अलबर्ट पिंटो
आज कई वेबसाइटों पर एक खबर पढ़ी कि एक न्यूज एंकर ने लाइव बुलेटिन में अपने पति की मौत की खबर पढ़ी। उसे अपने पति की मौत का पता चल गया था, लेकिन वह खबर पढ़ते हुए रोई नहीं। उसने बुलेटिन पूरा किया, फिर रोई।
हिंदी-अंग्रेजी की सभी वेबसाइटों पर इस महिला का महिमामंडन किया गया है। इसकी बहादुरी में कसीदे पढ़े गए हैं। इस अमानवीयता और अस्वाभाविक प्रतिक्रिया के लिए उसकी तारीफ की गई है।
यह तारीफ कौन करवा रहा है? यह तारीफ किसके हक में जाती है? जवाब है- मालिकों के, धन्नासेठों के। वे हमेशा से चाहते हैं कि भले ही उनके अधीन कर्मचाारियों के घर पर वज्र गिर जाए, उनका परिवार बीमारी में हो, बच्चे भूखे हों, पर उनका कारखाना चलता रहे।
अगर आप ऐसा कर पाने में सक्षम हैं तो आप तारीफ के काबिल हैं, बहादुर हैं, बाजार में सम्मान पाने योग्य हैं, हीरो-हीरोइन हैं, समाज के आदर्श हैं, नौकरी के लिए उत्तम शख्स हैं।
अगर आप किसी हादसे से स्वाभाविक तौर पर दुखी हैं तो आप मालिक के काम के नहीं हैं। ये हमने कैसी कामगार व्यवस्था बना डाली है, जो हर स्थिति में मजदूरों से काम करवाना चाहती है? उन्हें अमानवीय बना रही है। हर पैदा होने वाले बच्चे के माथे पर लिख दिया जाता है कि ये फलां-फलां बनेगा। जो नौकरी-चाकरी नहीं करेगा, वह समाज का निकृष्टतम व्यक्ति होगा।
सचिन का बाप मरा, उसने शतक मारा, विराट कोहली का बाप मरा, उसने भी शतक मारा, ऋषभ पंत का बाप मरा, उसने आईपीएल में अर्धशतक मारा, वाह…। बाजार के हीरो…, सालों-साल के हीरो। नौकरीपेशाओं के आदर्श, मालिकों के लिए सटीक चमचे।
जब इतवार के दिन मालिक और उच्च अधिकारी घरों पर आराम करते हैं, उस दिन किसी कारखाने या दफ्तर की रौनक देखी है? सबसे निचले तबके के कर्मचारी कितने अच्छे माहौल में काम करते हैं…! और हफ्ते के बाकी दिनों में अपनी पीठ पर अपनी आंखें गढ़ाए रहते हैं कि कहीं मालिक उन्हें कमर सीधी करते हुए न देख ले।
ये कल-कारखाने, दफ्तर जेरेमी बेंथम और मिशेल फूको के पेनऑप्टिकन (गोल टावर जैसे कैदखानों) से ज्यादा कुछ नहीं हैं…. सबको यहीं घुट-घुटकर डर-डरकर मर जाना है…
(लेखक के सोशल मीडिया प्रोफाइल से साभार)