छोटी दीवाली की शाम यानी 2 नवम्बर जब हम महुआ न्यूज( नोएडा फिल्म सिटी) पहुंचे तो देखा महुआ न्यूज का ही एक मीडियाकर्मी जोर-जोर से अपने ही साथी मीडियाकर्मी को मां-बहन की गालियां देता हुआ इधर से उधर आवाजाही कर रहा है. कुछ लोग उसे साइड में ले जाकर समझाने-बुझाने की कोशिश कर रहे थे ताकि तमाशा न खड़ी हो जाए. इधर मेन गेट पर कोई तीन दर्जन के आसपास मीडियाकर्मी खड़े थे जिनमे आठ-दस महिला मीडियाकर्मी भी थीं. जाहिर है मां बहन की गालियां जब ऑफिस के दूसरी तरफ लगी चाय के ठिए पर बैठे-बैठे मुझे सुनाई दे रही थी तो उन्होंने भी सुना ही होगा. वैसे न्यूजरुम से लेकर पार्किंग, कैंटीन में मां-बहन की गालियां सुनते-सुनते कान इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि कुछ भी अजीब नहीं लगता लेकिन खुले में शौच और गालियां पता नहीं क्यों असहज कर ही जाती हैं..खैर,
इधर थर्ड ग्रेड की मेरी चाय खत्म हुई ही थी कि ऑफिस के आगे का मंजर बदलने लगा. एक-एक करके नाम पुकारे जाने लगे और भीतर जो भी मीडियाकर्मी अंदर से बाहर आते, हाथ में लिफाफा होता. देखते-देखते अभी कुछ देर पहले तक जो हाथ हवा में लहरा रहे थे उनमे चैनल की दी हुई चेक और लिफाफे थे..शुरुआत के तीन-चार चेहरे को मैंने करीब से पढ़ने की कोशिश की. उन पर कहीं से भी पिछले महीने की बकाया सैलरी मिलने की खुशी और संतोष का भाव नहीं था कि चलो कम से कम दीवाली तो सही कटेगी. बस ये है कि पिछले तीन दिनों से जो धरना-प्रदर्शन करते आए, उसका पटाक्षेप हो गया. इन तीन-चार चेहरे के बाद एक-एक करके महिला मीडियाकर्मी गईं और वो जब बाहर निकलीं तो मौहाल कुछ अलग सा हो गया. थोड़ा अतिरिक्त रुप स भावुक कर देनेवाला भी.
हम जिस खंभे की ओट से टिककर खड़े थे और इस पूरे नजारे को चुपचाप देख रहे थे, उससे दो फिट की दूरी पर कुछ सीनियर मीडियाकर्मी खड़े थे जिन्हें देखकर ही लग रहा था कि ये चैनल में अपेक्षाकृत बड़ी जिम्मेदारियों के साथ जुड़े रहे हैं. अच्छा सर, चलती हूं, हमलोग टच में रहेंगे और मिलते रहेंगे..हां,हां बिल्कुल बदले में इनका जवाब था..इसी क्रम में फिर 6 नवम्बर बार-बार दुहराया जाने लगा कि हम इस दिन भी तो मिल रहे हैं न. अब तक स्थिति जो बिना किसी से बात किए समझ आयी थी वो ये कि जिन-जिन मीडियाकर्मियों का जितना बकाया है, उनका भुगतान करके इस चैनल से मुक्त कर दिया जा रहा है और ऐसे मीडियाकर्मियों की संख्या सौ से उपर के करीब है. मतलब सौ से भी ज्यादा मीडियाकर्मी एकमुश्त बेरोजगार. इधर सी-ऑफ करनेवालों का अंदाज भी कुछ इस तरह से था कि पता नहीं अब कब मिलना हो..ऐसे मौके पर आंखें पनिया तो जाती ही हैं. आखिर हम भी तो मीडिया की नौकरी छोड़ते वक्त कितनों के हाथ पकड़कर लंबे वक्त तक खड़े रहे थे. पांच महीने पढ़ाकर ही जब हंसराज कॉलेज छोड़ रहा था तो मन भारी हो आया था और स्टूडेंट्स ने उपर से फेयरवेल टाइप से चाय पिलाकर और भावुक कर दिया था..यहां जो लोग जा रहे थे, उनसे मेरा कोई नाता न था और न ही कोई जाननेवाले ही थे..एक बार महुआ न्यूज को लेकर तहलका मे छोटी सी स्टोरी लिखने के अलावे इस चैनल पर कभी कुछ ज्यादा लिखा भी नहीं था..लेकिन इन महिला मीडियाकर्मियों के विदा लेने का अंदाज भीतर कुछ पिघलाता जरुर जा रहा था. लेकिन 6 नवम्बर की ये तारीख अटक सी गई थी.
तभी कोई 25-26 साल का एक मीडियाकर्मी आया और पुष्कर सहित मुझसे इस अंदाज में मिला और एक के बाद एक बिना कुछ पूछे ऐसे बताने लग गया कि जैसे हम एक-दूसरे से न केवल कई बार मिल चुके हैं बल्कि एक-दूसरे की पसंद-नापसंद से अच्छी तरह वाकिफ हैं. हम जिस छह तारीख पर अटके थे, उन्होंने ही बताया कि जिनकी सैलरी 25 से उपर है, उन्हें आज दस हजार कैश दिया गया है और बाकी चेक 6 तारीख को दिए जाएंगे. यानी कि आज भुगतान करने की घोषणा हुई है लेकिन ये सब 6 तारीख को फायनली होगा. साथ खड़े अपने सीनियरों को सुनाकर कहा- सबसे ज्यादा बुरा तो ट्रेनी लोगों के साथ हुआ है, जून से ही पैसा नहीं मिल रहा था इनको और देखिए कि अब रोड़ पर..इनमे से कई तो ऐसे हैं जिनके खानदान में कोई मीडिया से नहीं है कि कुछ ऐरवी-पैरवी कर सके. तभी बीच में गुलाबी शर्ट पहने एक दूसरे मीडियाकर्मी आए और मेरी और पुष्कर की तरफ इशारा करते हुए पूछा- आपलोग मीडिया दरबार से हैं ? जब उन्हे बताया कि मीडिया दरबार से नहीं हैं और कहां से हैं और कौन हैं तो अंग्रेजी में आगे की बातचीत करते हुए दो बातें कही- पहली ये कि हम एक चैनल खोलते हैं और सारे ये बेरोजगार लोगों को इसमे लगा लेंगे और दूसरा कि आपलोगों को इनके बारे में लिखना चाहिए, मुद्दे को आगे बढ़ाना चाहिए. हालात तभी बदलेंगे..मैं जो अब तक चुप था, सिर्फ इतना ही कह पाया- हम लिखने के नाम पर स्क्रैप पैदा कर रहे हैं, इससे भला क्या बदलाव होगा ! उनकी चैनल खोलनेवाली बात मुझ थोड़ी हवाबाजी और थोड़ी रजत शर्मा जैसे मीडियाकर्मी जैसे स्वप्नद्रष्टा जैसी लगी जो सैकड़ों मीडियाकर्मी को रोजगार दे पा रहे हैं. बहरहाल वो आगे अपनी बात रखते कि इससे पहले जो मीडियाकर्मी ट्रेनी की पीड़ा बयान कर रहा था और जिन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वो हमदोनों को जानता है, जोर देकर कहा- इस धरना-प्रदर्शन से कुछ हासिल नहीं हुआ है. मैनेजमेंट को कोई मैसेज नहीं गया इससे..इस पर गुलाबी शर्टवाले मीडियाकर्मी लगभग बिफरते हुए कहा- ऐसा कैसे कह सकते हो ? महीनों से जो पैसा नहीं मिल रहा था, वो तो अब मिल रहा है और दूसरा कि मालिक पर ये दवाब तो है ही कि वो चैनल बंद नहीं कर रहा है.
पिछले दो-तीन महीने से जो वेतन नहीं मिले थे, इस चार दिन के धरना-प्रदर्शन से वो पैसे मिल गए और चैनल से दर्जनों मीडियाकर्मी के निकाले जाने के बावजूद चैनल बंद नहीं होगा, इसे एक उपलब्धि के रुप में देखने की उनकी विराट दृष्टि को मैं किसी भी हाल में समझ नहीं पाया. मन में एक ही सवाल उठ रहा था कि क्या यही दो-तीन महीने की बकाया राशि को पाने और दिलवाने के लिए फेसबुक से लेकर व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को 1 नवम्बर दोपहर 12 बजे नोएडा फिल्म सिटी में जुटने का आह्वान किया जा रहा था. कोई भी स्टेटस अपडेट करें, उसमे महुआ न्यूज पर हल्ला बोल के शंखनाद किए जा रहे थे. मैं गलती से रात के दस बजे मोबाईल ऑफ करना भूल गया था और देखा कि लोग रात के साढ़े ग्यारह बजे मैसेज तो मैसेज फोन करके आने की बात कह रहे हैं…मैं कुछ कह पाता इससे पहले ही न रुकनेवाली मेरी खांसी को लेकर चिंता जताते हुए आप ही कहने लगे- आप आराम करें..स्वास्थ्य का ध्यान रखें. हम मन से चाहकर भी शारीरिक रुप से असमर्थ होने की स्थिति में जा नहीं पाए थे.
उस पूरी बातचीत में ये साफतौर पर निकल आया कि किसी को किसी भी तरह की कम्पन्सेशन नहीं दी गई है..सिर्फ और सिर्फ जितने दिन काम किए, उसकी सैलरी..अब बताइए कि ये किस तरह की जीत और किस चरह मैनेजमेंट पर चोट करनेवाली बात हुई. मुझे गुलाबी शर्टवाले मीडियाकर्मी की पूरी बातचीत से लगा कि उन्होंने आखिर में आकर जिनमे कि और भी लोग शामिल होंगे, अपनी जीत की परिभाषा इतनी छोटी कर ली कि जिसकी व्याख्या मैनेजमेंट के पक्ष में खड़े होकर बात करने या हथियार डालकर इत्मिनान हो जाने के रुप में हो सकती है. आप चाहें तो हम जैसे बैचलर को कोस सकते हैं जिन पर घर की लगभग न के बराबर की जिम्मेदारी है..(ये अलग बात है कि अपनी जिंदगी की पूरी की पूरी जिम्मेदारी है ) कि जिन्हें घर चलाना होता है वो अपनी गर्दन झुकाकर ही रहें तो गति बनी रहती है या फिर जिंदगी में आगे बढ़ना है तो ऐसे पचड़े को खत्म करना ही जरुरी है..लेकिन सवाल तो है ही न कि जब आपकी लड़ाई न्यूज पैकेज की तरह ही चमकीली और तुरंता खत्म हो जानेवाली है, आपके लिए प्रतिरोध की परिभाषा, मैनेजमेंट का चरित्र बेहद सीमित और टिक-मार्क सवालों की तरह है जिसे कि आप अपने स्तर पर व्यावहारिक समझ के साथ सुलझा ही लेते हैं तो हम जैसे लोगों का आह्वान करने और पूरे माहौल को पैनिक करने की क्या जरुरत है ? ये बात कौन नहीं जानता कि आप जब एक मीडिया संस्थान में धरने पर बैठे होते हैं, उसी समय आपके कुछ साथी धरने पर बैठते-छिटकते हुए दूसरे संस्थान में जाने की पूरी संभावना तैयार कर चुके होते हैं..ये वहां के लोगों के बीच हो रही पूरी बातचीत से निकल कर भी आ रहा था और नेटवर्क 18 से लेकर आउटलुक के मामले में हमने पहले भी देखा है. अब ऐसी स्थिति में हल्ला-बोल, क्रांति, सत्ता के दलालों जैसे भारी-भरकम शब्दों को यूं ही जाया क्यों करते हैं ?
अभी आपको इन शब्दों के प्रयोग से दो-तीन महीने की बकाया सैलरी मिल जा रही हो और चैनल बंद न होने की शुशखबरी भी आप साझा कर पा रहे हों( ये अलग बात है कि जो यहां काम कर रहा होता है, उसकी क्या गलती होती है कि बेदखल कर दिया जाए और वो भी बिना किसी कम्पन्सेशन के) लेकिन बाहर आपका अच्छा प्रहसन बनता है और मालिक के दांत और नाखून पहले से ज्यादा नुकीले और धारदार होते हैं. संघर्ष की जमीन कितनी दलदली और कमजोर होती चली जाती है, ये अलग से बताने की जरुरत नहीं है..
इधर जो मीडियाकर्मी अब तक इस प्रदर्शन से कुछ भी हासिल न होने की बात को प्रमुखता से पकड़े था, हांक लगने पर बड़े ही मसखरे अंदाज में गेट की तरफ लिफाफा लेने बढ़ता है और हाथ में लिफाफा लेकर नाचते हुए जोर-जोर से अट्टहास की मुद्रा में सर्वनामों के बीच कहता है- हमने तो कहा कि हमे सैलरी नहीं चाहिए, नौकरी चाहिए…और फिर सीनियर की तरफ रुख करके कहता है- सर हम बोल दिए कि हमको नौकरी चाहिए..तभी एक सीनियर ने टोका- तुम्हारी तो बात चल ही रही है न…में जी. हो ही जाएगा..वो अजीब सी शक्ल बनाता है और हमसे और भी कुछ बताने की मुद्रा में आगे बढ़ता है लेकिन शाम गहराती जा रही थी और इतनी देर खड़े होकर हमने पूरी स्थिति को लगभग समझ लिया कि जिस वर्चुअल स्पेस की खबरों और संदेशों को पढ़कर हम वायरल पकड़कर कचोट खाकर पड़े रहे कि ओफ्फ, हमारे मीडियाकर्मी धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं, अधिकारों की मांग के लिए लड़ रहे हैं, हम उनके साथ, उनके पक्ष में, मालिक के खिलाफ आवाज बुलंद करने में साथ नहीं दे रहे हैं.
माफ कीजिएगा, जिंदगी जिंदादिली का नाम है टाइप की शायरी के बीच मेरी ट्रेनिंग नहीं हुई है और न ही हवा-हवाई माहौल में जीवन बीत रहा है..शब्दों और घटनाओं की एक क्रूरतम जमीन पर घसीटकर हम सब आगे बढ़ रहे हैं, ऐसे में इन्होंने जो कुछ भी किया उसकी अपनी अलग-अलग व्याख्या हो सकती है लेकिन जो प्रभाव और भारीपन लेकर मेट्रो की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए समझ पाया, वो ये कि मीडियाकर्मी प्रतिरोध और आंदोलन करते हुए भी हमे एहसास करा जाते हैं कि कहीं कुछ नहीं बदलेगा, जो है जैसा है वैसा ही चलेगा..अगर ये कठोर सच है फिर भी ऐसे विरोध प्रदर्शन के बीच रत्तीभर ही सही इसके ठीक विपरीत के उम्मीद का बचा रहना कितना जरुरी है, शायद वक्त रहते जाना जा सकेगा.
Aise Baniya ki dukan par news bechne se aaccha hai appni chai ki dukan khol lo Media ke bandhuon….Jo apni ladai nahi lad sakte wo kya sach ke lie ladenge…