विनीत कुमार
पर्ल ग्रुप चिटफंट वेन्चर से चलनेवाली पत्रिका शुक्रवार और बिंदिया बंद हो गई. देख रहा हूं कि इस खबर से लोग हलकान हुए जा रहे हैं. ये उसी ग्रुप की पत्रिका है जिसने जब अपने चैनल पी7 की लांचिंग की तो इनकी शान में यहां के महिला एंकरों को रैम्प पर नुमाईश करनी पड़ी. लांचिंग में पानी की तरह पैसे बहाए गए. खैर शुक्रवार और पत्रिका का बंद होना अच्छी बात तो नहीं है. तत्काल दर्जनों मीडियाकर्मी नौकरी की संकट में फंस गए. सवाल है कि अगर ये दोनों पत्रिकाएं चलती रहतीं और मीडियाकर्मी निकाल-बाहर किए जाते तो भी लोग इसी तरह हलकान होते..मैंने कई ऐसे मौके देखे हैं जब मीडिया प्रोडक्ट यानी चैनल,अखबार या पत्रिकाएं तो निकलती रहीं लेकिन वहां से बड़े पैमाने पर लोगों को निकाल दिया गया लेकिन शुक्रवार, बिंदिया के लिए हलकान हो रहे लोगों ने इसे बुरी तरह नजरअंदाज कर दिया. दोनों पत्रिकाओं की सामग्री पर बात न भी करें तो क्या हमारा काम बस इतना भर का है कि पढ़ने को कुछ संजीदा चीजें मिलती रहे और हम उस पर मुग्ध होते रहें और अगर मिलनी बंद हो जाए तो स्यापा शुरु. बाकी इसकी ओनरशिप, लागत, रणनीति, धंधे के लिए कुछ भी करने की होड़ पर कोई बात न करें.
जिस चिटफंट समूह पर्ल ग्रुप के तहत ये पत्रिका आती रही है, उसे सेबी की तरफ से नोटिस मिली हुई है. कैसे पर्ल ग्रुप के डायरेक्टर निर्मल सिंह भंगू ने लोगों के 45 हजार करोड़ रुपये की हेरा-फेरी की और ऑस्ट्रेलिया ले लेकर देशभर में एम्पायर खड़े किए, इस पर न्यूज चैनलों में एक के बाद एक स्टोरी आती रही है..मामला अभी भी चल रहा है.
ऐसे में बिंदिया और शुक्रवार जैसी पत्रिका बंद होती है तो उसके पीछे लगे पैसे, कंपनी की उठापटक और चिटफंट जैसे धंधे की अनिश्चितता पर बात करने के बजाय बेहद नास्टॉल्जिक होकर स्यापा करने का अर्थ है हम सामग्री छापने के स्तर पर जिन बड़े सवालों को कविता, कहानी,संस्मरण, निजी अनुभव की शक्ल में छाप रहे हैं, व्यावहारिक स्तर पर उससे टकराना ही नहीं चाहते. हमें हैरानी तो इस बात पर होनी चाहिए कि जो संस्थान शुरु से ही विवादों में रहा हो, नियमन संस्थानों के शक के घेरे मे रहा हो वो इस तरह की तथाकथित सरोकारी पत्रिका निकालने का साहस किस बिना पर जुटा लेता है..जो संस्थान अपने चैनल में काम करी एंकर को शान में रैम्प पर नुमाईश तक करवा डालता हो वही संस्थान “बिंदिया” पत्रिका निकालकर गुलाबी स्त्री-विमर्श का पाखंड़ किस दम पर रचने लग जाता है.
माफ कीजिएगा, खालिस पाठक की हैसियत से किसी अखबार, पत्रिका, चैनल पर बात करना मेरे लिए संभव नहीं है. नहीं तो हम इसी तरह साबुन,शैंम्पू, तेल की महक से पहले से ही इतने आह्लादित तो रहते ही हैं कि इन कंपनियों की कारगुजारियां पर बात करना सिनिकल लगता है.
जिस पर्ल ग्रुप चिटफंट समूह से बिंदिया और शुक्रवार पत्रिका निकलती है, वहीं से मनी मंत्र पत्रिका भी निकलती रही है. इसी के P7 चैनल को विपासा बसु के हाथों लांच कराया गया था और वो इसकी ब्रांड एम्बेसडर भी बनी. आगे चलकर इस चैनल का विज्ञापन ओम पुरी करने लगे. इन सबके बीच समूह के डायरेक्टर निर्मल सिंह भंगू से जुड़ी लोगों के हजारों करोड़ रूपये का चूना लगाने की खबर आजतक, एबीपी जैसे न्यूज चैनलों पर आती रही. बिजनेस स्टैन्डर्ड से लेकर द ट्रिब्यून, डीएनए एक के बाद एक स्टोरी छापते रहे. लेकिन हिन्दी पब्लिक स्फीयर में इन सब पर कहीं कोई चर्चा नहीं. अब जब आप सीधे-सीधे अपनी दो बेहद ही प्यारी पत्रिका के अकाल कलवित हो जाने की खबर पढ़ रहे होंगे तो चल रहा होगा कि ये सब अचानक कैसे हो गया ? लेकिन जैसे ही आप इस संस्थान के बिजनेस पैटर्न और गतिविधियों पर गौर करें, आपको हैरानी होगी कि ये पत्रिका अब तक आखिर निकल कैसे रही थी ? मीडिया के अर्थशास्त्र, प्रबंधन, पीआर प्रैक्टिस और तोड़-जोड़ को ताक पर रखकर सिर्फ उसके प्रोडक्ट को लेकर संवेदनशील बने रहेंगे तो आपको बासी खबरें भी ऐसी ही ब्रेकिंग लगेगी और आपकी सहानुभूति उस प्रोडक्ट के प्रति चिरकाल तक बनी रहेगी.