रोहित सरदाना,प्रख्यात एंकर –
उत्तर प्रदेश में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत ने कई राजनीतिक पंडितों की सोशल इंजीनियरिंग को ध्वस्त कर दिया है. नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़े गए चुनाव में 300 से ज़्यादा सीटें जीतने के बाद टीवी स्टूडियोज़ में दिन भर इस बात पर ताली पीटी गई कि आखिरकार मुसलमान वोटर ने बीजेपी और मोदी को अपना लिया. पर क्या वाकई ऐसा है ?
चुनाव नतीजे पूरे आने के पहले सोशल मीडिया पर ये चर्चा शुरू हो गई कि 80 फीसदी मुस्लिम वोट वाले इलाके देवबंद में ही अगर बीजेपी जीत रही है, तो साफ़ है कि मुसलमान वोटरों ने दिल खोल कर बीजेपी को वोट दिया है.लेकिन हकीकत ये है कि देवबंद में कुल मिला कर 34% के आस पास मुसलमान वोटर है. ऐसे में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों ने बीजेपी के उम्मीदवार के सामने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे.नतीजा ये हुआ कि मुस्लिम वोट का बंटवारा हुआ. तीनों को मिले वोटों की संख्या बताती है, दोनों मुस्लिम उम्मीदवारों को जोड़ दें तो उन्हें बीजेपी के उम्मीदवार से ज़्यादा ही वोट मिले.
वैसे देवबंद की सीट को ले कर ये जान लेना भी ज़रूरी है कि वहां के मतदाता को मुस्लिम उम्मीदवार से बहुत ज़्यादा प्यार कभी नहीं रहा. कम से कम पिछले चार पांच विधानसभा चुनाव में तो यहीं से हिंदू वोटर ही जीत कर आता रहा है.
कमोबेश ऐसी ही स्थिति है कांठ की सीट पर. जहां जीतने वाले बीजेपी के राजेश कुमार को 76000 से कुछ ज़्यादा वोट मिले, जबकि समाजवादी पार्टी के अनीस उर रहमान को 73959 और बीएसपी के मोहम्मद नासिर को 43820 वोट मिले हैं. यानि दो की जगह कोई एक ही मुस्लिम कैंडीडेट होता तो शायद स्थिति कुछ और होती.
मेरठ साउथ सीट से बीजेपी के उम्मीदवार डॉ सोमेंद्र तोमर को 1,13,225 वोट पड़े. बीएसपी के हाजी मोहम्मद याकूब को 77830 और कांग्रेस के मोहम्मद आज़ाद सैफ़ी को 69,113. यानि एक बार फिर एक हिंदू उम्मीदवार के सामने दो मुस्लिम उम्मीदवार होने का फायदा बीजेपी को मिला.
बरेली कैंट की सीट का गणित भी ऐसे ही बिगड़ा. फूलपुर का भी. लखनऊ वेस्ट का भी. फिरोज़ाबाद का भी.
अलीगढ़ की सीट पर बीजेपी के संजीव राजा को 1,13, 752 वोट मिले. समाजवादी पार्टी के ज़फ़र इस्लाम को 98,312 और बीएसपी के मोहम्मद आरिफ़ को 25,704 वोट पड़े.
बुलंदशहर में बीजेपी के वीरेंद्र सिंह सिरोही को 1,11,538 वोट पड़े, बीएसपी के मोहम्मद अलीम खान 88,454 वोट के साथ दूसरे स्थान पर रहे और एसपी के शुजात आलम 24,119 वोट ले कर तीसरे नंबर पर.
मीरापुर, नूरपुर, तुलसीपुर, मुरादाबाद नगर, थाना भवन, शाहादाबद, नानपारा, चांदपुर, बहुत सी ऐसी सीटें हैं जहां गणित बीजेपी के पक्ष में इसलिए भी रहा कि सामने दो मुस्लिम उम्मीदवार थे अलग अलग पार्टी से.
इन आंकड़ों को देखने के बाद, अगर ये मान लिया जाए कि मुस्लिम मतदाता ने मुस्लिम उम्मीदवार को ही वोट दिया होगा, तो –
1. बीजेपी के लिए मुसलमान वोट अभी दूर की कौड़ी है.
2. बीजेपी के रणनीतिकारों ने इस सत्य को स्वीकार करते हुए बिना किसी मुस्लिम उम्मीदवार के चुनाव मैदान में जाने का जो फैसला किया, वो सही साबित हुआ.
3. बीजेपी को मुसलमान मतदाता ने भले वोट न दिया हो, हिंदू मतदाता ने इस बार जाति की सोच से ऊपर उठ कर वोट दिया, ऐसा लगता है. लिहाज़ा राजनीतिक विश्लेषकों को बीजेपी की जीत का श्रेय हिंदू वोटर को देना चाहिए न कि मुसलमान वोटर को.
4. मुस्लिम वोट बैंक के सहारे अगर बीजेपी के अलावा हर पार्टी अपनी जीत सुनिश्चित समझेगी तो वोट बंटने से ऐसा होना तय है.
5. अगर ध्रुवीकरण ही जीत की चाभी है तो अल्पसंख्यक ध्रुवीकरण की काट के तौर पर बीजेपी ने बहुसंख्यक ध्रुवीकरण करने में कामयाबी पाई है.
6. दलित-मुस्लिम गठजोड़ सोशल मीडिया पर जितना लुभावना लगता है, उतना कारगर ज़मीन पर नहीं है, लिहाज़ा मायावती को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार कर के, अपने असल वोटर के पास लौटना फायदे का सौदा हो सकता है.
लालू प्रसाद यादव का MY समीकरण बिहार में भले चल गया हो, लेकिन उत्तर प्रदेश में इस मुस्लिम-यादव गठबंधन को पंक्चर करने में मायावती ने अहम भूमिका निभाई है.
यूपी चुनाव के नतीजे से बीजेपी के हौसले बुलंद हैं। लेकिन पार्टी को ये सोचना पड़ेगा कि बहुसंख्यक ध्रुवीकरण और जातीय ध्रुवीकरण में अंतर है.
जिस तरह हरियाणा में जाटों के खिलाफ़, महाराष्ट्र् में मराठों के खिलाफ़, गुजरात में पटेलों के खिलाफ़ – यानि ताकतवर समझी जाने वाली जातियों के खिलाफ़ कमज़ोर वर्गो के ध्रुवीकरण का खेल खेला जा रहा है – वो राज्यों में भले फायदे का सौदा दिखता हो, एक ‘राष्ट्र’ की उसकी परिकल्पना में पैबंद की तरह लग सकता है. जहां सरकार तो मजबूत दिख सकती है, लेकिन समाज अंदर से छिन्न-भिन्न ही होगा.
(लेखक के सोशल मीडिया प्रोफाइल से साभार)