आनंद प्रधान
सचमुच, बनारस, बनारस है. कई मामलों में अनूठा शहर जहाँ सबको सुनने और सबका स्वागत करने का चलन है. लोकतांत्रिक-प्रगतिशील और नए विचारों के प्रति असहिष्णुता इसके स्वभाव में में नहीं है.
हालाँकि भाजपा और मोदी समर्थकों का एक हिस्सा इसे अपनी उग्रता, गाली-गलौज और मारपीट-धमकी की राजनीति से गुजरात की तरह बनाने पर तुला हुआ है लेकिन बनारस का अपना मिज़ाज इसके खिलाफ खडा हो रहा है. वह इसे अपने तरीक़े से नकारता हुआ दिख रहा है.
कल अस्सी पर शंकर दास दिख गए जो अपने सिर पर नीचे मोदी और उपर केजरीवाल की टोपी लगाए उस समय घूम रहे थे जब अस्सी पर आप के दर्जनों कार्यकर्ता और दूसरी ओर भाजपा के कुछ कार्यकर्ता नारे लगाकर अपनी ताक़त दिखा रहे थे.
कल शाम प्रो आनंद कुमार के साथ आप के दर्जनों कार्यकर्ता लंका से प्रचार करते और लोगों से मिलते-जुलते अस्सी और गोदौलिया तक गए. ये लोग क़रीब घंटे पर अस्सी पर डटे रहे, नारे लगाए और यह जताने की कोशिश की कि अस्सी केवल मोदी समर्थकों की नहीं है.
इसके कारण लंका से लेकर अस्सी तक धीरे-धीरे लोग खुलने लगे हैं. डर कम हो रहा है और आप के समर्थक खुलकर सामने आने लगे हैं. हालाँकि उनकी संख्या अभी बहुत कम है लेकिन साफ़ है कि मोदी समर्थकों की डराने-धमकाने की रणनीति उल्टी पड़ने लगी है.
अगर मोदी समर्थकों की केजरीवाल पर टमाटर-अंडा-पत्थर फेंकने और गुंडागर्दी से डराने की कोशिशें ऐसे ही जारी रहीं तो इसका उन्हें इसका पक्का नुक़सान उठाना पड़ेगा.
याद रहे लोगों ख़ासकर ग़रीबों-कामगारों और आम लोगों में हमेशा कमज़ोरों के प्रति एक सहानुभूति पैदा हो जाती है. बनारस में यही होने लगा है.