अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को पत्रकारों के एक बड़े वर्ग का सहयोग और समर्थन शुरूआती दौर से हासिल रहा है. ऐसे पत्रकारों में आजतक के प्रख्यात पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी का नाम भी लिया जाता है. लेकिन लगता है अब पूरी तरह से उनका मोहभंग हो चुका है. तभी केजरीवाल के मंत्री संदीप कुमार सेक्स स्कैंडल मामले के बाद पुण्य प्रसून बाजपेयी ने लेख लिखकर केजरीवाल को लताड़ा है.पढ़िए पूरा लेख –
राजनीति को कीचड़ मान कर उसमें कूदकर सिस्टम बदलने का ख्वाब केजरीवाल ने अगर 2012 में देखा तो उसके पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन का दबाव था । रामलीला मैदान में लहराता तिरंगा और जनलोकपाल के दायरे में पीएम सीएम सभी को लाने की सोच। यानी भ्रष्टाचार से घायल देश के सामने यही सवाल सबसे बड़ा है कि अगर सत्ता में बैठे राजा जो खुद को सेवक कहकर देश में लूट मचाते है, उन पर रोक कैसे लगे तो आंदोलन से निकली पार्टी को सत्ता सौपकर जनता ने भी माना कि उसने न्याय किया । लेकिन वोट डालने वालों को कहां पता था कि जिन्हे वह अपना नुमाइन्दा बना रहा है । उम्र के लिहाज से ना उनके पास अनुभव है। शिक्षा के लिहाज से ना डिग्री वाले है । जनता से सीधे सरोकार भी नहीं है । जो इन्हें जिम्मेदार बनाये। सपने जागे और हवा चली तो हर कोई जीतता चला गया।
इसीलिये सवाल सिर्फ इतना नहीं कि केजरीवाल के तीन मंत्री तीन ऐसे मामलो में फंसे जो आंदोलन में शामिल किसी के लिये भी शर्मनाक हों । सवाल तो ये भी है कि तोमर हो या असीम अहमद खान या फिर संदीप कुमार इन्होंने अन्ना आंदोलन में ना तो कोई भूमिका निभायी, ना ही केजरीवाल के राजनीति में कूदने से पहले कोई राजनीतिक संघर्ष किया। और दिल्ली जहां सबसे ज्यादा शिक्षित युवा है, वहां कैसे युवा विधायक बने। जो ग्रेजुएट भी नहीं थे । पांच विधायक नौंवी पास । तो 5 विधायक दसवीं पास । दर्जन भर विधायक ग्यारहवी और बारहवीं पास । और शुरु में ही कानून मंत्री बने जितेन्द्र तोमर तो कानून की फर्जी डिग्री के मामले में ही फंस गये। तो क्या आम आदमी पार्टी ने ठीक उसी तर्ज पर राजनीति में जीत के लिये बीज बो दिये जैसा देश की तमाम पार्टियां करती है । क्योंकि जिस जनलोकपाल का सवाल भ्रष्ट राजनीति पर नकेल कसने निकला। और दिल्ली में सत्ता पलट गई । उसी दौर में देश में जनता के मुमाइन्दे ही सबसे दागदार दिखे । मसलन लोकसभा में 182 सांसद दागदार है । देश भर की विधानसभाओं में 1258 विधायक दागदार हैं । तमाम राज्यो में 33 फीसदी मंत्री दागदार है । ऐसे में केजरीवाल के 11 दागदार विधायक भी चल गये । तो क्या राजनीति करते हुये सत्ता पाने का रास्ता ही दागदार है । तो फिर जनता से जुडे मुद्दे कहा टिकेंगे । या कितने मायने रखेंगे । और जब सत्ता ही जनता से घोखा देने वाली व्यवस्था बना रही हो तब दिल्ली के सीएम केजरीवाल का ये दर्द कितना मायने रखेगा कि सैक्स स्कैंडल में फंसे संदीप कुमार ने आंदोलन को धोखा दे दिया । क्योंकि सवाल ये नहीं है कि जो भ्रष्ट फर्जी या स्कैंडल में लिप्त पाया गया केजरीवाल ने उसे मंत्रीपद से हटा दिया । सवाल तो ये है कि जिन आदर्शो के साथ आम आदमी पार्टी बनी । जिस सोच के साथ राजनीति में आई । जो उम्मीद जनता ने बांधी वह सब इतनी जल्दी कैसे और क्यों मटियामेट होने लगी । तो सवाल तीन है। आम आदमी पार्टी में जो चेहरे जुड़े क्या वह वाकई संघर्ष करते हुये निकले। या फिर अन्ना के आंदोलन और राजनीति से होते मोहभंग की स्थिति में दिल्ली की जनता से आप का विकल्प चुना । जो चेहरे विधायक बन गये । जो चेहरे मंत्री बन गई । वह ईमानदारी या व्यवस्था बदलने की सोच को लेकर राजनीति में नहीं कूदे । बल्कि देश में एक हवा बही और उस हवा में मौका परस्ती के साथ ऐसे चेहरे आप में आ गये । तो क्या केजरीवाल इन हालातों को समझ नहीं पाये या फिर वह एसे लोगो की ही फौज को लेकर आगे बढ़ना चाहते थे । क्योकि वैचारिक तौर पर या कहे बोध्द्दिक तौर पर कोई प्रतिबद्दता समाज के साथ आप की विधायक बनी भीड़ में है भी या नहीं ये भी सवाल है ।
तो क्या जनता के सामन एक ऐसा शून्यता आ रही है, जहां राजनीतिक सत्ता से उसका भोहभंग हो जाये । क्योंकि हालात राजनीतिक सत्ता के साथ सुलझ सकते ये सवाल लगातार अनसुलझा है । सत्ता बदलती है । लेकिन हालात कही ज्यादा बदतर हो जाते है । तो क्या भारत में आंदोलन भी सिर्फ सत्ता पलटने से आगे बढता नहीं । और संघ ने इस महीन लकीर को पक़ड कर खुद की उपयोगिता लगातार बनायी रखी । तो क्या केजरीवाल को भी राजनीति में आने के बदले संघ की तर्ज पर दबाब समूह के तौर पर काम करना चाहिये था । क्योंकि याद कीजिये राजनीतिक भ्रष्ट्रचार के खिलाफ जेपी का आदोलन हो या अन्ना आंदोलन । दोनो ही दौर में संघ के स्वयसेवक आंदोलन के पीछे खडे नजर । और दोनो ही दौर में देश की राजनीतिक सत्ता पलटी । आंदोलन क राजनीतिक लाभ 1977 में जनता पार्टी की जीत के साथ सामने आया तो 2013 और 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की जीत और 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सू़पड़ा साफ होने के साथ सामने आया ।
यानी संघ की राजनीतिक दखलअंदाजी जनता के मर्म को छुने वाले मुद्दो पर खडे आंदोलनो को सफल बनाने की जरुर रही । लेकिन खुद किसी आंदोलन को खड़ा करने की स्थिति में सीधे तौर पर संध सामने कभी नही आया । और याद किजिये तो ये सवाल 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त भी उभरा की संघ की राजनीतिक सक्रियता का मतलब है मोदी को पीएम उम्मीदवार बनवाने से लेकर वोटरो को घरो से बाहर कैसे निकाला जाये । तो क्या संघ राजनीतिक सक्रियता सत्ता पलटने , दिलाने की भूमिका में रहती है क्योंकि वह राजनीति दाग में राजनेताओ की खत्म होती नैतिकता को पहचानती है । और केजरीवाल व्यवस्था परिवर्तन की बात कहकर भी खुद ही बदलते दिखे । और बीजेपी संघ का राजनीतिक संगठन बनकर सियासत को महत्व देती है संघ के आदर्श का नहीं । मसलन-गोवा में ईसाई वोटों के लिये बीजेपी समझौता कर सकती है संघ नहीं । कश्मीर में धार 370 पर सत्ता में रहकर बीजेपी खामोश रह सकती है संघ नहीं । जाति की राजनीति को सोशल इंजिनियरिंग का मुल्लम्मा बीजेपी चढा सकती है, संघ नहीं । यानी राजनीतिक दल कुछ भी कर राजनीति कर सकता है क्योकि उसके लिये नैतिकता या जिम्मेदारी कोई मायने नहीं रखती है । ध्यान दें तो आंदोलन से मिली सत्ता चाहे वह 1977 की हो या 2013 की । दोनो ही डगमगायी । 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार दो बरस में ही ढहढहाकर गिर गई । और दिल्ली में 2013 के 49 दिनो के बाद 2015 में दोबारा इतिहास रचकर केजरीवाल सत्ता में आये लेकिन डेढ बरस के भीतर ही राजनीतिक हमाम में सभी एक सरीखे दिखने लगे ।
(लेखक के ब्लॉग से साभार)
पुण्य प्रसून बाजपेयी