दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण के बंद होने की खबर से पत्रकारों में मची खलबली

दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण को 1 सितंबर से बंद किए जाने की सूचना मिल रही है. यदि ऐसा होता है तो ढेरों पत्रकार फिर से अपनी नौकरी से हाथ धो देंगे. इसके पहले सीएनएन – आईबीएन और आउटलुक में बड़े पैमाने पर छंटनी हुई थी जिसपर काफी हंगामा हुआ. दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण की बंदी पर
पत्रकार अरविंद के.सिंह अपने वॉल पर लिखते हैं –

“थोड़ी देर पहले अपने मित्र और विख्यात कलमकार भाई अवधेश कुमार से जानकारी मिली कि दैनिक भास्कर का दिल्ली संस्करण 1 सितंबर 2013 से नहीं निकलेगा…इस खबर से दुख हुआ…मेरे कई दोस्त वहां थे जिन्होंने अपने श्रम से इस अखबार को जमाया था…हालांकि यही एक ऐसा अखबार है जिससे मेरा लेखक के तौर पर रिश्ता रहा नहीं…पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में मेरे कुछेक लेख वहां छपे थे लेकिन बाद में मैने कभी लिखा नहीं…लेकिन यह खबर पीड़ाजनक है…”

वहीं दूसरी तरफ अवधेश कुमार एफबी पर अफ्सोस प्रकट करते हुए लिखते हैं –

“अभी कम्प्युटर पर बैठा कुछ लिख रहा था कि अचानक हमारे पुराने मित्र और वरिष्ठ पत्रकार रफीक विशाल का फोन आया। रफीक इंदौर के पत्रकार हैं और नई दुनिया में लेखन के समय से ही उनके साथ संबंध हैं। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘ सर, कुछ पता है’? मैंने जवाब दिया,‘ क्या’? हमलोग सड़क पर आ गए। मुझे लगा शायद भास्कर ने इन्हें हटा दिया है। लेकिन शब्दप्रयोग था, हमलोग। मैंने पूछा,‘कैसे’? उत्तर था, भास्कर दिल्ली संस्करण 1 सितंबर से नहीं निकलेगा। यह सुनते ही कुछ समय के लिए मेरी आवाज बंद हो गई। पता चला कल रात इसकी घोषणा अचानक की गई। इसीलिए आज ऑप एड पृष्ठ नहीं निकला है। श्री विमल झा ने कल ही मुझसे एक लेख लिखवाया था। सुबह अखबार देखा तो पृष्ठ ही नहीं था। ऐसा एकाध बार पहले भी हुआ है। सोचा, शायद कल आ जाएगा। लेकिन इसका कारण तो और है।

रफीक एक अच्छे पत्रकार और भलेे इन्सान हैं। वे इन्दौर से दिल्ली काफी उम्मीद से आए थे। उनकी पत्नी बीमार हैं, जिनका इलाज चल रहा है। उनके लिए नौकरी अपरिहार्य है। रफीक अकेले नहीं हैं ऐसे। भास्कर में काम करने वाले कई मित्र उत्कृष्ट श्रेणी के पत्रकार हैं। श्री हरिमोहन मिश्रा जी के ज्ञान और व्यक्तिगत व्यवहार कई मायनों में आदर्श हैं। इसी तरह और लोग हैं। एक अखबार बंद होने का प्रत्यक्ष-परोक्ष असर न जाने कितने लोगांे पर पड़ता है। अनेक लेखक भास्कर में लिखते थे, जिन्हें आत्मसंतुष्टि के साथ मानदेय मिलता था। उन सारे लोगांे की आय और आत्मतुष्टि का बड़ा साधन एकाएक बंद हो गया। मैं भी उसमें शामिल हूं। भास्कर ने दिल्ली संस्करण में काफी प्रबुद्ध पाठक बनाए थे। उनके लिए भी यह बहुत बड़ा धक्का है। हमें अपने लेखों पर बराबर उनकी प्रतिक्रियाएं मिलतीं थीं।

आखिर कोई अखबार बंद क्यों किया जाता है? भास्कर एक ओर तो पटना संस्करण आरंभ कर रहा है, इसके पूर्व झारखंड संस्करण निकाल चुका है और दूसरी ओर बंद करने का निर्णय। इनके बीच कोई सुसंगति नहीं। दिल्ली संस्करण में कोई समस्या नहीं थी। आर्थिक संकट का तो प्रश्न ही नहीं था। फिर ऐसा निर्णय क्यों किया गया? इसका उत्तर तो मिलना चाहिए। आखिर किसी अखबार या संस्थान को बंद करने का कोई तो आधार होना चाहिए। हो सकता है भास्कर की देखादेखी कोई और मालिक ऐसा कर बैठे।

क्या किसी मालिक को, जो कि शेयर बाजार में जाने के बाद सम्पूर्ण मालिक भी नहीं होता, एकपक्षीय तरीके से किसी अखबार या ऐसे संस्थान को बंद करने का अधिकार होना चाहिए? पत्रकारों के लिए तो यह आफत का समय है। इसके पूर्व टीवी 18 से काफी पत्रकार और आम कर्मचारी निकाले गए। इसके पूर्व नईदिल्ली टेलीविजन के मुंबई कार्यालय से काफी संख्या में लोग हटाए गए…. लंबी कथा है। लेकिन इसका उपाय क्या है? जब देश की नियति बनाने वाली संसद अपने को पूंजीशाहों और मीडिया स्वामियों पर अंकुश लगाने में अक्षम पा रही है या फिर किन्हीं कारणों से ऐसा करना नहीं चाहती तो फिर अपने पास दूसरा विकल्प तलाशने की आवश्यकता है। न्यायालय में मामला इतना लंबा खींचता है कि वेतन पर जीने वाले लोगों के लिए उतने समय तक अड़े रहना कठिन हो जाता है। वैसे भी न्यायालय वित्तीय क्षतिपूर्ति के लिए तो आदेश दे सकती है, संस्थान को दोबारा आरंभ करने के लिए नहीं।”

वहीं विनीत कुमार सूचना देते हुए और उसका विश्लेषण करते हुए लिखते हैं –
“अब दैनिक भास्कर में छंटनी का दौर शुरु. 1 सितंबर से शायद बंद हो जाए दिल्ली संस्करण. दर्जनों पत्रकार फिर से दूसरे अखबारों और संस्थानों में जाकर वहां काम कर रहे लोगों के लिए संकट पैदा करेंगे. मैंने अबकी बार सड़क पर आ जाएंगे शब्द का प्रयोग नहीं किया क्योंकि नेटवर्क-18 मामले में हमने देखा कि अधिकांश सीएनएन-आइबीएन,आइबीएन-7 से छंटकर उन चैनलों में फिट हो गए जिसे नेटवर्क 18 की अटारी पर चढ़कर कमतर बताकर कोसते रहे.

दैनिक भास्कर से छांटे गए लोग संभवतः इसी तरह अपने से कमतर के संस्थान में जाएं और वहां काम कर रहे लोगों के लिए संकट बनें. मीडिया में आमतौर पर होता ये है कि संस्थान का ठप्पा कई बार इस तरह काम करता है कि नक्कारा और अयोग्य भी अगर नामी संस्थान से घुसकर निकलता है तो सी ग्रेड,डी ग्रेड के संस्थान उस नामी संस्थान को भुनाने के लिए उन नक्कारों को रखकर ढोल पीटते हैं- देखो जी, हमारे यहां लोग आइबीएन 7 छोड़कर आ रहे हैं, स्टार छोड़कर आए हैं. एनडीटीवी इंडिया से निकाले गए उदय चंद्रा को लेकर लाइव इंडिया में इसी तरह के ढोल पीटे जाते थे जबकि हम हैरान हुआ करते कि इसे एनडीटीवी इंडिया ने काम कैसे दे दिया था ? वो शख्स भी अजीब नमूने की तरह पेश आता. लैप्पी को ऐसे चमकाता जैसे मिसाइल लिए घूम रहा हो, कभी कायदे से इस पर काम करते नहीं देखा..बाद में उसके चिरकुट और प्रोमैनेजमेंट रवैये से फोकस टीवी में अपने ही सहकर्मियों के हाथों कुटाई भी हुई थी. खैर, ऐसे छंटनी के शिकार पत्रकार समझौते और कम पैसे में भी काम करने के लिए कमतर संस्थानों में तैयार हो जाते हैं.

एबीपी न्यूज के सीओओ अविनाश पांडे जैसे लोगों की कमी नहीं है जो ये मानते हैं कि ये सब छंटनी-वंटनी लगी रहती है. इसी में लोगों को नौकरी भी मिल जाती है..लेकिन सरजी, हमें तो सिर्फ छंटनी ही दिख रही है, कहीं मिल रही हो तो बताइए..हमारे मीडिया साथी का हौसला बढ़ेगा.”

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