पत्रकारों की बेदख़ली,बर्ख़ास्तगी अौर धमकी मीडिया संस्थानों में अघोषित आपातकाल का परिचायक
रमेश यादव
22 जनवरी,2015,नई दिल्ली ।
टीवी पत्रकार रवीश कुमार को मिली धमकी अौर पंकज श्रीवास्तव की बर्ख़ास्तगी । एक ही पेशे के दो अलग-अलग मामले हैं।
रवीश से जुड़े मामले को हमें भारतीय समाज अौर राजनीति में फासीवादी ताक़तों का तेज़ी से हो रहे उभार अौर इज़ाफ़े के तौर पर देखना चाहिए अौर पंकज के मामले को निरंकुश अौर निर्मम पूँजीवाद के असल चेहरे के तौर पर।
दरअसल प्रिंट अौर टीवी पत्रकारिता में छटनी,धमकी,बर्ख़ास्तगी सरीखा जो संकट मौजूदा पत्रकारिता में देखने को मिल रहा है,उसका बीजारोपड़ बहुत पहले हो चुका था।
जब मीडिया संस्थानों में पूँजी,प्रबंधन,तकनीक अौर टेक्नोक्रैट का विस्फोट हुआ। इसी के साथ मीडिया संस्थानों में अनियंत्रित पूँजी का प्रवेश हुआ,सारा नियंत्रण मीडिया मालिकानों के हाथो में आ गया। अभिव्यक्ति की आज़ादी नयी ग़ुलामी की शिकार हुई।
सोचने,लिखने अौर बोलने की आज़ादी पर अघोषित प्रतिबंध लगा। तमाम चुनौतियों के बावजूद जो इस काम को नहीं छोड़ पाये,वो बेदख़ल कर दिये गये,जो समझौता किये,उन्हें अपने ही संस्थान में हाशिए पर रहना पड़ा।
नतीजा यह निकला कि चिंतन,मनन अौर विश्लेषण का स्थान निरंतर रिक्त होता चला गया। इसकी पूर्ति धंधेबाज़ों से की जाने लगी। फिर जो हुआ,उससे कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। प्रिंट हो या टीवी,पत्रकारिता में एेसे लोगों का प्रवेश हुआ,जो दरअसल ‘बाई बर्थ’ पत्रकारिता के लिए बने ही नहीं थे।
धीरे-धीरे पत्रकारों अौर पत्रकारिता की आत्मा क़त्ल की जाने लगी। आत्मा के स्तर पर मरे हुए लोग,बीमार व्यवस्था के डाक्टर बने बैठे। जो बीमारियाँ अन्य पेशे अौर क्षेत्रों में थी,वो उठकर पत्रकारिता में आ गयी। अंदर का सड़ांध बाहर आने लगा।
‘जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो’ का क्रांतिकारी फ़ार्मूला एका-एक फुर्र हो गया। क़लम तोड़ कर लिखने वालों के हाथों में ‘टूटी हुई क़लम की मूठ’ शोभा बढ़ाने लगी।
पत्रकारिता का यह जो दौर शुरू हुआ। सही मायने में इसे मीडिया में पूँजी विस्फोट का दौर माना गया। नयी-नवेली दुल्हन की सजावट में जो भौतिकवादी ज़रूरतें होती हैं,ठीक उसी तरह की जरूरत की तड़प मीडिया में शुरू हुई। यहाँ से विज्ञापन का दौर शुरू हुआ।
जैसे-जैसे प्रिंट अौर टीवी मीडिया रंग-विरंगे विज्ञापनों से सजने-सँवरने लगे,वैसे-वैसे ख़बरों को ‘भूंसे में अनाज खोजने’ की तर्ज़ पर खोजा जाने लगा।
मीडिया संस्थानों का एक मात्र लक्ष्य पूँजी विस्तार,मुनाफ़ा अौर मार्केटिंग के ट्रैक पर आगे बढ़ने लगा। ख़बरों वहीं छपने / दिखायी जाने लगी,जो पूँजी अौर पॉवर पैदा कर सकें।
सामाजिक परिवर्तन,विकास, सद्भावना अौर साझी विरासत का ‘केंचुल’ छोड़कर मीडिया व्यवसाय अौर व्यापार का दामन थाम लिया। फिर क्या था,जिन ख़ूबियों की जमीन पर व्यापार अौर व्यवसाय फलता-फुलता है,उन्हीं के खाद-गोबर से मीडिया व्यवसाय भी फलने-फुलने लगा।
इस देश में पूँजी अौर पॉवर दो ही लोगों के पास है। एक उनके,जो पूँजीपति हैं अौर दूसरों वो जो पॉवर में हैं या जो पॉवर के इर्द-गिर्द रहते आये हैं। इन सबकी आपसी साँठगाँठ अौर गठबंधन में मीडिया मालिकान अौर मीडिया भी भागीदार बना ।
मीडिया, सरकार अौर राजसत्ता के बीच सेतु का काम करने लगा। जो मीडियाकर्मी इन दोनों के बीच सेतु बनाने में योग्य साबित हुए,उनके लिए किसी भी संस्थान में टीकना अौर सुरक्षित रहना आसान होता गया,बाकियों के लिए कठीन अौर चुनौतीपूर्ण।
मौजूदा मीडिया संस्थानों में जो स्थिति है,वह अघोषित आपातकाल जैसी है। सम्भव है,इस पर कुछ लोग सवाल भी उठाएँ। सवाल उठना भी लाज़िमी है। अब इसे सिद्ध कैसे किया जाय। इसे सिद्ध करने के लिए किसी प्रयोगशाला की जरूरत नहीं है।
एक बहुत सरल सा तरीक़ा है। पिछले एक साल के मीडिया कवरेज को उठाइए अौर उसका विश्लेषण कीजिए।
विश्लेषण में अधिक दिमाग़ नहीं लगाना है। यह भी बहुत आसान सा तरीक़ा है। अच्छा चलिए विश्लेषण के कुछ बिन्दु उठाते हैं,मसलन
1.
पिछले एक साल में भाजपा अौर अन्य पार्टियों को टीवी,रेडियो अौर पत्र-पत्रिकाअों में कुल कितना कवरेज मिला। टीवी / रेडियो में कुल प्रसारण का समय का पड़ताल कर लीजिए अौर प्रिंट मीडिया में किस पेज पर कितने कॉलम का कवरेज मिला।
2.
पिछले एक साल में भाजपा अौर अन्य पार्टियों ने दोनों माध्यमों में कुल कितने विज्ञापन दिये। संबंधित विज्ञापनों का प्रसारण दिन में कितनी बार हुआ। कुल कितने घंटे का प्रसारण हुआ।
पत्र-पत्रिकाअों में कुल कितने विज्ञापन प्रकाशित हुए। किस-किस पेज पर इसे प्रकाशित किया गया। कुल जगह कितना बनता है।
3.
किसी राजनैतिक दल की तुलना में किसी व्यक्ति विशेष केन्द्रित कुल कितनी ख़बरें लिखी गयीं अौर प्रकाशित-प्रसारित की गयीं।
4.
किसी पार्टी या पार्टी द्वारा घोषित नेता के पक्ष / विपक्ष / विरोध अौर विश्लेषणात्मक ख़बरें प्रकाशित अौर प्रकाशित की गयीं।
5.
लोग सभा चुनाव के ठीक पहले कितने नये चैनलों को लाइसेंस दिया गया। कितने नये चैनल खुले। चुनाव बाद कितने बंद हुए। किन-किन चैनलों का ख़रीद-फ़रोख़्त हुई अौर किसके द्वारा किया गया। मीडिया संस्थानों के कितने नये शेयरधारक बने अौर कितने छोड़कर चले गये।
6.
कुल कितनी एजेंसियों द्वारा चुनावी सर्वे किये गये। सर्वाधिक सर्वे किसके पक्ष में माहौल बनाने में सफल हुए। सर्वे का समय अौर उसका प्रसारण / प्रकाशन के समय का चुनाव किस आधार पर किया गया।
ये कुछ एेसे बिन्दु हैं,जिनका उत्तर ‘पानी पर उतराते तेल’ की तरह दिख रहा है। बावजूद इसके ‘मीडिया शोध’ में लगे लोग
इसे केन्द्रित करके पुन: शोध कर सकते हैं।
वैसे हम इस आधार पर यह कह सकते हैं कि ‘संघ अौर भाजपा का राष्ट्रवाद’ का जो कीर्तन गायेगा,वहीं बतौर पेशेवर जीवित रह पायेगा। जो विरोध में रहेंगे,उनके जीवन को ख़तरा है। कोई ज़रूरी नहीं की दुर्घटना कैसे होगी या दुर्घटना के वक्त का चुनाव कौन अौर कब करेगा ?
मौजूदा मीडिया में नये संस्कार का जो संचार हो रहा है,वह काफ़ी भयावह है। भयावह इस मामले में कि यहाँ सिर्फ़ एक ही विकल्प दिख रहा है ।
समर्थन करने का । समर्थन में बोलने का । समर्थन में लिखने का। समर्थन में सोचने का । समर्थन में खाने का । समर्थन में सोने का अौर समर्थन में जागने का। नहीं तो चुप रहने का। एक दम मुर्दा की तरह।
जो समर्थन में नहीं है,वो राष्ट्रद्रोही है अौर जो राष्ट्रद्रोही है,उसका जीवन मौजूदा ‘राष्ट्रवाद’ सुरक्षित नहीं है,मतलब ख़तरे में है।
‘जो तटस्थ हैं
समय लिखेगा
उनका भी
अपराध’
इसलिए कह रहा हूँ,अभिव्यक्ति अौर आज़ादी के ख़तरे को टुकुर-टुकुर देखकर तटस्थ मत रहिए,जो कर सकते हैं,वह कीजिए निमंत्रण का इंतज़ार मत कीजिए !