कांग्रेस की हालत खराब होती जा रही है। लगातार होती हार पर हार राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता और राजनीतिक समझ पर सवालिया निशान खड़े कर रही हैं। यूपी में कांग्रेस की हाल ही में हुई हालत में राहुल गांधी की जिम्मेदारी क्यों तय नहीं होनी चाहिए। सवाल यह है कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस अब कैसे फिर से पैरों पर खड़ी होगी। वरिष्ठ पत्रकार ‘निरंजन परिहार’ का विश्लेषण:
निरंजन परिहार-
कांग्रेस के लिए यह विश्लेषण का दौर है। लेकिन कितनी बार, किस किस तरीके से, किसी किस के केंद्र में रखकर आखिर किस दह तक कितने विश्लेषण और किए जाने चाहिए। यह भी तय करना होगा। राहुल गांधी अगर दमदार हैं, तो चुनाव दर चुनाव कांग्रेस का दम क्यों निकलता जा रहा है। वैसे, कांग्रेसियों को तो समझ में आ गया है कि राहुल गांधी में दम नहीं है। लेकिन कांग्रेस को कब समझ में आएगा, यह अब तक साफ नहीं है। हालांकि, यूपी में कांग्रेस के बुरी तरह से साफ हो जाने के बाद यह पूरी तरह से साफ हो गया है कि अगले लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के भरोसे कांग्रेस का अब फिर से पैरों पर खड़े होना लगभग असंभव है। कांग्रेस की नैया के खिवैया के रूप में राहुल गांधी सिर्फ बंसी बजैया ही साबित हो रहे हैं। यह आत्म मंथन और आत्म चिंतन के दौर से आगे की स्थिति है, जहां से कांग्रेस के लिए इस देश में रास्ता आखिर खुलता किधर है, यह समझना जरूरी है। इस रास्ते को फारुख अब्दुल्ला के बयान में तलाशें, तो वे तो यूपी के नतीजों के साथ ही कह चुके हैं कि देश में मोदी के मुकाबले का फिलहाल कोई नेता नहीं है, सो 2019 का लोकसभा चुनाव भूल जाइए। अब 2024 की तैयारी करनी चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या तब तक कांग्रेस नेतृत्व में वे सारे दिग्गज राजनेता सक्रिय राजनीति का हिस्सा बने रहने की ऊम्र में रह पाएंगे, जो अब 75 पार के होने के बावजूद युवा राहुल गांधी के स्तंभ के रूप में कांग्रेस की धुरी बने हुए हैं ?
भीतर से तो कांग्रेस कार्यकर्ता भी इस बात को मानने लग गए हैं और सिर्फ कहने भर में शर्म आ रही है कि उनके नेता में दम नहीं है। क्योंकि, देश देख रहा है कि नरेंद्र मोदी नाम का एक पैंसठ पार का बूढ़ा आदमी देश भर में घूम घूम कर युवा पीढ़ी का नेता बना जा रहा है और मोदी के मुकाबले अपेक्षाकृत बहुत जवान होने के बावजूद राहुल गांधी युवा पीढ़ी में स्वीकार तक नहीं हो पा रहे है। कांग्रेस और कांग्रेसियों के लिए यह सबसे बड़ी चिंता का विषय है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी देखते देखते राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी और अपने पिता राजीव गांधी के नाना जवाहर लाल नेहरू के मुकाबले के नेता बन गए, और कांग्रेस इसके उलट बहुत कमजोर होकर रह गई है। कांग्रेस का कार्यकर्ता अब यह मानने लगा है कि लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा देकर सत्ता में आए, उस गाली जैसे लगनेवाले नारे का कांग्रेस किसी भी स्तर पर आज तक कोई जवाब तक नहीं दे पाई।
गुजरात के मुख्यमंत्री पद से आगे बढ़कर देश की राजनीति में अपनी पैठ जमाने के लिए नरेंद्र मोदी जब मैदान में उतरे थे, तो निश्चित रूप से कांग्रेस में सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने उन्हें जोरदार चुनौती दी थी। लेकिन तत्काल बाद ही मोदी ने तेवर बदलकर जिस तरह से कांग्रेस को रौंदना शुरू किया, कांग्रेस के नेता उसकी काट नहीं कर पाए। अपने ढाई साल के शासन में प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने बेहद सिलसिलेवार ढंग से कांग्रेस मुक्त भारत के अपने उस अजेंडे को आगे बढ़ाया, जो उत्तर प्रदेश में बीजेपी की चमत्कारिक जीत और कांग्रेस की अब तक की सबसे करारी हार के रूप में हमारे सामने हैं। सवा सौ साल से भी किसी पुरानी पार्टी के लिए इससे बड़े शर्म की बात और क्या हो सकती है कि देश के उस प्रदेश में जहां कभी उसका सबसे बड़ा जनाधार रहा हो, वहीं पर, उसे 403 में से सिर्फ 7 सीटें हासिल हों। क्या राहुल गांधी ने अपनी राष्ट्रीय पार्टी को एक घरेलू झगड़े में फंसे क्षेत्रीय दल के पल्लू से बांधकर सिर्फ इसी बरबादी के लिए समझौता किया था ?
यूपी और उत्तराखंड में कांग्रेस को भारी पराजय मिली है। पंजाब में जीत कैप्टन अमरिंदर सिंह की विश्सनीयता और मेहनत की हुई है। गोवा और मणिपुर में कांग्रेस – बीजेपी के बीच कोई बहुत फासला नहीं रहा। इन नतीजों से तस्वीर साफ है कि सन 2014 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष का नेता पद पाने जितनी दस फिसदी सीटें भी न मिलने जैसी करारी हार के बाद भी कांग्रेस ने कोई खास सबक नहीं सीखा। कांग्रेस चुनाव दर चुनाव लगातार हारती रही और हर चुनाव के बाद पार्टी में नए सिरे से हार की समीक्षा होती रही। लेकिन इन समीक्षाओं का नतीजा कुछ भी नहीं निकला। राहुल गांधी अपने फटे कुर्ते के प्रदर्शन की बचकानी हरकतें करते रहें, लेकिन उन्हें कोई रोकने तो दूर, टोकनेवाला भी नहीं मिला।
पता नहीं कांग्रेस में कोई राहुल गांधी और उनकी माताजी सोनिया गांधी को यह क्यों नहीं समझाता कि कांग्रेस अपनी जड़ों से दूर होती जा रही है। उसका जनाधार टूट चुका है और वोट बैंक धवस्त हो चुका है। कांग्रेस की अति की हद तक मुलसमान समर्थक छवि ने बहुसंख्यक समाज को उससे दूर कर दिया है। दलित वोट इस देश में अब कहीं भी कांग्रेस की जागीर नहीं रहा। ओबीसी बीजेपी के साथ भी हो लिया है। आदिवासी भी अपने अपने प्रदेश के रुझान के हिसाब से हर बार सरकता रहा है। ब्राह्मण – बनिया कभी पूर्ण रूप से कांग्रेस के साथ रहे ही नहीं। जिस मुसलमान को सबसे ज्यादा सहेजा, वही उससे बहुत पहले छिटक गया। राजस्थान में मुसलमान बीजेपी को भी वोट करता है, तो महाराष्ट्र में वह शिवसेना जैसी कट्टर हिंदुत्व की पक्षधर पार्टी को भी वोट दे आता है, जैसा कि इस बार के मुंबई महानगरपालिका चुनाव में हुआ। केरल में मुसलमान वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ खड़ा होता है, तो बिहार में वह नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ भी मिल जाता है। यूपी में तो मुसलमान बीएसपी, एसपी, मुसलिम लीग और यहां तक कि इस बार तो बीजेपी के साथ भी चल दिया। पश्चिम बंगाल में वह ममता बनर्जी के साथ निकल पड़ता है। देश भर में ओवैसी की पार्टी मुसलमान की आखरी उम्मीद के रूप में वैसे भी आगे बढ़ ही रही है। फिर भी कांग्रेस मुसलमानों के समर्थन में हर मामले में जब तब ढाल बनकर खड़ी हो जाती है, तो बहुसंख्यक समाज को गुस्सा तो आना ही था। सो, कांग्रेस से उसके परंपरागत मतदाता का मोहभंग हो गया है, कांग्रेस नेतृत्व को यह समझ में आ भी रहा है या नहीं, कोई नहीं जानता।
ताजा परिदृश्य में देखे, तो पंद्रह सालों से लगातार कोशिशें करने के बावजूद राहुल गांधी देश के राजनैतिक परिदृश्य में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने और जगह बना पाने में शाश्वत रूप से असफल रहे हैं। राहुल गांधी के पार्टी की कमान पूरी तरह से संभालने में लगातार देरी भी उनकी काबिलियत पर सवाल खड़े कर रही है। राज्यों में पार्टी की कमान सौंपने के मामले में भी गलतियां हो रही हैं। जैसे, राजस्थान में अशोक गहलोत जैसे दमदार नेता को दरकिनार करके सचिन पायलट जैसे बेहद कमजोर और हारे हुए नेता को पार्टी सौपने का क्या मतलब है, यह किसी को समझ में नहीं आ रहा है। राहुल गांधी ने देश के सबसे बड़े युवा संगठन युवक कांग्रेस का ढांचा बिगाड़कर उसका कबाड़ा कर दिया है, उसके कारण कांग्रेस में युवा नेतृत्व भी नहीं पनप पा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का चुनावों से दूर रहना और प्रियंका गांधी का हिचक के साथ प्रचार में सक्रिय होना भी कांग्रेस की कमजोरी रही है। पार्टी कार्यकर्ता के उत्साह पर कहीं न कहीं इसका फर्क पड़ता है। बेचारे कार्यकर्ता को लगता है कि जब इनको ही अपनी पार्टी की चिंता नहीं है, तो हमें क्या पड़ी है। कांग्रेस जमीनी स्तर पर अपने कार्यकर्ता और देश की जनता का मन पढ़ने में भी कांग्रेस चूक रही है। राज्यों में गुटबाजी से पार्टी नेतृत्व मुंह चुराता रहा है। इस सबके साथ सबसे बड़ी बात यह है कि ढाई साल के बाद भी कांग्रेस को अब तक विपक्ष की भूमिका निभाना भी नहीं आया है। कांग्रेस ने सिर्फ बीजेपी और मोदी के विरोध को ही सबसे बड़ा काम मान लिया, उससे भी देश की जनता के मन में कांग्रेस के प्रति नकारात्मक भाव पैदा हुआ है। लोग मानते हैं कि अपने जमाने में सारे अपकर्म, धत्कर्म और कुकर्म करने के बावजूद खुद को सती सावित्री साबित कर रही कांग्रेस को तो विरोध का नैतिक हक भी नहीं है। किसी उत्तर भारत के नेता या हिंदी भाषी के मुकाबले दक्षिण के मल्लिकार्जुन खरगे को लोकसभा में ढाई साल से लिए – लिए कांग्रेस घूम रही है, यह भी लोगों को नहीं सुहा रहा है।
दरअसल, कांग्रेस अपने अस्तित्व पर संकट के दौर से गुजर रही है। वहीं देश की इस सबसे बड़ी पार्टी की विश्वसनीयता को लेकर भी सवाल खत्म नहीं हुआ हैं। एक के बाद एक लगातार हो रही हार से देश की केंद्रीय राजनीति में कांग्रेस के प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका भी छिन रही है। कांग्रेस अब केंद्र के विपक्षी दलों के सहयोगी की भूमिका में है, जैसा कि बिहार में। इसलिए, दिग्विजय सिंह ने भले ही यह कह दिया हो कि अब समय आ गया है जब राहुल गांधी को ठोस कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन राहुल खुद पर कोई कारवाई करेंगे ? क्योंकि कांग्रेस को करिश्माई नेतृत्व देने में तो वे ही नाकाम रहे हैं और कांग्रेस की डूबती नैया को बचाने में भी राहुल गांधी ही नाकाम रहे है। आपकी नजर में कोई और जिम्मेदार हो, तो बताना।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)