तारकेश कुमार ओझा
2011 में खेले गए विश्व कप क्रिकेट का एक रोमांचक औऱ महत्वपूर्ण मैच भारत और पाकिस्तान की टीमों के बीच खेला गया था। इ्स मैच को देखने के लिए देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी को आमंत्रित किया था। मैं अपने मोहल्ले में बड़े स्क्रीन पर मैच देख रहा था। वहां अन्य लोगों में मौजूद एक सज्जन मैच को लेकर कुछ ज्यादा ही रोमांचित थे। अपनी टीम का कोई खिलाड़ी कुछ अच्छा करता तो वे उसे एेसे शाबाशी और सलाह देते , मानो टीम इंडिया के सारे खिलाड़ी उन्हें सुन रहे हों। वहीं भारत की स्थिति डांवाडोल नजर आती, और पाकिस्तान का पलड़ा भारी होता , तो वे तुरंत बड़बड़ाने लगते… मनमोहन सिंह को क्या जरूरत थी, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को यहां बुलाने की… वगैरह – वगैरह। उनका यह रुख पूरे मैच तक कायम रहा।
कुछ एेसा ही हाल क्रिकेट के मामले में अपने मीडिया का है। किसी मैच में टीम इंडिया ने अच्छा प्रदर्शन किया, तो तुरंत खिलाड़ी को भगवान बना दिया, और कुछ गड़बड़ हुई तो सारी खबरें रोककर बैठ गए पोस्टमार्टम करने। मेरे ख्याल से हाल के दिनों में बढ़ती महंगाई के साथ ही सहारनपुर दंगा और सीमा पर चीनी घुसपैठ मीडिया के लिए अधिक महत्वपूर्ण व गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए था। लेकिन इसके विपरीत पिछले कुछ दिन राष्ट्रीय चैनलों पर किक और क्रिकेट ही छाए रहे।या यूं कहें कि इनके बहाने चैनलों ने दर्शकों को पका डाला तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
हमेशा की तरह मीडिया खास कर कथित राष्ट्रीय चैनल सलमान खान की नई रिलीज होने वाली फिल्म किक पर न्यौछावर नजर आए। किक सौ करोड़ क्लब में शामिल होगी या नहीं या सलमान को दर्शकों की ईदी मिलेगी या नहीं , जैसे सवालों को लेकर मीडिया रहस्यलोक तैयार करने में जुटा रहा। आम आदमी अपनी थाली से गायब होते दाल से लेकर टमाटर तक की चिंता में परेशान है। वहीं मीडिया सलमान की नई रिलीज होने वाली फिल्म के सौ करोड़ क्लब में शामिल होने या न होने को लेकर अटकलबाजियों का दौर चला रहा है।
मीडिया का यह रुख हमें अपना बचपन याद दिलाता है। उस दौर में गरीब बस्तियों में कई लड़के एेसे थे, जिनके घर भले ही भुंजी भांग न हो, लेकिन अपने चहेते अभिनेता की नई रिलीज होने वाली फिल्म फर्स्ट डे, फर्स्ट शो जरूर देखते थे। यही नहीं जैसे – तैसे पैसों का जुगाड़ कर सिनेमा हाल के पोस्टर पर फूल – माला भी चढ़ाते थे। क्रिकेट के भी एेसे कई पागल प्रेमी हैं। लगता है फिल्मों और क्रिकेट के मामले में एक वर्ग की ओर से कुछ एेसा ही माहौल फिर रचने की कोशिश लगातार हो रही है।
(लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।)