सुयश सुप्रभ
क्या हिंदी में दस-पंद्रह हज़ार रुपये के लिए अपनी आज़ादी बेचने वाले मीडियाकर्मियों के लिए कोई विकल्प खड़ा नहीं किया जा सकता है? क्या मीडिया की नैतिकता का नारा लगाने वाले प्रोफ़ेसरों, लेखकों आदि की इस मामले में कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है?
समयांतर, फ़िलहाल, समकालीन तीसरी दुनिया जैसी पत्रिकाएँ बुद्धि की खुराक तो देती हैं लेकिन इनसे पेट की आग शांत नहीं हो पाती है। हिंदी में ऐसी पत्रिकाओं का छपना बहुत ज़रूरी है जहाँ मीडियाकर्मी आत्मसम्मान के साथ काम करते हुए बुद्धि और पेट दोनों की ज़रूरतें पूरी कर सकें।
हिंदी में विचार से पूरी तरह रिश्ता नहीं तोड़ने वाले लोगों को एक ऐसा मॉडल विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए जिसमें विज्ञापन पर निर्भर हुए बिना सही अर्थ में जनता के हितों को ध्यान में रखने वाली पत्रकारिता की जा सके।
(स्रोत-एफबी)