राहुल देव, वरिष्ठ पत्रकार
पिछले दिनों एक बड़े, मशहूर, प्रतिभावान हिन्दी एंकर से बात हुई भाषा पर। वह सचमुच द्विभाषी है। अंग्रेजी साधिकार और अच्छी बोलता है। मैंने कहा कि जब हमारी तुम्हारी पहचान हिन्दी पत्रकार की है, उसे हमने स्वीकार किया है तो यह हमारा धर्म है, हमसे अपेक्षा है कि हमारी हिन्दी से हिन्दी की शक्ति, सौन्दर्य़ और गरिमा प्रदर्शित हो, बढ़े। और जब हम अंग्रेजी बोलें, या कोई भी अन्य भाषा, तो उस समय हमारे बोलने से उस भाषा की गरिमा और सामर्थ्य दिखें। तुम्हारे बोलने से लगता है मन तो अंग्रेजी में चल रहा है, उसमें बोलने को मचल रहा है पर मजबूरन हिन्दी बोलनी पड़ रही है। यह भी दिखता है कि आप दरअसल खांटी अंग्रेजी बोलने वाले अभिजन हैं, एलीट हैं, और हिन्दी बोलते समय भी अंग्रेजी में ज्यादा सहज हैं।
उन्होंने थोड़ा प्रतिवाद किया, कहा आप तो जानते हैं मेरी पढ़ाई वढ़ाई अंग्रेजी में हुई है। इसलिए वह सहज भाव से हिन्दी में भी आ जाती है।
मैंने अंतिम प्रश्न किया – क्या अंग्रेजी बोलते समय भी उससे ऐसी ही छूट लोगे जैसी हिन्दी बोलते समय उससे लेते हो? दावा करता हूं तुम्हारी हिम्मत नहीं होगी। विचार तक दिमाग में नहीं आएगा।
वह ठिठका। कहा, आपके साथ बैठ कर ठीक से बात करनी पड़ेगी इस पर।
लगा, बात कहीं तो भीतर गई है…
(स्रोत – एफबी)