प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी-
साहित्य इन दिनों भेडों से घिर चुका है। आप भेड़ नहीं हैं तो साहित्यकार नहीं हैं। सत्ता ने साहित्यकार को सम्मान दिया,पुरस्कार दिए लेकिन भेड़ का दर्जा भी दिया। हम खुश हैं कि हम भेड़ हैं। भेड़ की तरह रहते हैं,जीते हैं, लिखते हैं,भेड़ होना बुरी बात नहीं है लेकिन साहित्यकार का भेड़ होना बुरी बात है। साहित्यकार जब भेड़ बन जाता है तो यह साहित्य के लिए अशुभ-संकेत है। हम असमर्थ हैं कि साहित्यकार को भेड़ बनने से रोक नहीं रोक पा रहे,साहित्य में भेडों का उत्पादन जितनी तेजी से बढ़ा है उतनी तेजी से साहित्य का उत्पादन नहीं बढ़ा।
एक जमाना था साहित्यकार का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण होता था लेकिन इन दिनों ‘दृष्टिकोण’ की जगह ‘कोण’ ने लेली है। ‘दृष्टि’ बेमानी हो गयी है। साहित्यकार का ‘कोण’ उसकी पहचान का आधार बन गया है । साहित्यकार के दृष्टिलोप की सटीक जन्मतिथि हम नहीं जानते,लेकिन एक बात जरुर जानते हैं कि विवेक जब मर जाता है तब ‘कोण’ पैदा है। विवेक जब तक जिंदा रहता है दृष्टिकोण बना रहता है लेकिन जब विवेक मर जाता है तो सिर्फ ‘कोण’ रह जाता है।
विवेक मर जाने पर साहित्यकार मात्र सिर्फ देह रह जाता है। यानी वह मंच पर ,सभा में, गोष्ठी में ,लोकार्पण में,समीक्षा में बैठा हुआ शरीर मात्र रह जाता है। साहित्यकार का ‘देह’ में रुपान्तरण स्वयं में लेखक के लिए चिन्ता की बात नहीं है, यह इन दिनों साहित्यिक जगत में भी चिन्ता की बात नहीं है,क्योंकि साहित्यिक जगत तो ‘देह’ से काम चलाता रहा है, उसके लिए तो ‘देह’ ही प्रधान है । साहित्यकार का ‘देह’ में रुपान्तरण एकदम नई समस्या है और इस समस्या पर हमें गंभीरता से सोचना चाहिए। सवाल यह है कि साहित्यकार क्या मात्र ‘देह’ है ?