दिलीप मंडल, प्रबंध संपादक, इंडिया टुडे
विचारार्थ: यह पत्रकारिता का संकटकाल नहीं है. यह संपादकों और पत्रकारों का संकटकाल है. उन महान संपादकों का दौर गया जो गलत खबर दिखाकर दंगा करा पाते थे, छात्रों को आत्मदाह के लिए उकसा पाते थे, जो यह दंभ पाला करते थे कि वे सरकारें बना और बिगाड़ सकते हैं.
प्रिंट और टीवी मीडिया में आई बहुलता तथा सोशल मीडिया और इंटरनेट के विस्फोट ने पत्रकारिता को सूचनाओं और समाचारों के लाखों स्रोतों के दौर में पहुंचा दिया है. अब प्रश्न यह नहीं है कि पत्रकार कौन है, बल्कि सवाल यह है कि पत्रकारिता कौन कर रहा है. अगर आप सूचनाएं और समाचार लोगों तक पहुंचा रहे हैं, तो आप पत्रकारिता की नौकरी न करते हुए भी पत्रकार हैं.
अब लोगों के पास सच जानने के सैकड़ों-हजारों तरीके हैं. पाठक और दर्शक लगातार सीख रहा है और मैच्योर हो रहा है कि विश्वसनीय समाचार कहां से ले. पत्रकारों के लिए विश्वसनीय बने रहने और विश्वसनीय दिखने की गंभीर चुनौती है.
खासकर इसलिए भी कि मीडिया की आंतरिक संरचनाएं और इसके अपने खेल-तमाशे अब लोक-विमर्श के दायरे में हैं. लोग यह मीमांसा करने लगे हैं कि ऐसी खबर क्यों दिखाई जा रही है और कोई खबर क्यो नहीं दिखाई जा रही है.
मीडिया निरक्षरों के युग के अंत का अर्थ, तथाकथिक महान संपादकों के युग का अंत भी है.
(स्रोत-एफबी)