वेब पत्रकारिता ऐसे तो नहीं होनी थी
दिलीप मंडल, वरिष्ठ पत्रकार
आप जिस समय मेरा यह स्टेटस पढ़ रहे हैं, उस वक्त देश की सबसे बड़ी मीडिया कंपनियों में बैठे कई हजार युवा पत्रकार ऐसा ही कुछ या इससे भी गंदा कुछ ढूंढ रहे हैं!
एक युवती या युवक अक्सर आंखों में ढेरों सपने लिए पत्रकारिता करने आता है. तमाम तरह की रुमानियत होती है. यह कर दूंगा, वह कर दूंगा. इन सबमें एक बात कॉमन होती है. नाम कमाऊंगा. देश-दुनिया तक अपनी बात पहुंचाउंगा.
इस मामले में पत्रकारिता का धंधा बाकी धंधों से थोड़ा सा अलग है. सबके लिए नहीं, लेकिन कई युवाओं के लिए पत्रकारिता अलग तरह का धंधा है.
लेकिन क्या होता है, जब उसका बॉस हर सुबह उसे कहे कि कुछ गंदा सा खोजकर लाओ. साइट को हिट चाहिए. या कि आज हिट्स कम आ रहे हैं, आज बहुत ही गंदा कुछ लाओ.
और अगर यह हर दिन हो तो?
हर दिन बॉस कहे कि गंदा खोजकर लगाओ. यही काम महीनों और वर्षों तक करने के बाद, वह युवा क्या बनकर रह जाता है.
जाहिर है, कि यह करके वह सब कुछ बन जाएगा, पर पत्रकार नहीं रह जाएगा. वह नहीं बन पाएगा, जिसका सपना उसने कभी देखा होगा.
एक समय के बाद बॉस के लिए यह कहने की जरूरत खत्म हो जाएगी कि गंदा खोजो. जूनियर्स को पता होगा कि बॉस और कंपनी क्या चाहती है और उसे क्या करना है.
वह अपने आप सुबह से लेकर रात तक गंदा खोजने में लग जाएगा. घर, ऑफिस, रास्ते में हर जगह वह गंदा खोजता रहेगा. गंदा सोचता रहेगा.
इस समय देश में कई हजार युवा पत्रकार हर दिन किसी साइट के लिए गंदा ढूंढ रहे हैं. साल के किसी एक दिन या एक हफ्ते के लिए नहीं. हर दिन. हर घंटे.
वेब पत्रकारिता ऐसे तो नहीं होनी थी.