विनोद कापड़ी फिल्म कोई टेलीविजन की टीआरपी शो नहीं !

पूजा सिंह

मिस टनकपुर…बोर करना बंद करो.
Miss-Tanakpur-Haazir-Hoविनोद कापड़ी किसी परिचय के मुहताज नहीं. वह उन लोगों में शुमार हैं जिन्होंने हिंदी समाचार चैनलों को टीआरपी बटोरने का फंडा सिखाया. जब यह खबर आई कि वह फिल्म बनाने जा रहे हैं तो उत्सुकता स्वाभाविक थी. खासतौर पर इसलिए क्योंकि पिछले दो तीन साल से इस फिल्म से जुड़ी एक एक घटना हम दर्शकों तक पहुंचाई जा रही थी, यह शायद फिल्म प्रमोशन की लांग टर्म रणनीति का हिस्सा रहा होगा. सोशल मीडिया पर आ रही पोस्ट व फिल्म को लेकर लिखी जा रही तमाम तरह की बातों ने उत्सुकता बहुत बढ़ा दी थी. अंतत: फिल्म मिस टनकपुर हाजिर हो देख ही डाली लेकिन मुझे कुछ खास पसंद नहीं आई. साफ कहूं तो निराश करती है पता नहीं क्यूं… संभवत: अपेक्षाएं कुछ ज्यादा रहीं या शायद फिल्म ही खराब है.

यह फिल्म खबरिया चैनलों में इस्तेमाल किए जाने वाले टीआरपी बटोरू फार्मूलों का एक ऐसा कॉकटेल है जो जुगुप्सा पैदा करता है. इन फार्मूलों को बहुत ही चतुराई पूर्वक सामाजिक संदेश के मुलम्मे में परोसा गया है. फिल्म के बारे में फेसबुक और सोशल मीडिया पर जिस तरह का प्रचार अभियान (अब तो यही लगता है क्यूंकि रैपर कुछ और था और अंदर माल कुछ और) चला उसके चलते फिल्म से ढेरों उम्मीदें बंध गईं थीं. भैंस से बलात्कार कर सच्ची खबर पर बनी यह फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई वैसे-वैसे इसका सच जुगुप्सा की हदों तक पहुंचने लगा.

इधर जबसे अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स आफ वासेपुर आई है सिनेमा बनाने वालों को लगने लगा है कि फिल्मों में यथार्थ का मतलब केवल अश्लील, जुगुप्साकारी बातें करना ही रह गया है. इस फिल्म के लिए भी यथार्थ का अर्थ है हगना, टट्टी करना, पादना, भैंस की लेना वगैरह..वगैरह.
फिल्म जिस क्लूलेस अंदाज में शुरू हुई उसी क्लूलेस तरीके से खत्म हो गई. बैकग्राउंड म्यूजिक ऐसा कि सर दर्द करने लगे, गाने भूल ही जाएं तो बेहतर और अदाकारी… राहुल बग्गा ने पूरी फिल्म में ऐसी शक्ल बनाए रखी मानो उनको टीबी का लाइलाज रोग हो गया है और डाक्टर ने बस दो तीन महीने का समय दिया है, संजय मिश्रा का दोहराव भयंकर बोर करता है. ऋषिता भट्ट पता नहीं क्या कर रही हैं फिल्म में और क्यूं कर रही हैं?

फिल्म को अगर थोड़ा बहुत झेलने लायक बनाया है तो रवि किशन, अन्नू कपूर और ओम पुरी. इन तीनों में बाद वाले दोनों नामों की काबिलियत पर तो कभी किसी को शक नहीं था. बीच-बीच में खाप-वाप वाला तड़का भी डाला गया है लेकिन निहायत चलताऊ अंदाज में. कोर्ट रूम के कुछ दृश्य अच्छे बन पड़े हैं. फिल्म अनावश्यक रूप से लंबी है. यह फिल्म मुझे अपनी देखी अब तक कि फिल्मों में केवल हिम्मतवाला और रज्जो से अच्छी लगी.

किसी निर्देशक की यह पहली फिल्म है या दूसरी, इससे दर्शकों का कोई ताल्लुक नहीं. उनकी उम्मीदें हमेशा बड़ी होती हैं… फिल्मकार को यह समझ लेना चाहिए कि फिल्म कोई टेलीविजन की टीआरपी शो नहीं है जिसमें अगर भैंस से बलात्कार, भूत प्रेत तंत्र मंत्र, खाप पंचायत आदि सारे मसाले मिला दिए जाएं तो वह हिट हो जाएगी. फिल्म को अच्छा करार देने की मेरी कोई मजबूरी भी नहीं है क्योंकि फिल्मकार न कभी मेरे बॉस रहे हैं न मित्र. बाकी यह कर्ज चुकाते कई लोग सोशल मीडिया पर देखे जा सकते हैं.

@fb

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.