इस दिलकश लेखक के लिए एक श्रद्धांजलि तो बनती है

अभिषेक श्रीवास्तव

खुशवंत सिंह नहीं रहे
खुशवंत सिंह नहीं रहे

बचपन में सरदारों पर लिखे उनके चुटकुलों से लेकर जवानी में उनके अखबारी कॉलमों को पढ़ने तक हमारे जैसों की तो खुशवंत सिंह से एक आकाशवाणी टाइप की ही दूरी बनी रही।

दैनिक भास्‍कर के संपादकीय पन्‍ने के लिए उनके दुहराव और विस्‍मृति भरे संस्‍मरणों का अनुवाद कर-कर के मैं इतना चट गया था कि एक लेखक-पत्रकार के बतौर उनकी प्रासंगिकता अब समझ में नहीं आती थी। दूजे, एक रश्‍क़ भी लगातार बना रहा है कि काश हमारे पिता भी सर सोभा सिंह जैसे कोई होते, या कि हम भी टैगोर के खानदान में जन्‍मे होते, तो चैन से लिखते-लिखते महान बन जाते।

बहरहाल, अच्‍छा हुआ कि निन्‍यानबे के फेर में पहले ही चले गए वरना 19 मई के बाद इसका भी दोष नरेंद्रभाई के ही सिर शायद आ जाता। इस दिलक़श बूढ़े के लिए एक श्रद्धांजलि तो बनती ही है।

(स्रोत-एफबी)

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