सुजीत ठमके
वर्ष १९९० के बाद भारत वर्ष में टीवी पत्रकारिता की शुरुआत हुई। इसी दौर में वैश्विक अर्थनीति फल फूल गई। स्वर्गीय प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह का एलपीजी मॉडल ने एक तरफ विकास के नए रास्ते खोले तो दूसरी तरफ कई रास्ते बंद भी हुए। विदेश पूंजी ने देश के कई क्षेत्रो में दबदबा बनाया। रोजगार, विकास की नई परिभाषा स्थापिक हुई। देश के विकास की रफ़्तार भी मुंबई की लोकल ट्रेन तरह तेज भागने लगी। इसी दौर में टीवी का चेहरा भी बदला। अरुण पूरी, रुपर्ड मर्डोक, सुभाष चन्द्रा गोयल, रामोजी राव, प्रणव राय, सुब्रतो राय, राघव बहल जैसे कार्पोरेट कारोबारी ने खबरिया चैनल्स के महत्त्व को समझा। न्यूनतम पूंजी निवेश से बेहतर मुनाफ़ा कमाने बिज़नेस मॉडल पहले भारतीय टीवी इंडस्ट्री में पहली बार आया। जो चैनल्स डीडी न्यूज़ पर ३० मिनिट्स का बुलेटिन दिखा रहा था उसी चैनल्स ने आज तक जैसे २४x७ न्यूज़ चैनल को स्थापित किया। टीवी टुडे नेटवर्क के एमडी अरुण पूरी साहब ने ३० मिनिट्स के बुलेटिन को देश के जाने माने पत्रकारों के लेकर आज तक जैसा ब्रांड स्थापित किया।
एसपी साहब यानी सुरेन्द्र प्रताप सिंह के अगुवाई में देश की जनता को २४x७ देश दुनिया की खबरे घर बैठे देखने को मिली। एसपी साहब ने त्रेहन, आशुतोष, प्रसून, दीपक , नक़वी, सुप्रिय,अंजुम साहब और जिसकी फेहरिस्त काफी लम्बी है ऐसे होंनहार, कद्दावर, खबरों के लिए मर मिटने वाले हिंदी पत्रकारों की फौज खडी की। दरअसल एसपी साहब ने टीवी पत्रकारिता के मायने बदले। खबरों का तेवर, कलेवर, परोसने का ढंग, स्क्रिप्ट, एंकर इंट्रो, बाइट, विजुवल, पैकेज, हेडलाइन्स और वो तमाम तकनिकी एवं गैर-तकनिकी प्रणाली से देश की जनता को अवगत कराया था । या यूं कहे तो एसपी साहब भारतीय टीवी न्यूज़ चैनल्स के जनक थे। टेलीविज़न न्यूज़ के खबरों की ताकत एसपी साहब जान चुके थे। खबर राजनीतिक हो, विकास की हो , विदेश नीति से जुडी हो, निवेश, नक्सलवाद, आतंकवाद, टाडा, पोटा, भूखमरी, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, साम्प्रदाइक दंगे, मंडल, आरक्षण, बेरोजगारी, घूसकांड, आदिवासियों का आंदोलन, गरीबी या प्राकृतिक आपदा संसद से सड़क तक हड़कम्प मचना तय है। एसपी साहब के पत्रकारिता में वो ठसक थी की आजतक जैसे न्यूज़ चैनल पर सामाजिक सरोकार से जुडी कोई खबर ऑन एयर हो और देश का संसद तीन दिन तक ठप्पा रहे।
२००२ के बाद टीवी चैनल्स में बाढ़ आना शुरू हुई। टीवी पत्रकारिता में धीरे धीरे कार्पोरेट कल्चर ने सेंध लगाना शुरु किया। बिल्डर, माफिया, चिटफंड कंपनीयो के धन कुबेरों ने अपने काले करतूतो को झाकने के लिए टीवी न्यूज़ चैनल्स का सहारा लिया। एसपी साहब तो अब इस दुनिया में नहीं थे किन्तु वो पीछे छोड़ गए होनहार पत्रकारों की फौज। जो हाशिये पर बैठे समाज के सरोकर की पत्रकारिता करे। किन्तु यह कुनबा बिखरते गया। कोई चाटुकार बने तो कोई दलाल। चकाचौध, फाइव स्ट्रार लाइफ स्टाइल, ग्लामर, पैसा, शराब के बोतल आम सरोकार के जुडी खबर होश गवा बैठी।
कार्पोरेट कल्चर में रहते हुए भी टीवी के दो दिग्गज पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेई और रवीश कुमार जो अभी भी एसपी साहब के पथ पर चलते है। प्रसून के पास खबरों को समझने, जानने और परोसने की अनोखी, अद्भुत, नायाब, कला है। खबर राजनीति से लेकर नक्सलवाद तक या संघ से लेकर सिंगुर तक छोटी बढ़ी खबर की अहमियत प्रसून समझते है। तो दूसरी तरफ रवीश कुमार के पास उपन्यासकार,साहित्य, शब्दकोष, इतिहास आदि की भण्डार है। इसीलिए टेलीविज़न पत्रकारिता प्रसून और रवीश कुमार दो चेहरे बेहद जरुरी है। जो कार्पोरेट मीडिया में काम करते हुए भी हाशिये पर समाज की बात करते है।
सुजीत ठमके
पुणे- ४११००२