अभिषेक श्रीवास्तव,वरिष्ठ पत्रकार-
लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में 73 सीटें आई थीं। उसने सपा, बसपा और कांग्रेस को मिलाकर कुल इतनी ही विधानसभा सीटें इस बार बख्शीश में दे दी हैं। भाजपा की इस दुर्दांत जीत से कुछ लोग बहुत विचलित हैं। उनके स्वर से ऐसा आभास हो रहा है कि मायावती या मुलायम सिंह सामाजिक न्याय के वाहक थे जिनके साथ अन्याय हो गया है। जल्दीबाज़ी में ऐसी प्रतिक्रिया घातक होगी। इस परिणाम को ठहर कर समझना ज़रूरी है।
मैंने अधिकतर सपाइयों से पूछा था कि उनका पहला दुश्मन कौन है। सबका जवाब था- बसपा। वजह यह थी कि बसपा के राज में बेवजह यादवों पर एससी/एसटी ऐक्ट में मुकदमे हो जाते हैं। मैंने दलितों से पूछा कि उन्हें किससे दिक्कत है। सब ने एक स्वर में कहा- सपा। वजह सपाइयों की गुंडई थी। भाजपा से दोनों को परहेज़ नहीं था। भाजपा दोनों के लिए दूसरी दुश्मन थी- थोड़ा सुदूरवर्ती, अदृश्य या धुंधली। मुसलमानों के अलावा भाजपा को किसी ने भी अपना पहला दुश्मन नहीं माना लेकिन हम लोग शहर में बैठकर दलित-मुसलमान एकता की खिचड़ी ऊना कांड की आंच पर पकाते रहे। हम इस बात से आंखें मूंदे रहे कि एम-वाइ यानी मुसलमान-यादव की परंपरागत बिहारी खिचड़ी ही अब नहीं पक पा रही थी, नई रेसिपी तो दूर की कौड़ी है।
उत्पीडि़त जातियों के बीच गोलबंदी अगर सामाजिक न्याय का पर्याय हुआ करती थी, तो वह चुक गई थी क्योंकि इन जातियों के भीतर वर्ग पैदा हो चुके थे। इन वर्गों के भीतर अलग-अलग स्तर पर महत्वाकांक्षा का फैक्टर काम कर रहा था जिसे भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर हवा दे रही थी। हमने जाति देखी, क्लास को भूल गए। जब तक हम क्लास को देख रहे थे, जाति को भुलाए बैठे थे। हमने ओबीसी-दलित, ओबीसी-मुस्लिम, दलित-मुस्लिम के अंतर्विरोध को समझने की कोशिश नहीं की। सबको एक तराजू पर तौल दिया। बेमेल बोझ से कांटा टूट गया।