दो दिन की हड़ताल, चैनलों का चमत्कार, हड़ताल से हुड़दंग तक
एनडीटीवी पर ‘रवीश की रिपोर्ट’ नाम से एक कार्यक्रम आया करता था. इसमें रवीश बहुत ऑफबीट मसले उठाते थे. ऐसे मसले जिसे कॉरपोरेट मीडिया अछूत की तरह ट्रीट करता है. ऐसे ही एक शो में रवीश एक मजदूर के घर पर जाते हैं और उनके साथ खाना खाते हैं. यह दृश्य बहुत चर्चित हुआ और अचानक से मजदूरों के बीच रवीश काफी लोकप्रिय हो गए. आज भी दिल्ली के कापसहेड़ा गांव इलाके में आप रवीश कुमार के बारे में पूछेगे तो आपको उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा मिल जाएगा. उन्होंने अपनी रिपोर्ट के जरिए इनके दुःख – दर्द को उठाकर उनके दिल को छू लिया.
लेकिन ऐसी कितनी रिपोर्ट आती है. साल भर की ख़बरों पर नज़र डालेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी. वैसे भी खेती – बारी, मजदूर और गाँव – देहात चैनलों के स्क्रीन में कहीं फिट बैठते ही नहीं. कॉरपोरेट मीडिया को सूट नहीं करता. विज्ञापनदाताओं और उनकी कंपनियों के खिलाफ है. इसलिए स्क्रीन पर ऐसी ख़बरों को तवज्जो नहीं दी जाती और जब कभी आंदोलन या हड़ताल होते हैं तो उसकी नकरात्मक और एकपक्षीय रिपोर्टिंग शुरू हो जाती है और चंद हादसों की वजह से पूरे आंदोलन या हड़ताल को ही हुड़दंग करार दिया जाता है.
कल ऐसा ही हुआ. ट्रेड युनियन की दो दिनों की हड़ताल के पहले दिन चैनलों ने व्यापक पैमाने पर कवरेज तो जरूर की, लेकिन कुछ ही देर की कवरेज में साफ़ पता चल गया कि उनका इरादा क्या है. इसी दौरान नोयडा के फेज-2 में गाड़ियों के जलाये जाने और दफ्तरों पर पत्थर फेंके जाने का मामला सामने आया और फोकस में बस वही जगह आ गयी. फिर हड़ताल को हुड़दंग करार देने में चैनलों ने ज्यादा देर नहीं की. नोयडा में हुई तोड़फोड़ के कारण चैनलों ने पूरे हड़ताल को ही ख़ारिज कर दिया और इसे हुड़दंग और गुंडागर्दी तक करार दिया.
आईबीएन7 ने सवालिया लहजे में पूछा कि ये हड़ताल है या गुंडागर्दी? तो न्यूज़24 ने सीधे कह दिया कि ये हड़ताल नहीं हुड़दंग है. इंडिया टीवी ने एक कदम आगे बढ़कर हेडलाइन बनायी कि भारत बंद है या गुंडागर्दी चालू है, बंद करो ये भारत बंद. वहीं आजतक ने नोयडा में बंद की आग, एनडीटीवी ने हड़ताल के दौरान हिंसा, न्यूज़ एक्सप्रेस ने हड़ताल में हिंसा क्यों, समय ने हिंसा से मिलेगा हक और ज़ी न्यूज़ ने बंद आपका, मुसीबत आमलोगों की… हेडिंग बनाकर हड़ताल की हवा निकालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.
लेकिन सवाल उठता है कि हड़ताल की हवा निकालने में चैनल जिस शिद्दत के साथ लगे हैं क्या उसी शिद्दत से वे मजदूरों के हक और उनकी तकलीफों के बारे में कभी ख़बरें दिखाते हैं. ये मानने में किसी को कोई गुरेज नहीं कि हड़ताल में हिंसा जायज नहीं है. लेकिन एक जगह हुई हिंसा के कारण पूरे हड़ताल को हुड़दंगी और सारे हड़तालियों को गुंडा करार देना भी तो न्यायोचित नहीं. यह एक तरह से एकपक्षीय रिपोर्टिंग हो गयी.
आखिर हिंसा क्यों हुई? पुलिस ने कोई ज्यादती तो नहीं की? यदि हिंसा हुई तो पुलिस और प्रशासन उसे रोकने में क्यों नाकाम रहा? हुड़दंगी हड़ताल में शामिल लोग ही थे या फिर कोई और? ऐसे सवालों का जवाब ढूँढने से पहले ही चैनलों और उनके रिपोर्टरों ने हड़ताल की नेगेटिव ब्रांडिंग करने में कोई कोर – कसर नहीं छोड़ी. हाँ अपवाद के रूप में पुण्य प्रसून बाजपेयी जरूर रहे और इसलिए उनके लिए वहां तालियाँ भी बजी. उन्होंने हड़ताल, हुड़दंगी और हिंसा के बीच मजदूरों के दर्द के दर्द को भी समझा. महसूस किया और उसे शब्दों में पिरोकर आजतक के स्क्रीन पर पेश भी किया. सीधे घटनास्थल से लाइव बुलेटिन करते हुए उन्होंने इस बात पर भी चर्चा की कि मजदूर हिंसा पर उतारू हुए तो क्यों हुए? काश यही दर्द चैनल और बाकी मीडिया मजदूर भी महसूस कर पाते तो हड़ताल को लेकर ऐसी नकारात्मक और एकपक्षीय रिपोर्टिंग नहीं होती और न ये लोगों को महसूस होता कि हड़ताल की कवरेज भी जे के वॉल पुट्टी या ऐसे विज्ञापनदाताओं और कॉरपोरेट के द्वारा प्रायोजित है.