अजीब बात है. सम्पादक लोग भी फेसबुक पर निष्पक्ष होकर नहीं लिख पाते. सीधे-सीधे दिल्ली में शीला दीक्षित की वापसी की बात कह रहे हैं. बोलते हैं कि बहुमत मिल जाएगा.
समझ नहीं पा रहा हूं कि ये सेटिंग-गेटिंग वाली पोस्ट है या उनकी ईमानदार भविष्यवाणी. कहते हैं कि अनुभव बोलता है लेकिन यहां मुझ जैसे नौसिखिए का अनुभव ज्यादा सटीक लग रहा है. जमीन पर एक लहर है जो शायद लोगों को नजर नहीं आ रही. मैं अरविंद केजरीवाल की पार्टी -आप- के बहुमत में आने का दावा नहीं करता लेकिन इतना लगता है कि ये पार्टी कोई कमाल जरूर कर सकती है. फिर भी जनता का मूड भांपना बेहद मुश्किल है, खासकर मूड के वोट में तब्दील होने की गारंटी कोई नहीं दे सकता.
लेकिन शीला दीक्षित का बयान आस जगाता है. अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के आंदोलन को चुटकी में रफा-दफा करने वाली शीला कल कह रही थीं कि वह चुनाव बाद अरविंद की पार्टी से गठबंधन करने में संकोच नहीं करेंगी. मतलब साफ है. कांग्रेस को भी अंदरूनी फीडबैक है कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी कोई नया गुल खिला सकती है. लेकिन सम्पादक जी का आंकलन अलग है. उन्हें ये सब नहीं दिख रहा.
बस, एक ही बात कहना चाहूंगा कि सम्पादक जी, वो दिन गए जब आप अखबार में जो चाहे, छाप देते थे. जो चाहे, सम्पादकीय लिखवा दिया करते थे. अब तो सोशल मीडिया का जमाना है. फेसबकु और टि्वटर पर पोल खुल जाती है. मिनटों में. देर नहीं लगती. सिर्फ पोस्ट पर बड़ी-बड़ी बात लिखने से कुछ नहीं हो जाता. असली बात बीच-बीच में कभी-कभार दिल से निकलकर कीबोर्ड के मार्फत फेसबुक पर आ ही जाती है. आपका आंकलन आपको मुबारक. कांग्रेस की पैरवी आपको मुबारक. लेकिन जनता की नब्ज तो कुछ और ही कह रही है. और यकीन मानिए, अगर इस बार चुनाव में दिल्ली ने इतिहास बदला, तो देश में राजनीति की दिशा बदलेगी. (इस उम्मीद के साथ कि केजरीवाल एंड पार्टी का वही हश्र नहीं होगा जो जेपी आंदोलन से निकले लालू-नीतीश-शरद यादव और बाकियों का हुआ)
(स्रोत-एफबी)