अभिषेक श्रीवास्तव
कल ‘तहलका’ का वार्षिक अंक एक सुखद आश्चर्य की तरह हाथ में आया। एक ज़माने में इंडिया टुडे जो साहित्य वार्षिकी निकालता था, उसकी याद ताज़ा हो आई। बड़ी बात यह है कि ‘तहलका’ का यह अंक सिर्फ सहित्य नहीं बल्कि समाज, राजनीति, आंदोलन और संस्कृति सब कुछ को समेटे हुए है। आवरण पर एक साथ मुक्तिबोध और इरोम शर्मिला की तस्वीर को आखिर कौन नहीं देखना चाहेगा।
भीतर के पन्नों में विशेष ध्यान खींचने वालों में Anil Kumar Yadav का सीपीएम पर लिखा एक पीस है और ख्वाज़ा अहमद अब्बास पर Atal Tewari का बढि़या आलेख है। हिमांशु वाजपेयी ने बेग़म अख़्तर पर सुंदर पीस लिखा है, लेकिन सबसे ज़रूरी लेख इस अंक का पहला ही लेख है जो नेहरू पर कुमार प्रशांत ने लिखा है। मौजूदा राजनीतिक विमर्शों के संदर्भ में इस लेख को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। एक ओर भोपाल गैस त्रासदी और पहले विश्व युद्ध की यादें इस अंक में हैं, तो दूसरी तरफ़ मुक्तिबोध पर हरिशंकर परसाई और इरोम शर्मिला पर Mahtab Alam को आप पढ़ सकते हैं।
इस अंक की खूबी यह है कि इतने विविध मुद्दों के बीच से उन विषयों/लोगों को छांटा गया है जिन पर अन्यत्र कहीं भी वर्षान्त पर बात नहीं हुई है। इस लिहाज से पत्रिका के नए कार्यकारी संपादक Atul Chaurasia और उनकी टीम अपने संपादकीय विवेक के लिए बधाई की पात्र है। इस सराहना की मेरे लिए निजी वजह यह है कि जिस दौर में तमाम पत्र-पत्रिकाओं के वार्षिकांकों में सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी व बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों पर आवरण कथाएं आई हैं, ‘तहलका’ के इस अंक से आश्चर्यजनक रूप से नरेंद्र मोदी बिलकुल नदारद हैं। एक पत्रिका को इतने आंतरिक उथल-पुथल और विवादों के बावजूद फर्श से अर्श पर कैसे इतने कम समय में लाया जा सकता है, ‘तहलका’ इसका जीवंत उदाहरण है। धारा के विपरीत तैरने के इस साहस के लिए तहलका हिंदी की समूची टीम को एक बार फिर से बधाई। हम पाठकों की अपेक्षाओं को आप बनाए रखेंगे, ऐसी उम्मीद है। @fb