जी एन्टरटेन्मेंट के नए चैनल & टीवी देखने पर पहली बात जो आपके दिमाग में आएगी कि वो ये कि कलर टोन गुलाबी-सफेद के अलावा इस चैनल को अपने सिस्टर चैनल जी जिंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसे कि कॉपी कर सके. पूरा चैनल ही भीड़ में फंसे बाकी चैनलों की कॉपी-पेस्ट है लेकिन मनोरंजन चैनल की दुनिया में जिंदगी ने जो गहरी छाप दर्शकों पर छोड़ा है, कंटेंट के स्तर पर उसका पासंग भी नहीं.
& टीवी पर सीरियलों और कार्यक्रमों की जो लॉट है, उनसे से अधिकांश कलर्स और लाइफ ओके की कतरनें जोड़ने की कोशिश है. शीर्षक से ये भले ही चौंकाते हों लेकिन कटेंट के स्तर पर फ्रेशनेश बिल्कुल भी नहीं. जमाना पूछेगा सबसे साना कौन में घूम-फिरकर शाहरुख, केबीसी के अमिताभ बनकर रह जाते हैं. इसी कड़ी में सीरियल बेगूसराय कलर्स का उतरन होकर रह जाता है.
प्रोमो में बेगूसराय और वहां के फूलन ठाकुर को जिस अंदाज में पोट्रे किया गया, उसमे सबसे बड़ा झोल है कि क्या देशभर के ठाकुर हिन्दी सिनेमा से ही निकलकर आते हैं और क्या पूरे बिहार की हिन्दी एक ही है ? बेगूसराय की हिन्दी ठेठी है, अंगिका और मैथिली का घालमेल. बोले जाने का वो खास अंदाज जहां बोली खुद एक चरित्र बनकर सामने आती है. लेकिन प्रोमो में जिस हत्या-लूटपाट को बिकाउ माल की तरह पेश किया जाता है, पहले-दूसरे फ्रेम से ही, इंसान से पहले इस बोली की हत्या शुरु हो जाती है. बोली की हत्या किए जाने से बेगूसराय की स्वाभाविकता अपने आप खत्म हो जाती है.
इन दिनों मनोरंजन चैनलों पर आंचलिकता का जोर है और ये क्षेत्रीय चैनलों के हाथों राष्ट्रीय चैनलों के लगातार पिटते जाने के कारण है. लेकिन आंचलिकता को सहेजने की जो सबसे बड़ी शर्त उसे ही नायक के तौर पर पेश करने की होती है, सीरियलों में सबसे बडी गलती उसे मारकर हो रही है. ये किसी भी हाल में संभव नहीं है कि अकेले फूलन या लाखन ठाकुर बेगूसराय के चरित्र का स्थापित करे. जो ठेठी और ठसक बेगुसराय की आवोहवा में है, वो सिर्फ इन ठाकुर चरित्रों में जाकर कैद नहीं हो सकती.
बाकी बिंदिया, पूनम, पूनम की मां, प्रीतम, दादी,माया जैसे चरित्रों की जो पूरी श्रृंखला है, वो बेगूसराय को बिहार से निकालकर कभी उत्तर प्रदेश तो कभी गुजरात की तरफ खींचते हैं. ये बेगूसराय की विविधता को विस्तार देने के काम में नहीं लाए जाते. अकेली पूनम की मां अपनी कोशिश से पटना के आसपास ले जाने की जद्दोजहद करती नजर आतीं हैं.
नतीजा,सीरियल के बहाने हम जिस बेगूसराय से गुजरते हैं उसमे इसकी एक ऐसी स्टीरियोटाइप इमेज बनती है जो अपनी भाषा और अंदाज को खत्म करके कॉकटेल कस्बे में तब्दील हो गया हो. ये दिल्ली-मुंबई में बैठे बेगुसराय के लोगों की “एल्युमिनी” बनकर रह जाता है, जो नास्टैल्जिया में आकर दो-चार शब्द अंगिका और ठेठी की बोल लेने के बाद खड़ी बोली या मुंबईयां हिन्दी पर उतर आते हों.
इन सबके बीच सबसे कन्फ्यूजिंग वो सारे पुरुष चरित्र हैं जिन्हें सीरियल में बेगुसराय की पृष्ठभूमि के हिसाब से कहानी बढ़ाने के बजाय स्टूडेंट ऑफ द इयर जैसी फिल्मी एफेक्ट पैदा करने के काम में लगाया गया है..वो सीरियल में नहीं, भोजपुरी सिनेमा में जीना चाहते हैं और ऐसा करते हुए ये चरित्र पूनम के बहाने कभी हिटलर दीदी( जीटीवी) में जाकर फंसते हैं तो कभी छज्जे-छज्जे का प्यार( सोनी टीवी) में आकर अटकते हैं. इसमे एक फायदा ये जरूर होता है कि अधिकांश टीवी सीरियल में जहां छत टेरिस में तब्दील हो गए हैं, आपको फिर से छत मुहैया कराई जाती है. अगर आप लाइफ ओके के वाबरे और भूतपूर्व चैनल इमैजिन टीवी के जमना पार की छत की गतिविधियों से बोर न हुए हों या स्मृति में नहीं है तो ये छोटे-छोटे आपको सीरियल की आढ़ी-तिरछी कहानी से कहीं अधिक बेहतर दुनिया की तरफ ले जाते हैं.
सीरियल में भाषा से लेकर गेटअप और संवाद में जो बिखराव है, कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा है वो शायद इसलिए कि सीरियल के निर्देशक से लेकर पटकथा लेखक उस अतिमहत्वकांक्षा के शिकार हो गए कि दादी सा,बिंदडी जैसे राजस्थान के बेहद कॉमन शब्दों के प्रयोग से कलर्स टीवी ने दर्शकों पर राज करना शुरु किया, हम भी करने लगेंगे..लेकिन इसका शिकार होते वक्त इस बात का ध्यान रखना भूल गए कि बालिका वधू देखते हुए दर्शक राजस्थान के गांव में ही रहते थे, दिल्ली-मुंबई-हरियाणा में डोलने नहीं लग जाते थे. हम बेगूसराय से टीवी सीरियल के बेगूसराय की फोटकॉपी की उम्मीद न भी रखें तो कम से कम ये भरोसा तो पैदा बनाए रखे कि ये शहर बिहार के नक्शे में ही है, इसे उठाकर दिल्ली-हरियाणा में शिफ्ट नहीं कर दिया गया है. कुल मिलाकर, तिगमांशु धुलिया की फर्स्ट कट का ये सीरियल बिना गंभीर एप्रोच और रिसर्च के हमें बुरी तरह निराश करता है. (मूलतः तहलका में प्रकाशित)