तहलका की जुबानी जस्टिस काटजू की कहानी

Justice Katju

प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू जब से आए हैं, विवादों में है. सुर्खियाँ और विवाद उनके साथ चलते हैं. कोई ऐसा महीना नहीं बीतता जब उनका कोई बयान विवाद का विषय न बना हो. यही कारण है कि मीडिया का बड़ा धड़ा उनका घोर विरोधी हो चुका है. IBN-7 के आशुतोष उनका नाम लेते आवेश की मुद्रा में आ जाते हैं तो ब्रॉडकास्टर एडिटर एसोसियेशन के महासचिव एन.के.सिंह उनसे पंजा लड़ाने के लिए बेताब रहते हैं. बहरहाल इन्हीं विवादों और लगातार सुर्ख़ियों में रहने के कारण ‘तहलका’ ने उनपर आवरण कथा की. लेकिन इसमें भी दिलचस्प मोड़ तब आया जब तहलका हिंदी के द्वारा जस्टिस काटजू से साक्षात्कार  का समय माँगा गया तो उन्होंने सिर्फ तरुण तेजपाल या फिर शोमा चौधरी(तहलका अंग्रेजी पत्रिका की प्रबंध संपादक) से ही बात करने की शर्त रखी. जस्टिस काटजू पर तहलका में प्रकाशित आवरण कथा. राहुल कोटियाल की रिपोर्ट (मॉडरेटर)

 

बात 1967 की है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एक छात्र एलएलबी के अंतिम वर्ष की परीक्षा दे रहा था. इस छात्र का परिवार शहर के सबसे प्रभावशाली घरानों में से था. दादा श्री कैलाश नाथ काटजू मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और दो विभिन्न राज्यों के राज्यपाल रह चुके थे. केंद्र सरकार में भी वे पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री का पद संभालने के साथ-साथ केंद्रीय गृहमंत्री एवं रक्षामंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर अपनी सेवाएं दे चुके थे. इस छात्र के पिता उस वक्त इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे. अब इस छात्र को अपने परिवार में तीसरी पीढ़ी का वकील बनना था. अंतिम वर्ष की परीक्षाओं में इस छात्र ने पूरे विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक हासिल करके वकालत की डिग्री हासिल की. अपनी पारिवारिक विरासत संभालने की योग्यता अब यह युवा हासिल कर चुका था. लेकिन इसकी इच्छा वकालत करने की नहीं बल्कि समाज के लिए कुछ सार्थक करने की थी. अपनी इसी इच्छा के चलते इस युवक ने एक शिक्षक बनने की सोची और मामूली-से वेतन पर एक गांव में जाकर बच्चों को पढ़ाने लगा. एक इतने प्रभावशाली परिवार के इस युवा ने जब अपनी विरासत को छोड़ कर शिक्षक बनने का फैसला लिया होगा तो शायद खुद उसने भी नहीं सोचा होगा कि भविष्य में उसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश और भारतीय प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनना है.

जस्टिस मार्कंडेय काटजू के जीवन का यह पहलू शायद आपके लिए नया हो लेकिन उनका नाम तो आप निश्चित ही कई बार और शायद रोज ही सुनते होंगे. आज यदि टीवी, अखबार, रेडियो, इंटरनेट या किसी भी अन्य माध्यम से सूचनाएं आप तक पहुंच रही हैं तो जस्टिस काटजू भी जरूर आप तक लगातार पहुंच रहे होंगे. वैसे तो सर्वोच्च न्यायालय से अब तक सैकड़ों न्यायाधीश रिटायर हो चुके हैं और उनमें से कुछ भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष भी रह चुके हैं लेकिन आपने शायद उनका नाम भी न सुना हो. यदि आपसे पूछा जाए कि जस्टिस काटजू से पहले भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष रहे किसी न्यायाधीश का नाम बताएं तो शायद दिमाग पर काफी जोर देकर भी आपको कोई नाम याद न आए. लेकिन देश में रहते हुए भी यदि आपने जस्टिस काटजू का नाम नहीं सुना तो यकीन मानिए आप सूचनाओं के इस दौर में कहीं बहुत पीछे छूट चुके हैं.

जस्टिस काटजू आज एक ऐसा नाम बन चुके हैं जिनके पास हर मुद्दे पर बोलने को बहुत कुछ है. कभी आप उनके बयानों से सहमत हो सकते हैं तो कभी वे आपको नाराज भी कर सकते हैं. लेकिन किसी भी मुद्दे पर उनके बयानों से आप अछूते नहीं रह सकते. उनके बारे में अलग-अलग लोगों की राय भी अलग-अलग ही है. काफी हद तक यह भी संभव है कि आप उनके बारे में एक राय कभी बना भी न पाएं क्योंकि जब तक आप उनके एक बयान का विश्लेषण करके उसको समझने की कोशिश करें, उनका कोई और बयान आपकी अब तक की समझ को बिल्कुल पलट कर रख सकता है. वैसे जस्टिस काटजू खुद भी इस बात को जानते हैं कि लोग उनको समझ नहीं पा रहे हैं और उनके बारे में अलग-अलग राय रखते हैं. इसलिए गुजरे साल के अंत में उन्होंने खुद ही अपने बारे में समझाते हुए अपने ब्लॉग पर लिखा, ‘मुझे कई तरीकों से वर्णित किया गया है जैसे कि एक सनकी, पागल, आवारा, जंगली, प्रचार का भूखा और यहां तक कि एक कुत्ता (एक मुख्यमंत्री द्वारा) जो दुनिया के हर मुद्दे पर टिप्पणी करता है. लेकिन मैं सच में कौन हूं? मैं किसके लिए बोलता हूं? चूंकि नया साल आ रहा है इसलिए मुझे लगता है कि मेरे विचारों के स्पष्टीकरण का भी यह सही समय है… मैं बताना चाहता हूं कि मेरे विचार तर्कसंगत, स्पष्ट और एकमात्र उद्देश्य के प्रति केंद्रित हैं और वह उद्देश्य है मेरे देश की समृद्धि और उसके नागरिकों को एक सभ्य जीवन देने में मदद करना.

ऐसा नहीं है कि प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनने के बाद ही जस्टिस काटजू ने अपनी बेबाक राय देना शुरू किया हो. एक न्यायाधीश रहते हुए भी वे कई ऐसे ऐतिहासिक फैसले दे चुके हैं जो सारे देश में चर्चा का विषय बने. जैसा कि जस्टिस काटजू ने अपने ब्लॉग में लिखा है, ‘कई लोग कहते हैं कि जस्टिस काटजू को चर्चाओं में बने रहना आता है और वे कई सालों से ऐसा करते आ रहे हैं. लेकिन उनको नजदीक से जानने वाले सभी लोग यह मानते हैं कि वे चर्चा में रहने के लिए कुछ भी नहीं करते बल्कि उनमें कई ऐसी बातें हैं जो उन्हें बाकी सबसे अलग करती हैं.,  जस्टिस काटजू के साथ वकालत की पढ़ाई करने वाले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता टीपी सिंह बताते हैं, ‘जस्टिस काटजू छात्र जीवन से ही सामाजिक मुद्दों को लेकर बेहद संवेदनशील थे. वकालत करने के बाद, इतने संपन्न परिवार से होने के बावजूद वे गांव में बच्चों को पढ़ाते थे. वे एक छोटे-से कमरे में अकेले रहते थे और अपना खाना खुद ही बनाते थे. अपने सभी काम उस दौरान वे खुद ही किया करते थे. यह बात अधिकतर लोगों को मालूम भी नहीं है. तो ऐसा नहीं है कि वे चर्चा में रहने के लिए ही सबकुछ करते हों.’ जस्टिस काटजू के साथ वकालत कर चुके एक अन्य अधिवक्ता बताते हैं कि वे हमेशा ही समाज के लिए कुछ करना चाहते थे और इसका रास्ता भी वे खुद ही तैयार करना चाहते थे. इलाहाबाद उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के वरिष्ठ उपाध्यक्ष वीएस सिंह बताते हैं, ‘उनका मानना था कि मुझे अपने पिता जी के रास्ते पर नहीं चलना बल्कि एक शिक्षक के तौर पर सामाजिक हितों के लिए काम करना है. कुछ समय बाद उन्होंने महसूस किया कि वकालत के माध्यम से समाज की ज्यादा बेहतर सेवा की जा सकती है तो उन्होंने वकालत शुरू कर दी. वकील रहते हुए भी वे अक्सर कहते थे कि मुझे जब भी मौका मिलेगा मैं अपने स्तर से लोगों के लिए काम करूंगा. जज बनने के बाद उन्होंने कई ऐतिहासिक फैसले देकर अपनी बात को साबित भी किया.’

जस्टिस काटजू के बारे में एक सवाल जो शायद सभी के मन में आता होगा वह है कि आखिर वे चाहते क्या हैं. काटजू 40 साल से ज्यादा लबें समय से कानून के क्षेत्र से जुड़े रहे हैं और यदि उनके न्यायिक कार्यकाल में दिए गए फैसलों और बयानों के आधार पर आप उनको समझना चाहें तो उनके कई रूप आपके सामने आएंगे. कभी वे आपको प्रगतिशील लग सकते हैं, तो कभी रूढ़िवादी, कभी शांत और सौम्य तो कभी जोशीले और मुंहफट. वरिष्ठ अधिवक्ता वीएस सिंह जस्टिस काटजू द्वारा दिए गए एक फैसले के बारे में बताते हैं, ‘आज से लगभग 20-22 साल पहले मेरा एक मुकदमा जस्टिस काटजू की कोर्ट में लगा था. मामला प्रेम विवाह का था. एक लड़का और लड़की घर से भाग गए थे और शादी करना चाहते थे. उस दौरान घर से भागकर शादी करना बहुत ही असामान्य बात थी. हमारा समाज बिल्कुल भी इस बात की इजाजत नहीं देता था. लड़के वाले भी दहेज के लालच में ऐसा नहीं होने देते थे. लेकिन जस्टिस काटजू ने मेरे मुवक्किलों को पूरा संरक्षण देते हुए कहा कि यदि दोनों बालिग हैं तो कोई उन्हें शादी करने से नहीं रोक सकता.’ अधिवक्ता सिंह आगे बताते हैं, ‘महिला अधिकारों और मानवाधिकारों पर आज तो कई कार्यक्रम हो रहे हैं लेकिन जस्टिस काटजू इन बातों को कई साल पहले से करते आ रहे हैं. वे हमेशा से ही दूरदर्शी रहे हैं और उन्होंने समय से आगे की बात कही है.’ इन बातों से आप जस्टिस काटजू में प्रगतिशील व्यक्ति की छवि देख सकते हैं.

एक जज रहते हुए उनके व्यवहार से भी यदि आप उनको समझना चाहें तो उनके साथी टीपी सिंह की बातें आपके लिए काफी दिलचस्प साबित हो सकती हैं. वे बताते हैं, ‘जस्टिस काटजू हमेशा से ही आम आदमी के जज रहे हैं. जज रहते हुए वे जब सुबह टहलने निकलते थे तो सड़क पर बैठे लोगों की बात सुनते थे. कभी सड़क किनारे आग ताप रहे लोगों के साथ ही बैठ जाया करते थे. लोगों को पता भी नहीं होता था कि वे एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं. इस तरह से वे अपने देश के हालात एक आम आदमी की नजरों से देखने को हमेशा तैयार रहते थे.’

जस्टिस काटजू को यदि आप उनके हाल के दिनों में दिए गए साक्षात्कारों से समझने की कोशिश करें तो आपको लगेगा कि वे अक्सर सामने वाले को डांट दिया करते हैं. पिछले दिनों जाने-माने टीवी पत्रकार दीपक चौरसिया पर जिस तरह से वे बिफरे और साक्षात्कार बीच में रोककर जिस तरह उन्होंने चौरसिया को गेट आउट  तक कह डाला, यह देखकर किसी को भी लग सकता है कि गुस्सा शायद हर वक्त जस्टिस काटजू की नाक पर सवार रहता है. वैसे उनकी यह आदत काफी पुरानी है और शायद आज भी वे अपने न्यायाधीश वाले रोब से बाहर नहीं आ पा रहे हैं. उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के उपाध्यक्ष इंद्र कुमार चतुर्वेदी बताते हैं, ‘सुनवाई के दौरान वे कई बार वकीलों को यह तक कह डालते थे कि वकालत नहीं होती तो जाकर पकोड़ियां बेचो. लेकिन उनका गुस्सा बेवजह नहीं होता था. वे पूरी तैयारी से अपनी अदालत में आते थे. कानून पर उनकी समझ और ज्ञान का भी कोई मुकाबला नहीं है. ऐसे में अगर कोई वकील बिना तैयारी के उनके सामने पहुंच जाए और उनके सवालों का सही जवाब न दे पाए तभी वे गुस्सा करते थे.’ चतुर्वेदी जी आगे बताते हैं, ‘लेकिन वे दिल के बहुत ही भले हैं. कोर्ट के बाद वकीलों को अपने पास बुलाकर माफी भी मांग लिया करते थे. इलाहाबाद के वकील तो उनकी इस आदत से परिचित थे, इसलिए उनके डांटने का कोई बुरा भी नहीं मानता था. सभी वकील उनका बहुत सम्मान करते हैं.’

वैसे जस्टिस काटजू के जीवन की कई बातें आपको यह भी आभास कराती हैं कि वे जनता के प्रति बहुत ही नम्र हैं. 2005 में मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए जब उन्होंने न्यायालय की अवमानना से संबंधित एक बयान दिया तो सारे देश में उनकी खूब वाहवाही हुई. उन्होंने एक आयोजन में कहा, ‘गणतंत्र की मूल भावना है कि यहां जनता सर्वोपरि होती है. जज, नेता, मंत्री, अफसर सभी जनता के सेवक हैं. हमें जनता का सेवक होने पर गर्व होना चाहिए. चूंकि जनता हमारी मालिक है, इसलिए उन्हें यह भी अधिकार है कि अगर हम अच्छा काम नहीं करें तो वह हमारी निंदा कर सकती है. हमें ऐसी निंदा से नाराज नहीं होना चाहिए. हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारी शक्तियां जनता के विश्वास पर ही टिकी हैं, न्यायालय की अवमानना के दोष में सजा देने के अधिकार पर नहीं.’ जस्टिस काटजू के इस बयान की जमकर प्रशंसा हुई. मशहूर कानूनविद फाली एस नरीमन ने उनके इस बयान के बाद एक लेख लिखा. अपने लेख में उन्होंने लिखा कि जस्टिस काटजू एक ऐसे न्यायाधीश हैं जो अवमानना के दायरों से कहीं ऊपर हैं. उन्होंने यह भी लिखा कि आज यदि शेक्सपियर जिंदा होते तो कहते, ‘एक सच्चा न्यायकर्ता अब न्याय करने आया है. हां, एक सच्चा न्यायकर्ता. ओ ज्ञानी न्यायाधीश, मैं किस तरह से तुम्हारा सत्कार करूं.’

जस्टिस काटजू के बारे में यह जानकर यदि आप उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में बना रहे हैं जो जनता के प्रति बहुत ही विनम्र हैं और जिसमें अपने पद को लेकर जरा भी अहंकार नहीं तो आपको उनका दूसरा पक्ष भी जानना जरूरी है. यह बात 2011 की है. जस्टिस काटजू अब सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे. किसी व्यक्ति ने सूचना के अधिकार के तहत सर्वोच्च न्यायालय से कुछ सूचना मांगी.

सूचना का संबंध जस्टिस काटजू से भी था इसलिए सूचना अधिकारी ने उन्हें इस संबंध में एक पत्र लिखा. जस्टिस काटजू इस पत्र से इतना नाराज हुए कि उन्होंने सूचना के अधिकार पर ही लगाम लगाने की बात कह डाली. इस बारे में जस्टिस काटजू ने कहा, ‘सूचना अधिकारी मुझे पत्र लिखकर कहते हैं कि 24 घंटे के अंदर सूचना दें. मैं सूचना देने से इनकार नहीं कर रहा लेकिन यह कोई तरीका है? यह तो बेहूदापन है. मैं सुप्रीम कोर्ट का एक जज हूं. मुझसे कुछ पूछना है तो मेरे सेक्रेटरी से समय लो और जब मैं फुर्सत में रहूं तो आकर बात करो. मैं कोई चपरासी हूं क्या, जो मुझसे ऐसे पूछा जाए. इस सूचना के अधिकार ने सरकारी कर्मचारियों की नाक में दम कर दिया है. इस अधिकार को संशोधित करके इसे सीमित करने की जरूरत है.’ जो जस्टिस काटजू खुद को जनता का सेवक मानते हैं और इस बात पर गर्व भी करते हैं, वही सिर्फ एक सूचना मांगने पर आपको यह भी याद दिला देते हैं कि वे कोई चपरासी नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश हैं.

जस्टिस काटजू के व्यवहार में ऐसे विरोधाभास आपको कई बार नजर आते हैं. भ्रष्टाचार के विरोध में जब सारा देश अन्ना हजारे के नेतृत्व में सड़कों पर उतर आया था तो जस्टिस काटजू ने इसे सिरे से निरर्थक घोषित कर दिया. उनका मानना था कि अन्ना-अरविंद जैसे लोग सिर्फ मीडिया द्वारा बनाए गए हैं और इनकी कोई वैज्ञानिक सोच नहीं है. जस्टिस काटजू का कहना था, ‘आप सड़कों पर भारत माता की जय और वंदे मातरम जैसे नारों का शोर मचा लीजिए लेकिन इससे भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है. मैंने जन लोकपाल कानून पढ़ा है. यह कानून भ्रष्टाचार को खत्म करने की जगह एक पल में ही दोगुना कर देगा.’ अपने इन बयानों के समर्थन में उन्होंने एक लेख भी लिखा और जन लोकपाल की अपने तरीकों से व्याख्या की. अन्ना आंदोलन की शेक्सपियर के शब्दों में व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा, ‘अ टेल टोल्ड बाई एन ईडियट, फुल ऑफ साउंड ऐंड फ्यूरी, सिग्नीफाइ नथिंग (एक बेवकूफ द्वारा कही गई ऐसी कहानी जिसमें सिर्फ शोर-शराबे के सिवा कुछ नहीं है).’ जो लोग यह मान रहे थे कि अन्ना आंदोलन में शामिल होने वाले लोग सिर्फ क्षणिक आवेश में आकर ऐसा कर रहे हैं, उन्होंने जस्टिस काटजू के इस बयान का समर्थन भी किया. उनके इस बयान से आप भी कुछ देर को यह मान सकते हैं कि जस्टिस काटजू अच्छे से सोच-समझकर चीजों का आकलन करने के बाद ही अपनी राय देते हैं. लेकिन आपकी इस सोच को भी जस्टिस काटजू ज्यादा देर टिकने नहीं देते.

कोर्ट में निर्णय देते हुए वे कई बार ऐसे ही क्षणिक आवेश में बहुत कुछ बोल चुके हैं. विशेष तौर पर जब उन्होंने 2007 में एक मामले की सुनवाई के दौरान भ्रष्टाचारियों को सार्वजनिक रूप से फांसी देने को कहा था तो पूरे देश में यह चर्चा का विषय बन गया था. उन्होंने कहा था, ‘हर कोई इस देश को लूटना चाहता है. ऐसे भ्रष्ट लोगों को सार्वजनिक तौर पर बिजली के खंभों पर लटका कर फांसी दी जानी चाहिए. कानून हमें ऐसा करने की अनुमति नहीं देता वरना हम यही पसंद करते कि भ्रष्ट लोगों को फांसी दे दी जाए.’ ऐसे ही उदहारण उनके जीवन से तब भी मिलते हैं जब वे सर्वोच्च न्यायालय में रहते हुए सभी जिला एवं उच्च न्यायालयों को ऑनर किलिंग के मामलों में फांसी देने के निर्देश दे डालते हैं, या जब फर्जी एनकाउंटर में आरोपित पुलिस वालों को फांसी देने की बात करते हैं. जस्टिस काटजू का जोश में आकर ऐसे बयान देना इतना चर्चित हो चुका था कि सर्वोच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता बताते हैं, ‘अक्सर पत्रकार उनकी अदालत में आकर बैठ जाते थे कि न जाने कब वे कुछ बोल जाएं और उन्हें अगले दिन की हेडलाइन मिल जाए. इसीलिए वे जज रहते हुए भी इतने चर्चित रहे हैं.’ ऐसे ही जोश में बोलने पर जस्टिस काटजू तब भी विवाद खड़ा कर चुके हैं जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहते हुए वे कोर्ट में बोल पड़े थे, ‘बीवी की हर बात सुना करो. यह समझने की कोशिश मत करो कि वह बात सही है या नहीं. बस उसे चुपचाप सुन लिया करो. हम सब भोगी हैं.’ लेकिन आपको यह भी बता दें कि उनके ऐसे बयानों के बीच भी उनकी बौद्धिकता की तारीफ हमेशा हुई है. इसीलिए उनके कोर्ट के किस्से अगर मनोरंजक हैं तो उनके फैसलों में बौद्धिकता की छौंक भी खूब देखने को मिलती है. भारत के अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती का उनके कोर्ट के बारे में कहना था, ‘जस्टिस काटजू के कोर्ट में एक पल भी सुस्ती भरा या मंद नहीं होता था.’

जस्टिस काटजू के बारे में कोई राय बनाना इसलिए भी मुश्किल हो जाता है कि विरोधाभास उनके जीवन के हर पहलू में आपको नजर आते हैं. जब वे उड़ीसा सरकार को फटकारते हुए कहते हैं, ‘यदि तुम अल्पसंख्यकों को संरक्षण नहीं दे सकते तो त्यागपत्र दे दो’, तो आपको यह महसूस होता है कि वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों और उनके संरक्षण के प्रति बहुत ही समर्पित हैं. यही एहसास वे आपको तब भी करवाते हैं जब हज यात्रा के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को असंवैधानिक घोषित करने की याचिका को वे ठुकरा देते हैं और फैसले में स्पष्ट करते हैं कि कैसे एक विशेष समूह को दी जाने वाली यह रियायत बिल्कुल संवैधानिक है. लेकिन धार्मिक अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने वाले उनके व्यवहार पर तब आपको कुछ संदेह जरूर होता है जब वे मध्य प्रदेश के छात्र मोहम्मद सलीम की याचिका को खारिज कर देते हैं. मोहम्मद सलीम मध्य प्रदेश के निर्मला कॉन्वेंट हाई स्कूल का एक छात्र था. इस छात्र को स्कूल से इसलिए निकाल दिया गया था कि उसने अपनी दाढ़ी कटवाने से इनकार कर दिया था. स्कूल के इस फैसले के खिलाफ सलीम जस्टिस काटजू की अदालत में पहुंचा. जस्टिस काटजू ने उसकी याचिका को ठुकराते हुए कहा, ‘मुस्लिम छात्रों को दाढ़ी बढ़ाने की अनुमति हम नहीं दे सकते. ऐसा करने से देश का तालिबानीकरण होगा.’ इस बयान पर देश भर में विवाद हुआ. बाद में जस्टिस काटजू ने अपना यह फैसला वापस लेते हुए कहा कि हमारा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं था.

विरोधाभासों का यह सिलसिला जस्टिस काटजू के वर्तमान कार्यकाल में दिए हाल के बयानों में भी दिखता है. एक तरफ वे सचिन तेंदुलकर के सौवें शतक और देव आनंद की मौत को टीवी पर ज्यादा समय दिए जाने का पुरजोर विरोध करते हैं तो दूसरी तरफ सन्नी लिओन के समर्थन में उतरते हुए भी नजर आते हैं. इन तमाम बातों के बाद भी आप एक बात तो उनके बारे में मान ही सकते हैं कि जस्टिस काटजू एक ऐसी लहर है जो हमेशा मुख्यधारा के विपरीत ही बहती है. जब सारा देश अन्ना हजारे के पीछे होता है तो वे इसके विपरीत बात करते हैं. जब दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार पर देश के युवा सड़कों पर लाठियां खाते हैं तो वे कहते हैं कि इनके लिए बलात्कार ही देश की सबसे बड़ी समस्या बन गई है, जबकि हकीकत कुछ और है. वे लगभग देश में चल रही हर बहस में शामिल हैं और कई बहस तो स्वयं उनसे ही शुरू होती हैं. उनके बयान अक्सर कोई न कोई विवाद खड़ा कर ही देते हैं. इस संदर्भ में वे अपनी सफाई देते हुए लिखते हैं, ‘मैं विवादों से दूर रहना चाहता हूं. लेकिन मेरी एक कमजोरी है कि मैं देश को गिरते हुए देखकर भी शांत नहीं रह सकता. भले ही बाकी लोग गूंगे और बहरे हों लेकिन मैं नहीं हूं. इसलिए मैं तो बोलूंगा. जैसा कि फैज़ साहब ने कहा है कि बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल कि जुबां अब तक तेरी है.’  हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है, सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यं अप्रियं. इसका मतलब है कि सत्य बोलो, प्रिय बोलो लेकिन अप्रिय सत्य मत बोलो. मैं इसमें कुछ बदलाव करना चाहता हूं. आज देश के हालात ऐसे हैं कि हमें कहना चाहिए ब्रूयात सत्यं अप्रियं मतलब अप्रिय सत्य भी बोलो.’ और यह व्याख्या करते हुए उन्होंने एक ऐसा ही ‘अप्रिय सत्य’ बोल डाला कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं. इस बयान के साथ ही जस्टिस काटजू एक बार फिर से देश भर में चर्चा का विषय बन गए. बल्कि इस बार तो लखनऊ के दो छात्रों ने उन्हें इस बयान के लिए कानूनी नोटिस भी भेज दिया. जस्टिस काटजू ने फिर सफाई देते हुए बताया कि किस आधार पर वे 90 प्रतिशत भारतीयों को मूर्ख बता रहे हैं.

जस्टिस काटजू के बयानों से आप चाहें तो लखनऊ के छात्रों की तरह नाराज हो सकते हैं या फिर आप भी उन 90 प्रतिशत भारतीयों में शामिल हो सकते हैं जिन्होंने खुद को जस्टिस काटजू के 10 प्रतिशत समझदार लोगों में मानते हुए विवाद को शांत होने दिया. जस्टिस काटजू के ऐसे बयानों के बारे में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रवीण पारिख बताते हैं, ‘जस्टिस काटजू बहुत ज्यादा बोलते हैं. अब जो व्यक्ति इतना ज्यादा बोलेगा वह विवाद तो पैदा करेगा ही. वैसे वे बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति हैं और कई मुद्दों पर उनकी जो समझ है उसका कोई मुकाबला नहीं. जस्टिस काटजू दिल के साफ हैं लेकिन बोलते बहुत ज्यादा हैं.’

बीते कुछ दिनों से जस्टिस काटजू के बारे में यह भी कहा जाने लगा है कि वे कांग्रेस के पक्षधर हैं और सिर्फ गैरकांग्रेसी सरकारों पर ही टिप्पणी करते हैं. गुजरात में हो रहे विकास को दिखावा बताते हुए उन्होंने मोदी सरकार की जमकर निंदा की है. नरेंद्र मोदी पर सवाल उठाता उनका एक लेख सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पकिस्तान के अखबार में भी छपा. इस पर भाजपा ने उन पर आरोप लगाया कि काटजू पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं. इसके साथ ही बिहार के बारे में टिप्पणी करते हुए काटजू ने लिखा कि वहां प्रेस को कुछ भी लिखने की अनुमति नहीं है और बिहार सरकार विज्ञापनों का लालच देकर वहां की प्रेस को नियंत्रित कर रही है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तो उन्होंने यह तक कह डाला कि वे नंद वंश के आखिरी शासक घनानंद की तरह काम कर रहे हैं और यदि समय रहते वे नहीं सुधरे तो उनकी भी हालत घनानंद जैसी ही होना तय है. ऐसे बयानों पर भाजपा ने उन पर आरोप लगाए कि वे इसलिए गैरकांग्रेसी सरकारों पर हमला कर रहे हैं क्योंकि वे कांग्रेस सरकार का एहसान उतार रहे हैं. अरुण जेतली उनके बारे में कहते हैं कि कांग्रेस सरकार ने उन्हें रिटायर होने के बाद प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनाकर उपकृत किया है और वे इसी के एवज में भाजपा पर हमला कर रहे हैं.

इस बारे में वरिष्ठ अधिवक्ता वीएस सिंह बताते हैं, ‘काटजू कांग्रेस सरकार की भी उतनी ही निंदा करते हैं जितनी कि गैर-कांग्रेसी सरकारों की. लेकिन जब उन पर ये आरोप लगे कि वे कांग्रेस के खिलाफ नहीं बोलते और कांग्रेस के नेताओं ने जस्टिस काटजू का बचाव किया तो यह बात और ज्यादा उनके खिलाफ चली गई. लोगों को लगा कि कांग्रेस के लोग यदि काटजू का बचाव कर रहे हैं तो जरूर उनका कोई आपसी संबंध होगा.’ भारतीय प्रेस परिषद के ही एक सदस्य राजीव रंजन नाग भी उनकी निष्पक्षता के बारे में कहते हैं, ‘जस्टिस काटजू ने जो कुछ भी लिखा है वह तथ्यों के आधार पर ही लिखा है. उनको लिखने का उतना ही अधिकार है जितना कि भारत के किसी भी अन्य नागरिक को. यदि उनके लेखों में कोई झूठ या गलत तथ्य है, तब उन पर सवाल उठाए जा सकते हैं. लेकिन उन्होंने तो सरकारी आंकड़ों के आधार पर बातें कही हैं.’ वैसे आप उनके कुछ बयानों में कांग्रेसी पक्षधरता देख सकते हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि उन्होंने महाराष्ट्र, दिल्ली और केंद्र की कांग्रेसी सरकार पर भी जमकर प्रहार किए हैं. बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद जब महाराष्ट्र की दो लड़कियों को सिर्फ फेसबुक पर कुछ टिप्पणी करने पर गिरफ्तार कर लिया गया था तो जस्टिस काटजू ने ही सबसे पहले इसका मुखर विरोध किया था. अन्ना हजारे के आंदोलन के समर्थन में कार्टून बनाने वाले असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी हो या अफज़ल गुरु की फांसी पर इफ्तिखार गिलानी की गिरफ्तारी, मानवाधिकार उल्लंघन के ऐसे मामलों पर सबसे पहले बोलने वालों में से काटजू भी एक बड़ा नाम रहे हैं.

जस्टिस काटजू को समझने में आप इसलिए भी भूल कर सकते हैं कि उनसे जुड़ी कई बातें शायद आप तक पहुंची ही न हों. मसलन ज्यादातर लोगों को यह तो पता है कि जून, 2011 में सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था. इस पत्र में उन्होंने प्रधानमंत्री से अपील की थी कि पाकिस्तानी कैदी खलील चिश्ती को रिहा कर दिया जाए. उनका कहना था कि चिश्ती की उम्र बहुत ज्यादा है और मद्रास उच्च न्यायालय से उनका फैसला होने से पहले उनकी मृत्यु भी हो सकती है. खलील चिश्ती हत्या के आरोपित थे और कई साल से भारत में कैद थे. यह पत्र उन्होंने व्यक्तिगत हैसियत से प्रधानमंत्री को लिखा था. भाजपा ने इस बात की निंदा की. रविशंकर प्रसाद ने इस पत्र के संबंध में कहा, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश प्रधान मंत्री से एक पाकिस्तानी कैदी की रिहाई की मांग कर रहा है. भले ही वे व्यक्तिगत हैसियत से यह पत्र भेज रहे हों लेकिन एक हत्या के आरोपी की ऐसी सिफारिश करना गलत है.’ मीडिया में भी इस पत्र की काफी चर्चा हुई. लेकिन जब इसी तरह का एक पत्र उन्होंने पाकिस्तान सरकार को एक भारतीय कैदी की रिहाई के लिए लिखा तो उसकी चर्चा न के बराबर ही हुई. 2010 में जस्टिस काटजू ने पाकिस्तान सरकार को एक पत्र लिखा था. यह पत्र गोपाल दास की रिहाई से संबंधित था जो पिछले 27 साल से पाकिस्तान में जासूसी के आरोप में कैद थे. जस्टिस काटजू ने इस संबंध में कहा कि पाकिस्तान सरकार को निर्देश देना तो हमारे क्षेत्राधिकार में नहीं है लेकिन हम उनसे अपील जरूर कर सकते हैं. अपनी अपील में उन्होंने मानवता के आधार पर गोपाल दास को रिहा करने की बात कही. साथ ही उन्होंने अपने पत्र में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पंक्तियों का जिक्र करते हुए लिखा, ‘कफ़स उदास है, यारो सबा से कुछ तो कहो. कहीं तो बहर-ए-खुदा आज जिक्र-ए-यार चले.’ पाकिस्तान सरकार ने इस पत्र का संज्ञान लिया और राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने गोपाल दास की सजा माफ़ करते हुए उन्हें रिहा कर दिया.

जब से काटजू भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष बने हैं तब से शायद ही कोई ऐसा महीना बीता हो जब उनका नाम सुर्खियों में न रहा हो. राजीव रंजन नाग इसको सकारात्मक पहलू से देखते हुए बताते हैं, ‘जस्टिस काटजू ने इतना तो जरूर कर दिया है कि प्रेस परिषद को एक जुबान दे दी है. आज से पहले लोग प्रेस परिषद् के बारे में कितना सुनते थे? आज आलम यह है कि हर किसी की जुबान पर जस्टिस काटजू और प्रेस परिषद का नाम है.’ राजीव जी की इन बातों से आप जस्टिस काटजू की सकारात्मक छवि देख सकते हैं या फिर प्रेस परिषद के ही एक अन्य सदस्य प्रकाश जावडेकर की बातों से आप काटजू का दूसरा पक्ष भी देखने की कोशिश कर सकते हैं. प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं, ‘प्रेस परिषद के अध्यक्ष के पद पर रहते हुए उनके द्वारा ऐसे राजनीतिक बयान देना उचित नहीं हैं. उन्हें यदि राजनीति करनी है तो हमें कोई परेशानी नहीं लेकिन एक अर्धन्यायिक पद पर रहते हुए उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. मुद्दा यह नहीं है कि ऐसे बयान देने पर या लेख लिखने पर कानूनन उनको रोका जा सकता है या नहीं. लेकिन क्या आपने कभी किसी न्यायाधीश को इस तरह के राजनीतिक बयान देते देखा है? वे ऐसे दोहरे मापदंड नहीं अपना सकते कि कभी कहें मैं भारतीय नागरिक होने की हैसियत से लिख रहा हूं और कभी कहें कि मैं तो भारतीय प्रेस परिषद का अध्यक्ष हूं.’

जस्टिस काटजू ने पिछले कुछ समय में लगभग हर मुद्दे पर अपनी राय रखी है. कभी उन्होंने 90 प्रतिशत भारतीयों को मूर्ख बताया तो कभी ममता बनर्जी को तानाशाह कहा. कभी नीतीश कुमार को घनानंद घोषित किया तो कभी कहा कि राजेश खन्ना जिंदा हैं या नहीं इससे क्या फर्क पड़ता है. कश्मीर समस्या का समाधान भी वे अलग ही तरीकों से देखते हैं. वे कहते हैं ‘इस समस्या का समाधान सिर्फ भारत-पकिस्तान विलय में है और मैं टू नेशन थ्योरी  में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करता.’ उनके ऐसे बयानों से आप यह भी मान सकते हैं कि वे सिर्फ प्रचार के लिए ही ऐसे बयान देते हैं. या फिर उनके बयानों की गहराई में जाते हुए आप उनमें तर्क भी ढूंढ़ सकते हैं. जस्टिस काटजू को जानने वाले लोग बताते हैं कि वे बहुत ज्यादा पढ़ते हैं. सिर्फ कानून और न्यायशास्त्र की ही नहीं बल्कि उन्हें संस्कृत, उर्दू, इतिहास, विज्ञान, दर्शनशास्त्र और समाजशास्त्र की भी गहरी जानकारी है. राजीव रंजन कहते हैं, ‘मैं जस्टिस काटजू का कोई भक्त नहीं हूं लेकिन उनकी कई विषयों पर जो जानकारी है उसका कोई मुकाबला नहीं. अन्य न्यायाधीशों को आम तौर पर कानून की ही जानकारी होती है लेकिन जस्टिस काटजू और भी कई विषयों को गहराई से समझते हैं. यही कारण है कि वे हर मुद्दे पर अपनी राय रखते हैं. उनके हर बयान और टिप्पणी के पीछे मजबूत तर्क होते हैं जिन्हें आप नकार नहीं सकते. उन्होंने जब यह भी कहा कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं तो उसमें भी उनके तर्क समझने लायक थे. उन्होंने बताया कि सिर्फ जाति के आधार पर फूलन देवी जैसे लोग संसद तक पहुंच जाते हैं तो उनको वोट देने वाले मूर्ख नहीं तो क्या हैं. जब ऐसे लोग ही संसद में आएंगे तो कानून भी वैसा ही बनाएंगे जैसे वे स्वयं हैं.’

इन सब जानकारियों के आधार पर आप जस्टिस काटजू को ज्ञानी, बेबाक, दूरदर्शी, बातूनी, प्रचार का भूखा या संयमहीन कुछ भी मान सकते हैं. लेकिन अब भी आप यदि उनको ठीक से नहीं समझ पाए हैं तो आपको उनका एक और सबसे नया किस्सा भी बता दें. तहलका ने जब उनके जीवन पर आधारित स्टोरी करने का विचार किया तो उनसे साक्षात्कार के लिए समय लेना चाहा. पहले तो उनके सचिव एसपी शर्मा ने यह कहते हुए साफ इनकार कर दिया , ‘इस बीच काफी विवाद हो चुके हैं और इसलिए जस्टिस काटजू अब मार्च के अंत तक कोई भी साक्षात्कार नहीं देंगे.’ उन्हें यह समझाने पर कि हम किसी एक मुद्दे पर नहीं बल्कि उनके जीवन पर आधारित एक आवरण कथा लिखना चाह रहे है, शर्मा काटजू से बात करने को तैयार हो गए. कुछ देर बाद उनके सचिव ने इस संवाददाता को फोन करके कहा, ‘जस्टिस काटजू सिर्फ तरुण तेजपाल या फिर शोमा चौधरी(तहलका अंग्रेजी पत्रिका की प्रबंध संपादक) से ही बात करेंगे. इसलिए उन दोनों में से कोई भी उनसे आकर मिल सकता है.’ ऐसा जवाब मिलने पर हमने जस्टिस काटजू को एक ईमेल के जरिए संदेश पहुंचाया, ‘हमने सुना था कि आप जज रहते हुए भी नए वकीलों को पूरा मौका देते थे और उन्हें अपने सामने बहस करने के लिए प्रोत्साहित करते थे.

फिर आप अपने साक्षात्कार के लिए सिर्फ तरुण तेजपाल या शोमा चौधरी से ही क्यों मिलना चाह रहे हैं?’ हमने उनसे एक बार फिर से आग्रह किया कि वे कुछ समय निकाल कर हमसे बात करें. इसके जवाब में उन्होंने अपना निजी नंबर देते हुए कहा कि मुझसे इस नंबर पर संपर्क कर सकते हो. संपर्क करने पर उनका कहना था, ‘मैं अपने जीवन से संबंधित विषय पर साक्षात्कार नहीं देना चाहता. वैसे ही लोग मुझ पर यह आरोप लगाते हैं कि मैं सिर्फ चर्चाओं में रहने के लिए ही बयान देता हूं. इसलिए मुझे इस विषय पर बात नहीं करनी.’ हमारे इस आग्रह पर कि वे हमसे कुछ मिनट मिल ही लें, उनका कहना था,  ‘अगर मिलना है तो तहलका से तरुण तेजपाल या शोमा चौधरी मुझसे मिलें. मैं और किसी से बात नहीं करुंगा.’ हमने उन्हें बताया कि हम लोग हिंदी पत्रिका के लिए यह आवरण कथा कर रहे हैं और इस संबंध में उनसे कौन मिलेगा इसका फैसला तो संपादक का होगा तो उनका जवाब था, ‘मुझ पर लेख करना है तो इंग्लिश और हिंदी दोनों के लिए साथ में करो. इसके लिए उन दोनों में से कोई भी मुझसे आकर मिल सकता है.’ जस्टिस काटजू के साथ तहलका के इस अनुभव से शायद आपको उन्हें समझने में कुछ सहायता हो जाए. वैसे यदि अब भी आप उन्हें नहीं समझ पाए हैं तो जस्टिस काटजू, जिन्हें कई लोग दूरदर्शी भी मानते हैं, पहले ही यह बोल चुके हैं कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं.

(तहलका से साभार)

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