एनडीटीवी इंडिया के प्रख्यात टीवी पत्रकार रवीश कुमार ने हाल में अपने ब्लॉग पर ‘भांड पत्रकारिता के दौर में देश का मनोबल बढ़ा है’ नाम से एक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने सरकारपरस्त चैनलों और पत्रकारों की लानत-मलानत की है. इसी लेख के जवाब में ‘विनय हिन्दुस्तानी’ की प्रतिक्रिया :
भांड पत्रकारिता के दौर में देश का मनोबल बढ़ा हुआ है/ रवीश कुमार का सुधीर चौधरी पर हमला !
प्रिय रवीशजी से सादर कुछ कहना चाहता हूं। लेख में कही गई बातें मुझे भी सही प्रतीत होती हैं। पहले बात मीडिया की सरकार परस्ती की। क्या ये रवायत पिछले ढाई वर्ष की पैदाइश है? छोड़िये जनाब, सत्ताधारी दल के आलाकमान, सरकार और ताकतवर लोगों केे तलुए चाटते ही देखा है आज तक मीडिया को। सत्ता और मीडिया का नापाक गठबंधन दशकों से देश को खोखला कर रहा है। हालांकि, मीडिया की दलाली का सबूत नीरा राडिया प्रकरण से जगजाहिर हुआ, लेकिन क्या हम नहीं जानते कि ये खेल तो बरसों पुराना है।
किसी दल विशेष के हाईकमान की वो महिमा कि आज तक कोई चैनल उन्हें 10नंबर के मकान से स्टूडियो में बुलाकर इंटरव्यू तक नहीं कर सका। दस में रहने वालों के खिलाफ दस शब्द लिखने-बोलने में तो पत्रकार क्या मीडिया मालिक की भी औकात नही हुआ करती थी। और ये किसान का कर्ज? ये किसकी दी हुई विरासत है? करोड़ों किसानों को कर्ज का दर्द दिया किसने? क्यों पिछले ७० सालों में एक सर्वग्राही कृषि नीति बनाकर किसानों का दुःख दूर करने का प्रयास नहीं किया गया। सिर्फ कर्ज माफी का झुनझुना ( न मालूम उस कर्ज माफी का लाभ बैंंकोंं से मिलता किसे था?) पकड़ाकर अपना पल्लू झाड़ लिया जाता था।
रही बात मनोबल कि, तो यह सिर्फ और सिर्फ भारतीय सेना के करारे जवाब के चलते पैदा हुआ भाव है, जो करोड़ों लोगों को बेचैन कर रहा था। समस्याएं तो रहेंगी ही, समाधान भी होगा, नई समस्याएं भी आएंगी… लेकिन इन सबके बीच क्या सेना के शौर्य की सराहना करना भी हम छोड़ दें? सवाल, मोदी सरकार की प्रशंसा, कांग्रेस की आलोचना का भी नहीं। सवाल यह है कि देश के लोगों की नाच देखने और पत्रकारों की भांडगिरी वाली इस मानसिकता का जन्म कब हुआ? कितने बरसों तक यह विकसित होती रही? आवाज उठाना हमेशा सही ही होता है। लेकिन उसे उठाने का वक्त ये बताता है कि आपकी मंशा और सोच क्या है। माना (हां, बिल्कुल माना) आपने दलाली नहीं की होगी। आप किसी राडिया के रडार में नहीं फंसे होंगे, लेकिन जो फंसे थे उनमें से एक तो आपके ही चैनल की थीं। क्या आपने तब या बाद में इस बारे में आवाज मुखर की? नहीं। जाने भी दीजिए साहब, देश तो पिछले ७० वर्षों से यह सब देख और सह रहा है। दिक्कत यह है कि चंद लोग ये चाहते हैं कि ये पीड़ा, ये दर्द देने का हक सिर्फ 10 नंबर मकान वाले को ही है। कोई और भला कैसे दर्द दे सकता है? हजम नहीं हो रहा।
रवीश बाबू, मैं शुरूआती दिनों से आपकी रिपोर्टिंग का कायल रहा हूं। अच्छा लिखते हैं। रिपोर्टिंग तो लाजवाब होती थी। आप व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार भी होंगे, सिर्फ सैलरी से गुजर-बसर करने वाले। लेकिन देखिए, अपने नजदीक से लेकर दूर तक बैठे आपकी ही जमात के लोगों को… दुःख होता है।