आलोक कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली का दंगल : दिल्ली में जो देखा – सुना
आज की तारीख में मीडिया के लगभग सभी माध्यम आम आदमी पार्टी को दिल्ली के चुनाव में बढ़त हासिल करते हुए दिखा-बता रहे हैं , चुनावी – सर्वे का बाजार ‘गर्म’ है . लेकिन जैसा अंतर इन आकलनों में बताया जा रहा है नतीजे वैसे ही होंगे इसमें मुझे संदेह है ! इन सर्वेक्षणों के संदर्भ में ही अगर बात करूँ तो यहाँ चंद प्रश्न सहज ही उठते हैं कि ऐसे चुनावी-सर्वेक्षणों का हिस्सा मतदाताओं के किस वर्ग को बनाया गया है ? सैंपलिंग किन लोगों की की गई है ? क्या सर्वेक्षणों में व्यावहारिक पहलुओं – समीकरणों को ध्यान में रख कर सवाल पूछे गए हैं या निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले उनका (व्यावहारिक पहलुओं ) का व्यावहारिक व तार्किक विवेचन – विश्लेषण किया गया है ? आज का मीडिया तार्किक तथ्यों को ताके पर रख कर ‘सनसनी पैदा’ करने के संक्रमण से ज्यादा ग्रसित है . दिल्ली में जीत – हार का फैसला तो जनता ही तय करेगी लेकिन अगर चुनावी – सर्वेक्षण , अखबारों के संपादकीय पन्नों के पूर्वानुमान एवं न्यूज-चैनलों के स्टूडियो के डिबेट तथ्यात्मक विश्लेषणों व आम मतदाताओं के विचारों को ताक पर रख कर किए जाएँगे तो कोई सही तस्वीर उभर कर नहीं आएगी . सही ‘तस्वीर’ वही होती है जो सही ‘एंगल’ से ली गई होती है और ऐसा ‘सही’ एंगल पाने के लिए ‘सबजेक्ट’ से जुड़े सारे आयामों को जाँचना – परखना होता है , ‘सबजेक्ट’ के पास जाना होता है . लेकिन आज कल तो शॉर्टकट का जमाना है और भारतीय मीडिया को तो शार्टकट ही सबसे ज्यादा भाता है .
दिल्ली के चुनावी सर्वेक्षणों को सतही तौर पर देखने से साफ पता चलता है कि सैंपलिंग का हिस्सा विभिन्न दलों के चुनाव –प्रचार की भीड़ में शामिल लोग ही हैं या सड़कों पर मूव करती जनता या झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग या सड़क किनारे रेवड़ियाँ लगाए लोग . दिल्ली के चुनावों में मध्यम- वर्ग का मतदाता अहम भूमिका निभाता आया है , जो आज केजरीवाल व उनकी पार्टी से तार्रुफ नहीं रखता , और इस बार के चुनाव में वो किसकी तरफ जाएगा ये जानने के लिए उसके दरवाजे की कॉल-बेल बजाने की दरकार पड़ती है और इस प्रक्रिया को शायद ही किसी सर्वे-टीम ने फॉलो किया है ! दिल्ली के मध्य-वर्गीय मतदाताओं में अभी भी ‘मोदी –मैजिक’ का असर कायम दिखता है और वैसे भी आठ – नौ महीनों के काल में मोदी से मोह – भंग होने का कोई बहुत प्रभावी कारण भी उभर कर सामने नहीं आया है . अब रही बात युवा-मतदाताओं की , जिन्होंने लोकसभा चुनाव में मोदी की सफलता में अहम भूमिका निभाई थी , तो आज भी युवा मोदी के ‘मेक-इन इण्डिया’ एवं ‘डिजिटल –इण्डिया ‘ में अपनी संभावनाएँ तलाश रहा है . चुनावों में मतदाताओं के मोबलाइजेश्न का काम युवा ही करते हैं और इस फ्रंट पर भाजपा आम आदमी पार्टी पर भारी पड़ती दिखती है . यहाँ एक बात और बहुत अहम है कि हाल के दिनों (पिछले एक-डेढ़ वर्षों) में युवाओं की एक बड़ी फौज भाजपा की संगठनात्मक रीढ़ राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ से जुड़ी है और सहजता से ये दिल्ली की मुहिम में सक्रिय देखे भी जा सकते हैं . ऐन चुनावों के दिन डोर टू डोर कैम्पेनिंग में भाजपा से जुड़ा युवा तबका दिल्ली में अपने प्रतिद्वंदियों भर भारी पड़ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं ! वैसे भी समर्पित – कैडर के मामले में भाजपा को निःसन्देह तौर पर अपने प्रतिद्वंदियों की अपेक्षा एडवांटेज है . यहाँ एक प्रश्न सुधी पाठक उठा सकते हैं कि कार्यकर्ताओं का हुजूम तो आम आदमी पार्टी के साथ भी दिखता है ? तो इस संदर्भ में एक चीज समझना निहायत ही जरूरी है कि कार्यकर्ता और कैडर में फर्क होता है , कार्यकर्ता के साथ प्रतिबद्धताएँ नहीं जुड़ी होती हैं और उसकी प्रायोरिटीज में त्वरित बदलाव भी होते हैं , वो किसी ‘और’ की बजाए ‘खुद’ से गाईड होता है और उसका ‘मूड’ कब बिगड़ जाए इसे ढेरों कारक प्रभावित करते हैं लेकिन कैडर की प्रतिबद्धताएँ होती हैं और वो दिशा-निर्देशों (Directives) को फॉलो करने के लिए बाध्य होता है . ज्ञातव्य है और ये मुझे देखने को मिला भी कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ने दिल्ली की इस प्रतिष्ठा की लड़ाई में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है , देश के विभिन्न कोनों से आए समर्पित कैडर की एक बड़ी फौज दिल्ली के इस दंगल को अपने पक्ष में करने के लिए जी-जान से जुटी है . भाजपा और संघ के इसी कैडर ने लोकसभा चुनावों और उसके पश्चात भिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में अपने बूथ –मैनेजमेंट और मतदाताओं को उनके घरों से बूथ तक पहुँचाने के कौशल का मुजाहिरा बखूबी किया भी है , लोकसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश में भाजपा को मिली अपार सफलता इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है . ०७ फरवरी के निर्णायक दिन भाजपा का यही कैडर क्या कोई कसर बाकी रहने देगा ?
अब बात दिल्ली के मतदाताओं के बड़े वर्ग ‘व्यवसायी –वर्ग’ का जिसे लुभाने की पूरी कोशिश में जुटे दिख रहे हैं आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल . केजरीवाल मतदाताओं के इस बड़े तबके को अपने पक्ष में करने के लिए वो सारे हथकंडे अपना रहे हैं जिससे परहेज ही उनकी जन – आंदोलन से उपजी राजनीति का सैद्धान्तिक-मूल में समाहित थी , केजरीवाल अपने संबोधनों में खुद को कभी बनिया बता रहे हैं तो कभी ‘रेड –राज (Raid- Raj )’ के खात्मे की बात कर रहे हैं , कभी कटाक्ष की भाषा के साथ प्रयोग किए गए शब्द ‘गोत्र’ को पूरे अग्रवाल समाज (दिल्ली में बहुतायत अग्रवाल मतदाता व्यवसाय से ही जुड़ा है ) के साथ जोड़ने का ट्विस्ट कर रहे हैं . यहाँ गौरतलब है कि दिल्ली तो क्या पूरे देश में व्यवसायी तबका भाजपा का पारंपरिक वोट – बैंक माना जाता और रहा भी है और अगर इस पहलू का विश्लेषण बिल्कुल ही व्यावहारिक दृष्टिकोण से किया जाए तो “ व्यवसायी – वर्ग की राजनीतिक प्रतिबद्धताएँ भी उसके नफा-नुकसान से ही जुड़ी होती हैं और दिल्ली का व्यवसायी – वर्ग इस बात को भली – भाँति जानता – समझता है कि उसका फायदा तब ही है जब केंद्र में जिसकी सरकार है उसकी ही सरकार दिल्ली में भी बने, ऐसे में ही उसके लिए अनुकूल माहौल बनेगा क्यूँकि अगर दो अलग-अलग खेमों की सरकार बनती है तो सरकारों में अनावश्यक टकराव होना तय है और अनुकूल व्यापारिक नीतियाँ बनने व ‘ट्रेडर्स-फ्रेंडली’ माहौल कायम होने का प्रश्न ही नहीं उठता .”
अब बात महिला मतदाताओं की …. लोकसभा चुनावों के दौरान भी महिला मतदाताओं ने दिल्ली के चुनाव परिणामों को प्रभावित करने में एक अहम भूमिका निभाई थी और ऐसी पूरी उम्मीद है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में भी इनका रोल अहम होगा . दिल्ली में महिला मतदाताओं के चार प्रभावी – वर्ग हैं एक कामकाजी महिलाओं का , दूसरा घरेलू महिलाओं का , तीसरा छात्राओं ( जिनका कोई का निश्चित Po.itica.-Affi.iation नहीं है ) और चौथा सामाजिक कार्यकर्ताओं (सोशल – एक्टिविट्स) का . कामकाजी महिलाओं की प्राथमिकताओं में जॉब-मार्केट में प्रचुर अवसर (amp.e openings) एवं महिला –सुरक्षा जैसे मुद्दे सर्वोपरि हैं , ऐसे में ये तबका मोदी सरकार की ‘इंडस्ट्री –फ्रेंडली’ नीतियों के सहारे खुद को भाजपा के साथ ही जोड़ेगा इसकी संभावनाएँ ही ज्यादा प्रबल दिखती हैं . रही बात महिला –सुरक्षा जैसे अति-महत्वपूर्ण व संवेदनशील मुद्दे की तो इसमें कोई शक नहीं कि विगत कुछ वर्षों से दिल्ली के संदर्भ में ये मुद्दा काफी अहमियत रखता है . निःसन्देह दिल्ली में बलात्कार व यौन –उत्पीड़न की घटनाओं में निरंतर इजाफा भी हुआ है और ऐसी घटनाओं ने सुर्खियाँ भी बटोरी हैं , लेकिन यहाँ गौरतलब है कि दिल्ली का पुलिस – प्रशासन सीधे तौर से केन्द्रीय गृह-मंत्रालय से जुड़ा होता है और इस को मद्देनजर रख कर कामकाजी महिलाओं का ये तबका इस बात को बखूबी समझता है कि अगर दिल्ली – प्रदेश की सरकार भी उन्हीं लोगों की होगी जिनके हाथों में केंद्र की सरकार है तब ही ‘प्रभावी –पुलिसिंग (Effective Po.icing)’ होगी . ऐसे में भाजपा को किरण बेदी के महिला होने के साथ – साथ उनके कड़क व सक्षम पुलिसिया ट्रैक-रिकॉर्ड का फायदा भी अवश्य ही मिलता दिख रहा है . अब बात घरेलू महिला मतदाताओं की … मतदाताओं का ये तबका लोकसभा चुनावों के दौरान भी मोदी नीत भाजपा के साथ था और इस बार भी बहुतायत में इसके भाजपा के साथ जाने की ही संभावना दिखती है . इस तबके का राजनीतिक पेचीदीगियों से कोई ज्यादा सरोकार नहीं होता अपितु रोज़मर्रा जिन्दगी को प्रभावित करने वाले छोटे कारक ही इसके मतदान को ज्यादा प्रभावित करते हैं , मोदी सरकार के कार्यकाल में घटी पेट्रोल-डीजल , रसोई गैस , सब्जी व अनाज की कीमतों को देखते हुए दिल्ली के मतदाताओं का ये तबका मोदी सरकार व भाजपा से काफी हद तक संतुष्ट दिखता है और मेरे हिसाब से इस बार भी भाजपा के साथ ही जाएगा इसकी संभावना ही प्रबल है . अब बात महिला – मतदातों के तीसरे तबके छात्राओं की ….. यहाँ भ्रम की स्थिति कायम दिखती है , सीधे – सपाट शब्दों में कहूँ तो यहाँ तस्वीर बहुत साफ नहीं दिखती कुछ हद तक ‘सिक्स्टी – फॉर्टी (Sixty – Forty)’ वाला माहौल है . छात्राओं के बीच ऐसे समूह हैं जिनमें किसी की पसंद किरण बेदी व मोदी हैं तो ऐसे भी समूह हैं जो केजरीवाल के हिमायती हैं , सब के अपने – अपने तर्क-वितर्क हैं जिनसे कोई स्पष्ट राजनीतिक सोच तो नहीं झलकती है लेकिन ये सजग तो जरूर रहती –दिखती हैं . वैसे इस समूह को ‘ट्रेंड’ भी काफी प्रभावित करते हैं और ऐसे में अगर देश के बाकी जगहों के मतदान का ट्रेंड इनके मत को भी प्रभावित कर जाए तो कोई आश्चर्य नहीं ! हाँ ..यहाँ भी किरण बेदी का क्रेज जरूर केजरीवाल पर भारी दिखता है . महिला सोशल – एक्टिविस्ट वाले तबके की बात की जाए तो जन-आंदोलन के दिनों में जरूर इस समूह का जबर्दस्त साथ केजरीवाल की टीम को मिला था ये समूह व्यवस्था परिवर्तन व वैकल्पिक राजनीति की आस में उन दिनों केजरीवाल के साथ मजबूती से खड़ा था लेकिन बाद के दिनों में आम आदमी पार्टी व केजरीवाल के पारंपरिक राजनीतिक ढर्रे वाले ही क्रिया-कलापों ने इस समूह का टीम केजरीवाल से काफी हद तक मोह भंग कर दिया . मेधा पाटकर जैसी हस्तियों का टीम केजरीवाल से अलग होना भी इस समूह को रास नहीं आया और इस चुनाव में अगर ये समूह तटस्थ रह जाए या प्रतिक्रियावादी वोटों में तब्दील हो जाए तो इसका खामियाजा साफ तौर पर केजरीवाल व उनकी पार्टी को भुगतना पड़ सकता है .
अब बात निचले तबके (झुग्गी –झोपड़ी में रहने वाले , दिहाड़ी मजदूरी करने वाले , ठेला – खोमचा लगा कर जीवन –यापन करने वाले गरीब ) मतदाताओं की . मतदाताओं के इस समूह की बातों से तो ये साफ तौर पर झलकता है कि ये समूह केजरीवाल के ज्यादा करीब है और इस समूह के साथ केजरीवाल संवाद स्थापित करने में कामयाब होते भी दिख रहे हैं लेकिन यहाँ ये देखना सबसे अहम होगा कि इस समूह की कितनी संख्या मतदान-केन्द्रों तक पहुँचती है ? पिछले कुछ वर्षों के दिल्ली चुनावों के मतदान ट्रेंडस के विश्लेषण के पश्चात ये तस्वीर सामने आती है कि ये समूह अपनी वास्तविक संख्या से काफी कम मतदान करता आया है . अगर आम आदमी पार्टी इस समूह को ज्यादा से ज्यादा संख्या में मतदान केन्द्रों तक पहुँचाने में सफल हो पाती है तो बड़े उलट-फेर की संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता !
अल्पसंख्यक (मुसलमान) मतदाताओं का रुझान साफ तौर पर केजरीवाल के साथ है और यहाँ काँग्रेस का हाशिए पर चला जाना आम आदमी पार्टी के लिए फायदेमंद होता दिख रहा है . अलसंख्यक मतदाता भाजपा को रोकने के लिए आम आदमी पार्टी को एकमुश्त वोट करने के लिए एकजुट दिख रहा है . इसके अन्य कारण भी हैं केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक पारी के शुरूआती दिनों से खुद को अल्पसंख्यकों का हिमायती साबित करने के लिए काफी राजनीतिक चोंचलेबाजी भी की है , प्रतीकात्मक टोपी पहनकर टोपी पहनाने का काम भी किया है , राष्ट्रहित को ताके पर रख कर कट्टरवादी सोच को पोषित करने वाले अनेकों अनर्गल बयान दिए जिससे अधिसंख्य अशिक्षित अल्पसंख्यक मतदाताओं में ये संदेश गया कि केजरीवाल उनके ही हिमायती हैं , बुखारी जैसे लोगों के समर्थन में खड़े भी और उनके शरणागत भी दिखे . आज दिल्ली के अल्पसंख्यक मतदाता के पास भाजपा को चुनौती देने के लिए , रोकने के लिए केजरीवाल को छोड़कर कोई और सशक्त विकल्प भी नहीं है . वैसे भी भारत की चुनावी राजनीति में अल्पसंख्यक मतदाताओं को हमेशा से महज एक वोट – बैंक की तरह ही इस्तेमाल किया गया है और बरगलाया गया है . किसी भी राजनीतिक दल ने इस तबके को कभी भी मुख्य-धारा से जोड़ने का ईमानदार व सार्थक प्रयास ना तो किया है और ना ही भविष्य के लिए भी ऐसी कोई उम्मीद आकार लेती हुई दिखती है . इसमें कोई शक की गुंजाईश नहीं है कि हमारे देश के अधिसंख्य अल्पसंख्यकों के बीच भाजपा विरोधी राजनीतिक दल अपने दशकों के प्रयास के बाद ये बात बैठाने में कामयाब हो चुके हैं कि भाजपा कभी भी अल्पसंख्यकों के हितों की पार्टी नहीं हो सकती है और अल्पसंख्यकों के वजूद को खतरा किसी से है तो वो संघ और उसकी राजनीतिक इकाई भाजपा ही है . केजरीवाल भी वही करते और उसमें कामयाब होते दिख रहे हैं जो ‘औरों’ ने किया . स्थिति बिल्कुल ही स्पष्ट है दिल्ली में जहाँ काँग्रेस कमजोर होगी वहाँ उससे ही निकल कर आए हुए समीकरणों से आम आदमी पार्टी को मजबूती मिलेगी .
दिल्ली के चुनावी सर्वेक्षण में जुटी भिन्न टीमों के अनेकों सदस्यों ( जिनसे मेरा परिचय है ) से मैंने जब ये पूछा कि “क्या आप लोगों ने पूर्वाञ्चली (बिहार-उत्तरप्रदेश) मतदाताओं , जिनकी संख्या लगभग ३०-३३ प्रतिशत के बीच है , का मिजाज भाँपने की कोशिश की ?” तो उन सबों का जवाब बिल्कुल एक सा था “ हमलोगों ने ऐसी कोई ‘specific-samp.ing’ नहीं की .” अब आप (सुधी पाठकगण ) ही बताएं क्या ऐसे में कोई सही तस्वीर उभर कर आएगी ? मेरे विचार में कतई नहीं क्यूँकि आप कितने भी बड़े राजनीतिक पंडित क्यूँ ना हों जब तक आप प्रभावी मतदाता समूहों के बीच जाकर उनका ‘मूड’ नहीं भाँपेंगे , उन्हें नहीं कुरेदेंगे तब तक आप का चुनावी विश्लेषण ‘उपरनिष्ट(superficia.)’ ही साबित होगा . हरेक चुनाव के समीकरण भिन्न होते हैं , समय और परिस्थिति के हिसाब से मतदाता का मिजाज बदलता रहता है . रही बात पूर्वाञ्चली मतदाताओं की तो इनसे संवाद के पश्चात मुझे ये परिलक्षित होता दिखा कि ये मतदाता समूह अपने आप को आम आदमी पार्टी से जोड़ने के मूड में नहीं है , इनके अधिसंख्य लोग ये कहते मिले कि “आम आदमी पार्टी में हमारे हितों की बातें करने वाला हमारे मूल इलाके से निकल कर आया हुआ ऐसा कोई नहीं है जिसकी आवाज आम आदमी पार्टी के मंच पर कोई मायने रखती हो . आम आदमी पार्टी में दिल्ली और इसके आसपास के इलाके के लोगों की ही बहुतायत है और ऐसे में हम अपनी फरियाद लेकर किसके पास जाएंगे और हमारी सुनेगा कौन और पैरवी करेगा कौन ?” मुझे भी ये बात व्यावहारिक लगी और मैंने लगभग सभी से ये सवाल पूछा “तो क्या आप लोग भाजपा के साथ जाएँगे ?” किसी ने सीधा ‘हाँ’ में जवाब दिया तो किसी ने चतुराई से जवाब दिया “ जिसके साथ लोकसभा में गए थे अब तक तो उसी के साथ जाने का इरादा है , वहाँ (भाजपा में ) हमारे लोग भी हैं और उन लोगों का हमारे घर-गाँव से सरोकार भी है , अगर वो यहाँ हेकड़ी दिखाएंगे तो कम से कम हम वहाँ (अपने मूल प्रदेश –इलाके में ) उन पर चाँप तो चढ़ा ही सकते हैं (दबाब तो बना ही सकते हैं ) .” इस मतदाता समूह के राजनीतिक रूप से सक्रिय व सजग चंद लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि “ हमारे मतदान का ट्रेंड काफी हद तक तक हमारे मूल – प्रदेश के राजनैतिक समीकरणों से भी प्रभावित होता है .” मेरे समझने के लिए इशारा पर्याप्त था और आप सुधी पाठकगण भी समझ ही गए होंगे !
इस विश्लेषणात्मक- रिपोर्ट को कवर करने के अपने पाँच दिनों के दिल्ली प्रवास के दौरान मैं केवल अपने सूत्रों से मिला और ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों में जा कर आम लोगों (मतदाताओं) के मूड को भाँपने की कोशिश की . मतदाताओं की कही बातों से ही बनते हुए समीकरणों को सतह पर निकालने की कोशिश की , मैं किसी खास विचारधारा या दृष्टिकोण से प्रभावित हो कर किसी निष्कर्ष पर ना पहुँच जाऊँ इसके लिए मैंने दिल्ली में अपने किसी पत्रकार मित्र , मित्र व रिश्तेदार से भी संपर्क स्थापित करने की कोशिश तक नहीं की . अक्सर सुनने को मिलता रहा है कि दिल्ली के चुनावों में जाति-बिरादरी की कोई अहमियत नहीं रहती , इस बार ये मिथक भी मुझे काफी हद तक टूटता दिखा , पंजाबी बिरादरी के मतदाताओं , जिनकी पर्याप्त और निर्णायक संख्या है दिल्ली में , से संवाद के क्रम में मुझे साफ तौर पर किरण बेदी के लिए रुझान दिखा . अब ये देखना दिलचस्प होगा कि ये रुझान किस हद तक मतों में तब्दील होता है ! अगर एक बड़ा हिस्सा भाजपा के पक्ष में चला गया तो सर्वेक्षणों में दिखाए जा रहे आंकडों की संख्या में भारी उलट-फेर हो जाएगा . वैसे भी सारी पार्टियों के उम्मीदवारों की लिस्ट पर गौर करने के बाद ये स्पष्ट हो जाता है कि उम्मीदवारों के चयन में जातीय समीकरणों का पूरा ख्याल रखा गया है , यहाँ तक कि आम आदमी पार्टी भी इससे अछूती नहीं दिखी . बंगला साहिब गुरुद्वारे से निकल कर बाहर आ रहे आम सिक्ख – श्रद्धालुओं से जब बातें की तो उनकी बातों से ये साफ तौर पर झलका कि १९८४ के दंगा पीड़ित सिक्ख – परिवारों को मोदी सरकार के द्वारा दिए गए मुआवजे को लेकर सिक्खों में एक सकारात्मक माहौल कायम है , वैसे ये सकारात्मकता वोटों में किस हद तक तब्दील पाती है ये तो १०.०२.२०१५ को ही जाहिर होगा .
मैं यहाँ किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की बजाए अपने सुधी पाठकों पर ये छोड़ता हूँ कि वो अपने हिसाब से मेरे द्वारा प्रस्तुत तथ्यों (जिनका मैंने सिर्फ व्यावहारिक विश्लेषण मात्र भर किया है ) पर विचार कर खुद किसी निष्कर्ष पर पहुँचे और मुझे भी अपने विचारों से अवगत कराएं . वैसे एक बात तो तय है कि टक्कर जरूर कांटे की है लेकिन तस्वीर वैसी बिल्कुल ही नहीं है जैसा न्यूज-चैनल्स , समाचार – पत्र व मीडिया के अन्य माध्यमों पर मौजूद राजनीतिक – पंडित (रूटीन-अफेयर की तरह आने वाले ) बयां कर रहे हैं . मैं ने अपनी इस विश्लेषणात्मक – रिपोर्ट में उन सारे घिसे – पिटे पहलूओं – समीकरणों की चर्चा करने से परहेज किया है जिन पर काफी कुछ लिखा – पढ़ा जा चुका है और जिन पर रोज टीवी चैनलों में बहस होती है एवं जिनका एक ‘ फिकस्ड-पैटर्न ‘ की तरह हरेक चुनावों में प्रयोग होता है . बेशक जैसे आम आदमी पार्टी के लिए ये अस्तित्व की लड़ाई है और वैसे ही भाजपा को बिहार जैसे ‘हिन्दी –हार्टलैंड’ के महत्वपूर्ण राज्य में चुनाव के पूर्व ये साबित करना है कि मोदी – मैजिक अभी भी बरकरार है . अगर दिल्ली में भाजपा की जीत का सिलसिला टूटता है तो निःसन्देह ही इसका असर भिन्न राज्यों में होने वाले चुनावों में भाजपा के परफॉर्मेंस पर पड़ेगा , जैसे खेलों में ‘winning – streak’ की महत्ता है वैसे ही चुनावी राजनीति में भी इसके अपने ही मायने व प्रभाव होते हैं .
आलोक कुमार ,
(वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक ),
पटना .