद लगातार बिंदुओं का प्रयोग करते चले गए हैं. इससे एक बात तो यह लगती है कि वे बस प्रधान जी को जल्दी-जल्दी कटघरे में खड़ा कर फ़ैसला सुना देना चाहते हैं. उनमें या तो जवाब सुनने का धैर्य नहीं है या वे जवाब सुनना ही नहीं चाहते. फ़ैसला सुनाने की जल्दी और अतिउत्साह को उनके कमेंट में आसानी से पढ़ा जा सकता है. अगर उन्हें आनंद प्रधान का पक्ष, उनका उत्तर या उनकी ‘चुप्पी’ का कारण जानने का सब्र होता तो वे उनके जवाब के बाद कुछ प्रतिक्रिया देते लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं किया.
लेकिन अंजुम जी का यह अतिउत्साह ज़ी न्यूज़ के सम्पादक सुधीर चौधरी के जेल जाने के समय के उनकी उत्तेजना के सामने कुछ भी नहीं है. कई कई दिनों तक फ़ेसबुक पर कुछ भी नहीं लिखने वाले अंजुम जी ने तब दिनभर में दर्ज़नों स्टेटस अपडेट किये थे और उनमें न तो मुद्दे पर कोई बात थी और न ही पत्रकारिता के लिए उस घटना के मतलब का कोई आकलन था. उनसे यह स्पष्ट था कि अंजुम जी चौधरी जी के जेल जाने से अत्यंत और अत्यधिक प्रसन्नचित्त हैं जैसे कोई पुराना हिसाब सध रहा हो. तब मैंने उनके एक स्टेटस पर टिप्पणी देते कहा था कि ताली पीटने और छाती पीटने से आगे जाकर सोचने, कहने और करने की ज़रुरत है.
अंजुम जी इतने वरिष्ठ पत्रकार हैं लेकिन प्रधान जी के वाल पर कमेंट करते हुए यह भूल गए कि तेजपाल का यह मामला ‘तहलका मामला’ नहीं है. यह ज़रूर है कि इस मामले के सामने आने के बाद से तहलका की पत्रकारिता, प्रबंधन और आर्थिकी से जुड़ी कई परतों को भी खुरचा जा रहा है और यह सही भी है. इसके बावज़ूद उस पत्रकार के साथ तरुण तेजपाल का कथित अपराध ‘तहलका मामला’ नहीं है. अंजुम जी और हम सभी को मुद्दे की गम्भीरता और उससे जुड़े सवालों पर बात करनी चाहिए. अपने-अपने स्तर पर सक्रिय होने की ज़रुरत है. अंजुम जी, अपने चैनल और चैनल के स्कूल में सर्वोच्च न्यायालय के विशाखा निर्णय के तहत यौन-शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक कमिटी बनवाईये. और अगर यह कमिटी बनी हुई है तो उसे अधिक सक्रिय और बेहतर बनाईये.
(प्रकाश के रे bargad.org के सम्पादक हैं )