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राहुल गांधी की खाट से किसानों का फायदा,इंडिया टीवी की रिपोर्ट

RAHUL GANDHI KHAT

राहुल गाँधी की खाट सभा में आज खाट की लूट मच गयी …जिस मैदान में ढाई हज़ार खाँटे राहुल गाँधी से बात करने के लिए बिछाई गयी थी मिनटों में वो मैदान खाली हो गया ..राहुल गाँधी खाट सभा खत्म करके जैसे ही मंच से उतरे लोग खाट लूट कर ले जाने लगे..खाट लूट में औरते भी शामिल थी ..जिसको सबूत खाट नही मिली वो टूटी खाँटे ले जाते दिखे ..बुजुर्ग लोग जो खाट उठा नही पा रहे थे वो भी खाट घसीट कर ले गए …कुछ लोग एक खाट के लिए झगड़ भी पड़े ..अब राहुल गाँधी की खाट पंचायत से किसानों को एक फायदा तो जरूर हो गया कि उनके घर एक खाट और बढ़ गयी.

(इंडिया टीवी रिपोर्टर रूचि कुमार की रिपोर्ट/ अजीत अंजुम के एफबी से साभार)

प्रिंट मीडिया फोबिया के शिकार विनीत कुमार

विनीत कुमार,मीडिया विश्लेषक
विनीत कुमार,मीडिया विश्लेषक

हम प्रिंट के लिए अब क्यों नहीं लिखना चाहते ? मैं कोई बड़ा लेखक नहीं हूं और न ही मेरी कोई बड़ी हैसियत है. बस ये है कि लिखना मेरे लिए ऑक्सीजन जुटाने जैसा है. बिना लिखे रह नहीं सकता. ये मेरे पेशे की, मेरे मन की, खुद मेरी जरूरत है. बावजूद इसके प्रिंट मीडिया जिसमे सरोकारी साहित्यिक पत्रिकाओं से लेकर व्यावसायिक अखबार तक शामिल हैं, के लिए लिखने का बिल्कुल मन नहीं करता. मैंने बहुत पहले तय भी किया था कि अब धीरे-धीरे करके इनके लिए लिखना बिल्कुल बंद कर देना है. तहलका, जनसत्ता जैसे मंचों के लिए न लिखने की वजह यही रही.

ऐसा कहना या इस फैसले तक पहुंचना किसी भी तरह के बड़बोलेपन या अहंकार का हिस्सा नहीं है. ये मेरी अपनी कमजोरी है. ब्लॉगिंग के दौर से जो मेरी थोड़ी-बहुत पहचान बनी और लोग लिखने के मौके देने लगे तो मैं लिखने लग गया. एक समय में खूब लिखा और धीरे-धीरे ऐसे दवाब में आता चला गया कि मेरी नींद, मेरा आराम, मेरा शरीर सब दांव पर लगने लग गए. न्यूजरूम की उनकी परेशानी और डेडलाइन प्रेशर मेरे उपर आने लग गए. मैं देखते-देखते प्रिंट मीडिया फोबिया का शिकार हो गया. मैं दिनभर बाकी के काम करता लेकिन दिमाग में डेडलाइन घूमती रहती.

जो भी लिखने कहते, पहले उनमे आग्रह होता, दोस्ती-यारी का हवाला होता और जैसे-जैसे समय नजदीक आता, वो सख्त होते चले जाते. कुछ का अंदाज इस तरह होता कि जैसे मैंने उनसे कर्ज लिया हुआ हो. आप कह सकते हैं कि मैं ऐसा लिखकर प्रोफेशनलिज्म और उसकी शर्तों से भाग रहा हूं. लेकिन यदि समय पर लेख देना प्रोफेशनलिज्म है तो लेख छपने के बाद सौ रूपये तक भी न देना सामाजिक सरोकार और हिन्दी सेवा कैसे हो गई ? तथाकथित सरोकारी और साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए एक लेख लिखने में मैं डेढ़ से दो महीने उससे बुरी तरह जूझता रहता. एक लेख पर चार-पांच हजार रूपये किताब, फोटोकॉपी और सामग्री जुटाने में खर्च हो जाते. ताबड़तोड़ फोन कॉल के बीच जब वो लेख छपकर सामने आता तो पत्रिका की कॉपी तक नहीं मिलती. कुछ की प्रति के साथ एक चिठ्ठी शामिल होती जिसमे लिखा होता कि हमने आपके पारिश्रमिक के तौर पर पत्रिका की एक साल की सदस्यता दे दी है. मैं उस पत्रिका का सदस्य बनना चाहता भी हूं नहीं, ये सब बिना जाने-समझे ही.

खैर, हिन्दी की समाज सेवा से हम धीरे-धीरे छूटने लगे. शुरू में नामचीन चेहरे का लिहाज करके लिखता रहा. बाद में वो लिहाज करना भी छोड़ दिया. हमने कई मोर्चे पर महसूस किया कि उन्होंने अपने लेखक के हक के लिए लड़ना छोड़ दिया. लिहाजा, अब लिखने की बात करते ही अब हाथ जोड़ लेता हूं. बस इसलिए कि मुझ पर इन सबका गहरा असर होता है. मैंने एक-एक लेख के पीछे कितनी रातें खराब की है. अपनी भूख, नींद, आराम सबकुछ. कई बार बीमार भी होते रहे.

इधर अखबार और पत्रिकाओं के लिए ज्यादातर दोस्ती और भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव के कारण लिखता रहा जो कि अब तेजी से खत्म हो रहा है. अब सच पूछिए तो किसी से जुड़ाव महसूस ही नहीं होता क्योंकि इसका कोई मोल रहा ही नहीं है शायद. हम अब तक इस दोस्ती में, लिहाज में और अपने लोगों तक बात पहुंचाने की ललक में प्रिंट मीडिया के लिए लिखते रहे. लेकिन अब मेरे लिए ऐसा कर पाना बिल्कुल भी संभव नहीं है. ऑर्डर पर बताशे और गुलगुले बनाने का काम मुझसे नहीं हो पाता. वर्चुअल स्पेस पर लगातार लिखते रहने से अच्छा-बुरा जैसा भी है, अपना एक अंदाज पनपने लग गया है. मैं उस अंदाज में लिखकर खुश रहता हूं. नौकरी के लिए जितना शोधपरक,सार्थक लेखन करना था, हो लिया. चालीस से ज्यादा कॉलेजों के इंटरव्यू में उन फाइलों को ढोते-ढोते मेरी कलाइयों में अब दर्द रहने लगा है. हर दूसरे-तीसरे इंटरव्यू में यही लगता है कि काश भीतर को ऐसा शख्स हो जो कहे कि- अरे रहने दो फाइल-वाइल, मैंने तुम्हारा लिखा पढ़ा है.

आप इसे एक हताश-निराश व्यक्ति का वक्तव्य कह लें या फिर एक बड़बोले शख्स का गैरजरूरी बयान..लेकिन मुझे अब इतनी ही बात समझ आती है कि किसी अखबार या पत्रिका के लिए अमुक विषय पर लेख छापना या लिख देने के बाद नहीं छापने की मजबूरी है तो उस दवाब को मैं क्यों झेलूं. न्यूजरूम के दवाब को मैं अपने उपर क्यों हावी होने दूं ? ठीक उसी तरह किसी सरोकारी व्यक्ति को पत्रिका का संपादक बनकर हिन्दी सेवा करनी है जो कि मुझे नहीं करनी है तो मैं उसकी इस संतई में क्यों परेड करने लग जाउं.

मेरी अपनी समझ बिल्कुल साफ है. यदि मैं शौक और दिमागी जरूरत के लिए लिखता हूं तो मुझे पहले अपनी सेहत और पसंद का ख्याल रखना होगा. और यदि मैं पैसे के बजाय पाठकों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए लिख रहा हूं तो फेसबुक, वर्चुअल स्पेस की दुनिया पर्याप्त है. लेकिन जो काम धंधे के लिए किया जा रहा हो, उसमे मैं आखिर संत बनकर क्यों शामिल हो जाउं. वहां के लिए लिख रहा हूं तो मुझे पैसे चाहिए, मुझे वो सबकुछ चाहिए जिसकी उम्मीद मेरा प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन और सिक्यूरिटी गार्ड करता है. लिखनेवाले की दीहाडी मारकर यदि आप उसे हिन्दी सेवक घोषित करने में लगे हैं तो माफ कीजिएगा, मैं उस बिरादरी से बाहर का आदमी हूं.

हिन्दी पखवाड़ा सीरिज- 1

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बजरंग दल का छोटा भाई है

all india muslim personal law
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ

जावेद अख्‍तर ने एकदम ठीक कहा है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन है.बोर्ड की दलीलें न सिर्फ एकदम बोदा हैं, बल्कि सामंतवादी किस्म की हैं. वे इतने अहमक हैं कि कोर्ट में जाकर ऐसा हलफनामा पेश कर सकते हैं मर्द निर्णय लेने में ज्यादा सक्षम है. मतलब महिला निर्णय नहीं ले सकती. अगर महिला पुरुष बराबर नहीं हो सकते तो इस आधार पर यह भी तर्क दिया जा सकता है कि इंसान और कठमुल्ला कभी बराबर नहीं हो सकते. या कठमुल्ले कभी इंसान नहीं हो सकते.

बोर्ड का कहना है कि किसी एक धर्म के अधिकार को लेकर कोर्ट फैसला नहीं दे सकता है. यह दिखाता है कि ऐसे संगठनों का जम्हूरियत, संविधान, कानून की दुहाई सिर्फ तब तक अच्छी लगती है, जब तक उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल हो. बोर्ड ने जो सुप्रीम कोर्ट में जो तर्क दिए हैं वे न सिर्फ संविधान या लोकतंत्र की भावनाओं के विरुद्ध हैं, बल्कि वे मुसलमानों के बारे में लोगों की धारणाओं को विकृत करेंगे.

आपको जम्हूरियत तभी तक चाहिए जब तक मुसलमान सामंती मर्दों को फायदा पहुंच रहा हो. उनकी अपनी धार्मिक कुंठाओं के तुष्ट होने तक तो जम्हूरियत ठीक है, उसके आगे बर्दाश्त नहीं है. यह एक शातिराना चाहत है कि जहां मुसलमानों पर संकट हो वहां कोर्ट, संविधान, कानून, लोकतंत्र सब चाहिए, जहां अपना धार्मिक मर्दवाद पोषित होता हो, वहां कुछ भी बर्दाश्त नहीं है.

अगर कुरान और हदीस में कुछ भी बदला नहीं जा सकता तो उन किताबों में तो पर्सनल लॉ बोर्ड का भी कोई जिक्र नहीं है. फिर पर्सनल लॉ बोर्ड क्यों बना? उसे ही क्यों न भंग ​कर दिया जाए? पर्सलन लॉ बोर्ड जैसा संगठन आम मुसलमानों को न सिर्फ शर्मिंदा करता है, बल्कि मुस्लिम समाज की तमाम खूबसूरत बातों को अपनी कट्टरता के तले दफन कर देता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बजरंग दल का छोटा भाई है.

(टेलीविजन पत्रकार कृष्णकांत के एफबी वॉल से)

आजतक सवाल पूछता रहा और केजरीवाल काम करते रहे!

आंदोलन के जरिए आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल राजनीति में आए. इस दौरान वे सबसे सवाल पूछते रहे और जवाब न मिलने पर सामने वाले की फजीहत करते रहे. लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री बनते ही सवालों को लेकर उनका नजरिया पूरी तरह से बदल गया है.अब वे सवाल पूछने पर कन्नी काटते हैं और अनसुना कर अपने काम में लग जाते हैं. हाल ही कुछ ऐसा ही रोम में देखने को मिला जब संदीप कुमार के मामले पर आजतक संवाददाता के सवाल से केजरीवाल कन्नी काटते नजर आए. देखिए पूरा वीडियो.



विनोद कापड़ी ने संपादकों पर कसा तंज !

विनोद कापड़ी

विनोद कापड़ी
विनोद कापड़ी
हैरानी होती है कि हम सब एक समाज , एक देश के तौर पर नाकाम होते जा रहे हैं। इस देश में कोई भी जिस दिन भी चाहे वो हीरो या नायक या भगवान या देवी माँ बन सकता है। कानपुर के ललित शुक्ला ने अचानक एक दिन दावा किया कि उनकी बेटी श्रद्दा गंगा नदी में तैरकर कानपुर से वाराणसी की 570 किलोमीटर की यात्रा 7 दिन में तय करेगी। ये दावा हर अखबार और टीवी की हेडलाइन बन गई। तीसरे दिन उन्होंने दावा कर दिया कि वो रोज़ 8 घंटे में 70-80 किलोमीटर तैराकी कर रही है। ये भी हेडलाइन बन गई।किसी ने मतलब किसी ने भी नहीं सोचा कि क्या एक 12 साल की बच्ची 8 घंटे में रोज़ 80 किलोमीटर तैर सकती है और वो भी उफनती गंगा में? 23 ओलंपिक गोल्ड मेडल जीत चुके माइकल फ़ेल्प्स की जो सबसे तेज़ रफ़्तार है , अग़र वो उस रफ़्तार से भी आठ घंटे तक लगातार तैराकी करे , तब भी वो 80 किलोमीटर की दूरी तय नहीं कर सकता। लेकिन हमारे यहाँ की बच्ची रोज़ 80 किलोमीटर तैर रही है और रोज़ वो हेडलाइन्स और अखबार के पाँच पाँच कॉलम में जगह पा रही है।

क्या हमारे इस पूरे समाज में , इस पूरे ढाँचे में कोई एक भी शख़्स ऐसा नहीं है जो ये सवाल उठाए कि ये कैसे हो सकता है ? दुर्भाग्य ये कि सभी लोग आँख बंद करके वही दिखाते और लिखते रहे , जो उस बच्ची के पिता दिखाते रहे। और जब किसी ने इस पूरे अभियान पर सवाल उठाया तो उसे जान से मारने की धमकी मिली , 700 -800 लोगो की भीड़ ने पथराव किया क्योंकि तैराकी का विश्व रिकॉर्ड बनाने निकली वो प्यारी बिटिया सिर्फ तीसरे दिन तक आते आते देवी माँ , गंगा मैया का साक्षात अवतार बन चुकी थी , उसकी पूजा शुरू हो चुकी थी। ऐसे में पढ़े लिखे पत्रकारों , संपादकों से लेकर अनपढ़ गाँव वालों तक- सब की अपनी तर्क शक्ति इस्तेमाल करने लायक बुद्दि बची कहाँ थी। इसलिए अब एक नई देवी का जन्म हो चुका है। पूजा शुरू हो ही गई है। मंदिर भी बन ही जाएगा।

हम सब मूर्ख और भावुक लोग ऐसे ही झूठ के देवी देवताओं के आदी हैं और हमें वही मिल रहा है , जिसके हम लायक हैं। देश को नई देवी मुबारक हो !!!
पर देवी को अलग करके देखें तो हो सकता है कि बच्ची में वाक़ई प्रतिभा हो। गंगा में उतरना और तैरना कोई मज़ाक़ तो नहीं है ,चाहे वो 500 मीटर ही क्यों ना हो !!
काश श्रद्दा के माता पिता उसका तमाशा बनाने के बजाय उसके बचपन को सहेज कर रखते।और उसे वो माहौल देते,जहाँ से ओलंपिक का रास्ता शुरू होता है।




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