अमिताभ श्रीवास्तव
संजय लीला भंसाली मध्यमार्गी फिल्मकार नहीं हैं. या तो वो ख़ामोशी, ब्लैक और गुज़ारिश बनाते हैं या फिर हम दिल दे चुके सनम, देवदास, सांवरिया जहाँ भावनाओं की बेहद भव्य पैकेजिंग आम दर्शक को बहा ले जाती है गोलियों की रास लीला राम-लीला दूसरी श्रेणी की फ़िल्म है.
सम्मोहक छायांकन, चटख रंग संयोजन, दीपिका पादुकोण की मांसलता, ढोल नगाड़े, धूम धड़ाके और सारे मसालों के बावजूद फ़िल्म कुल मिलकर बेहद औसत लगी. हाँ पहली बार संजय लीला भंसाली ने हिंसा की पृष्ठभूमि में प्रेम कहानी रची है जो उनके अपने अब तक गढ़े मुहावरों से बिलकुल अलग है.
प्रेम कहानियों का जो स्वरुप भंसाली ने ख़ामोशी और गुज़ारिश में पेश किया था, वैसी गहराई यहाँ नदारद है. सांवरिया जैसी मासूमियत भी नहीं है. भंसाली का रोमियो सड़क छाप है और जूलिएट बेहद बिंदास, ज़माने के हिसाब से सेंसुअलिटी को बेझिझक उभारती हुई, अपने पार्टनर को उकसाती हुई और पहल करती हुई .
दीपिका पादुकोण ने अच्छा काम किया है और हर फ्रेम में रणवीर सिंह पर भारी पड़ी हैं . कहना पड़ेगा कि दीपिका ने अपने करियर के शायद सबसे सफल साल का बेहद धमाकेदार ढंग से समापन किया है. देखना है कि धूम 3 में कटरीना उनको टक्कर दे पाती हैं या नहीं.
प्रियंका चोपड़ा का आइटम नंबर ठूंसा हुआ लगता है. दीपिका के ढोल डांस में हम दिल दे चुके सनम की ऐश्वर्या से तुलना स्वाभाविक है हालांकि वैसी कमनीयता नहीं दिखी. संजय लीला भंसाली इससे पहले बेवजह देवदास को भी अपनी चमक दमक वाली सनक के चक्कर में चौपट कर चुके हैं हालांकि फ़िल्म कमाई के लिहाज से बेहद सफल रही थी. कमाई तो राम लीला भी अच्छी ही कर लेगी और चूँकि सफलता ही उत्कृष्टता का पैमाना बन चुकी है इसलिए फ़िल्म की तारीफ भी होगी मगर मुझे निजी तौर पर भंसाली जैसे निर्देशक से बेहतर फ़िल्म की उम्मीद थी.
(स्रोत – एफबी)







