राणा यशवंत, संपादक, इंडिया न्यूज़
दीपावली और छठ के आसपास के दिनों में एक अजीब सी मुलायमियत होती है। धान की बालियों सी धूप, तालाब के आसपास की सीली हवा सी सांझ, आहिस्ता आहिस्ता सर्द होती रात औऱ ओस-ओस पिघलती सुबह। दिवाली से ठीक पहले गांव के हर मुहल्ले में एक अजीब सी खुशबू तैरती रहती है। संदूक, पेटियों और कोने-अतरे में जितनी चीजें साल भर रखी रहतीं, सबको निकालकर धूप में बाहर पसार दिया जाता। घर दालान की पुताई चलती रहती । आंगन-दुआर की लिपाई होती रहती । सुराजी कुम्हार घर-घर दीया और कोसी पहुंचाते रहते । दिवाली की रात उन्ही के दीयों से सारा गांव जगमग होता। गांव के मंदिर से लेकर कुओं और गौशालों तक दीये जलते रहते। रात में देर तक मुर्गा छाप पटाखा, फुलझड़ी और राकेट चलते रहते। अगले दिन से छठ की तैयारी शुरु हो जाती।
छठ घाट पर घास-फूस साफ करने और छठ मईया की रंगाई पुताई के लिये साईकिल पर कुदाल, चूना, पोचारा, बाल्टी लेकर मुहल्ले से हम बच्चों की टोली उधम मचाती निकलती । उल्लास और उमंग का रेला सा साथ चलता । रास्ते में पैडल से पैर दांये बांये उछाल उछाल धान पर बैठी ओस झाड़ते चलते। अचानक किसी को याद आता – खुरपी तो छूट गयी । कोई आगे से आवाज देता – कोई बात नहीं मेरी से काम चला लेना। तभी पीछे करियर पर बैठा भाई पूछता – नील रखे हो ना । अरे नील छोड़ तौलिया तो रह ही गया, अब रंगाई पुताई के बाद तालाब मे नहाएंगे कैसे – जोर लगाकर अपनी साईकिल को आगे निकालने के लिये पैडल पर देह ताने भाग रहा एक साथी पीछे से हांफते हुए बोलता।
दिनभर झाड़-झंखाड़, धूल धक्कड़ से लड़ते पिटते दोपहर बाद पूरी टोली लौटती । घर में मां दीवाली के पहले से ही मीट-मांस बंद कर देती औऱ दीवाली के बाद घर में छठ की तैयारी शुरु हो जाती । पापा किसी रोज पूजा का सामान ले आते तो किसी रोज फल औऱ किसी रोज ईंख। आज भी छठ-दीवाली की रौनक गांव में ऐसी ही है लेकिन दस साल हो गये कभी इस मौसम में गांव जा ही नहीं पाया। याद बहुत आती है। कभी कोई ख्याल या ख्वाब बुनने लगता हूं तो उसकी जमीन गांव का ही कोई हिस्सा होता है। स्कूल के सारे यार आज भी याद हैं। देर शाम अंदाज़े से ही फुटबॉल पर पैर चलाना, तेज बारिश में क्रिकेट खेलना , स्कूल से लौटते समय पानी भरे चार-पांच फीट चौड़े नालों को दौड़कर कूदना – सबकुछ ऐसे ही साफ दिखता है जैसे हथेली की लकीरें। आज जो कुछ भी हूं- वो वहीं से बटोरा, बांटा, सहेजा और सीखा हुआ है। इन सबका एक साझा सांचा है जिसने मुझे ज्यादा बदलने नहीं दिया। गांव में छठ के लिये हर घर लगा होगा औऱ आज भी उन सारे घरों में मेरा मन कुलांचे मारता रहता है।
(स्रोत- एफबी)