हिन्दुस्तान की वो राजनीतिक,सांस्कृतिक आवाजें जिन पर कि इतिहास के सैकड़ों पन्ने भरे गए हैं, शास्त्रीय संगीत के छात्रों का ककहरा जिन पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर,उस्ताद अला दिया खां और बाल गंधर्व जैसे संगीतज्ञों के नाम से शुरु होता है वो आवाजें किसी मीडिया संस्थान या संगीत महाविद्यालय में न होकर फुटपाथों पर बिखरे पड़े हैं, कबाड़ियों के हाथों इधर-उधर भटकते रहे हैं. वन्दे मातरम् की पहली रिकार्डिंग, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का इसके साथ के राजनीतिक भाषण, रवीन्द्र संगीत आपको देश की किसी लाइब्रेरी में नहीं, कलकत्ता की सड़क से निजी प्रयास से उठाकर संभाले गए किसी शख्स के पास मिलेगी.
एक तरफ लिखित इतिहास की समृद्धशाली परंपरा और दूसरी तरफ आवाज और रिकार्डिंग को बरतने में उतनी ही लापरवाही. ये एक ऐसा तथ्य है जिससे गुजरने के बाद इतिहास के दो संस्करण बनते जान पड़ते हैं. ए.एन.शर्मा जिन्होंने इन आवाजों को जुटाने में देशभर के फुटपाथों, कबाड़ियों, चोर बाजार और स्क्रैप मार्केट के पिछले पच्चीस साल से चक्कर लगाने के बाद आवाज और उनकी रिकार्डिंग के जरिए जिस इतिहास को हमारे सामने रखा है, उनमे ऐतिहासिक घटना की चर्चा के साथ-साथ वो बारीकियां भी शामिल है जो लिखित इतिहास के बरक्स जाहिर है जो “साउंडलेस हिस्ट्री” रही है, इतिहास का एक दूसरा संस्करण पेश करती है जिसके जरिए माध्यम के इर्द-गिर्द विज्ञापन, बाजार के बीच की पत्रकारिता और इन सबके बीच पाठक-श्रोता के बनने-बनाने की प्रक्रिया के प्रति समझ बनती है.
“दि बंडर दैट वॉज द सिलिंडरः अर्ली एंड रेयर इंडियन सिलिंड्रिकल रिकॉर्ड्स” पुस्तक में ए.एन.शर्मा और अनुकृति ए.शर्मा ने 1877 से ( थॉमस एल्वा इडिशन की रिकॉर्डिंग पद्धति) से लेकर रेडियो का दौर शुरु होने यानी 1924 तक रिकॉर्डिंग को लेकर जो ब्योरे दिए हैं, वो मीडिया के इतिहास में या तो सिरे से गायब हैं या फिर चलताउ ढंग की चर्चा में वो महीन आब्जर्वेशन शामिल नहीं है जिससे कि ये समझा जा सके कि भारतीय समाचारपत्र और पत्रिकाएं रिकॉर्डिंग की इस बनती दुनिया को कैसे पेश कर रही थी और इससे जो बाजार निर्मित हो रहे थे, उसके विज्ञापन किस तरह से आने शुरु हुए ? मसलन एडिशन के फोनोग्राफ के जरिए आवाज की रिकार्डिंग की जो कहानी पूरी दुनिया में सिलिंडर के साथ शुरु होती है, बंगाल का समाचारपत्र समाचारचंद्रिका अपने 9 जनवरी 1878 के अंक में इस तरह प्रकाशित करता है- इस मशीन के जरिए शब्दों को बोतल में कैद कर लिया जा सकता है और जिसे कि सौ और यहां तक कि हजारों साल बाद भी सुना जा सकता है. आप बोतल की ढक्कन जैसे ही खोलेंगे,आपको वो आवाज सुनाई देने लगेगी. सिलिंड्रकल रिकॉर्डिंग को केन म्यूजिक के नाम से जाना जाता है जो कि इस संवाददाता के यहां आकर बोतल म्यूजिक हो जाती है. इसी तरह 1917 के सरस्वती अंक में जगरनाथ खन्ना की राइटअप प्रकाशित की जिसमे ग्रामोफोन से आती आवाज पर श्रोता की प्रतिक्रिया का जिक्र कुछ इस तरह से था- हे भगवान ! ये क्या बात हुई, बक्से के भीतर बैठकर तो बायजी गा रही है लेकिन अपनी चेहरा नहीं दिखा रही. माध्यम को लेकर श्रोताओं की ये किंवदति रेडियो के आने तक बनी रहती है जब 1956 में मैला आंचल( रेणु) का चरित्र बड़े उत्साह से इसकी व्याख्या करते है- रेडी है या रेडा. अब सुनिएगा रोज बंबै-कलकत्ता का गाना. महात्मा जी का खबर, पटुआ का भाव सब आएगा इसमें. तार में ठेस लगते ही गुस्साकर बोलेगा- बेकूफ ! बिना मुंह धोए पास बैठते ही तुरंत कहेगा- क्या आज आपने मुंह नहीं धोया है ? बाकी रामायण देखने से पहले टीवी के आगे अगरबत्ती जलाने-पूजा करने की रोचक कथा से हम भास्कर घोष के हवाले से हम परिचित हैं हीं.
दूसरी तरफ सिलिंड्रिकल रिकॉर्डिंग और ग्रामोफोन के जरिए दरबारी काल से खिसककर सिटी स्पेस और बाजार की शक्लों में कैसे बदल रही थी, इसे हम 1895 में दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में महाराजा लाल एंड संस के “ब्लू रूम” फाउनटेन जैसी दूकान खुलने और आगे चलकर कनॉट प्लेस में विस्तार करने जैसी घटना से समझ सकते हैं. ये वो दौर है जहां हिन्दुस्तान का राजनीतिक और प्राकृतिक के साथ-साथ तेजी से एक और ग्रामोफोन नक्शा बन रहा था जिसमे शामिल इलाके एक अलग हैसियत रखते थे.
सिलिंडर के जरिए रिकॉर्डिंग की इस आदिम दुनिया में एक ही साथ माध्यमों के वो गुत्थियां शामिल है जिसे हम पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग और राजस्व, श्रोता-दर्शक की अभिरुचि और बाजार का दवाब, पॉपुलर कल्चर और अभिजात्य संस्कृति को समझने-सुलझाने के दौरान गुजरते हैं. ऐसे में इस दौर से गुजरना इसलिए भी दिलचस्प हो जाता है कि तब हम इस बहस को बेहद नजदीक और तथ्यात्मक रूप से समझ पाते हैं कि अपने शुरुआती दौर में कोई भी माध्यम और उसकी सामग्री अभिजात्य होती है लेकिन उसकी बढ़ती उपलब्धता उसे पॉपुलर संस्कृति का हिस्सा बना देती है. सिलिंडर रिकार्डिंग से लेकर एमबी जीबी में रिकॉर्डिंग और डाउनलोड की कहानी लगभग यही है.
(मूलतः तहलका में प्रकाशित)