वैसे तो आमिर की पीके ने ३०० करोड़ से ज्यादा कमा लिए पर अपना टेक कुछ ऐसा है
अनुरंजन झा
राजकुमार हिरानी ने लगातार कई बेहतरीन फिल्में हिंदुस्तान के दर्शकों को दी है। हर फिल्म से कोई ने कोई मैसेज देने की भी कोशिश की है और दर्शकों ने उसे पसंद भी किया, थोड़े समय के लिए जीवन में आत्मसात भी करने की कोशिश की । चाहे वो मुन्नाभाई की जादू की झप्पी हो या फिर लगे रहो मुन्नाभाई की गांधीगीरी, या फिर ३ इडियट्स का संदेश कि आप अपने बच्चों पर अपनी सोच न थोपें। लेकिन इस बार हिरानी थोड़ा चूक गए.. थोड़ा भटक भी गए और लगता है पांच साल से बन रही फिल्म को बाद में निपटाने की जल्दी में आ गए। पीके एक अच्छी फिल्म बनते बनते रह गई । मैं यह तो नहीं कह सकता कि राजकुमार हिरानी ने यह फिल्म पी के बनाई लेकिन इतना जरुर है कि यह फिल्म हिरानी की दूसरी फिल्मों की तरह नशा नहीं देती। फिल्म शुरुआत से ही भटक जाती है, बीच बीच में पटरी पर आने की कोशिश करती है लेकिन हर कोशिश नाकाम । मुद्दा अच्छा था और मौंजू भी आज जहां पूरे देश में धर्म के ठेकेदारों को सिरे से नकारा जा रहा है वहां इन मैनेजरों के रांग नंबर डायल करना जरुरी है। आसाराम, रामपाल , राम-रहीम, शाही इमाम और न जाने किस- किस राम और इमाम से जनता अब छुटकारा पाना चाहती है। ऐसे समय में यह फिल्म और बेहतर हो सकती थी लेकिन हिरानी इस बार जल्दबाजी में दिखे।
फिल्म रिलीज से पहले बार-बार राजू ने अपने इंटरव्यू में कहा कि इसको बनाने में पांच साल लग गए । २०११ में रिलीज करने का प्लान था लेकिन ३ साल देर हो गई , फिल्म देखने जाने से पहले हमने यह सोचा कि मिस्टर परफेक्शनिस्ट्स की जोड़ी ने अगर इसमें काफी वक्त लगाया है तो जरुर कुछ कमाल किया होगा लेकिन देखने के बाद लगा कि हम जैसों को थिएटर तक खींचने के लिए हिरानी ने यह पासा फेंका होगा कि इसे बनाने में काफी साल लगे ताकि हम यह सोच सकें कि वक्त ज्यादा लगने से काम अच्छा हुआ होगा। दरअसल वक्त ज्यादा इसलिए लगा क्यूंकि वक्त जाया हो रहा था।
आमिर खान बेहतरीन अभिनेता हैं लेकिन इस फिल्म में उनका अभिनय चेहरे के अलग-अलग भाव बनाने के अतिरिक्त कुछ नहीं था। आमिर आजकल थोड़ा कनफ्यूजिया गए हैं। कभी समाजसेवा, कभी प्रधानमंत्री से गलबहियां, कभी अन्ना के मंच से देश बदलने का संकल्प, कभी सत्यमेव जयते के तीन सीजन के बाद ब्रेक का ऐलान तो कभी पीके .. सच में अभी आमिर को एक ब्रेक लेना चाहिए।
फिल्म में संगीत के नाम पर कुछ भी ऐसा नहीं है जो प्रभाव छोड़े बल्कि कई जगह फिल्म में संगीत का प्रभाव नहीं वरन् प्रकोप नजर आता है। अनुष्का शर्मा विराट के प्यार में लुल हो गई हैं। न जाने किसकी सलाह पर थुथुना ऑपरेट करा आईं कि पूरी फिल्म में हम बैंड-बाजा-बारात वाली को ढूंढते रहे और हमें पक्का यकीन है कि उसी को देखकर विराट ने भी गोते लगाए होंगे। जिस किसी को भी राजू ने रिसर्च का काम सौंपा होगा उसने राजू के साथ ही रांग नंबर का गेम कर दिया। फिल्म के मुख्य किरदार की भाषा ६ घंटे में सीखी गई लगती है क्यूंकि उसके साथ न्याय नहीं हुआ है और राजस्थान की रेत में वैसे भी भोजपुरी का रस ढूंढना किसी इंटर्न रिसर्चर का काम लगता है। देश के कोने -कोने के ब्रोथल से जो ज्यादातर लड़कियां आजाद कराई जाती है वो या तो बंगाल, या नार्थईस्ट या फिर नेपाल से लाई गई मिलती हैं ऐसे में भोजपुरी भाषी का वहां मिलना इत्तेफाक हो सकता है लेकिन अच्छा लगता जब भाषा के साथ न्याय होता। जिस टीवी चैनल को फिल्म में दिखाया गया उसका लोगो बंद हो चुके और हिंदी के सबसे घटिया न्यूज चैनलों में से एक आजाद न्यूज की हूबहू कॉपी है। हालांकि मीडिया का स्तर और खासकर टेलीविजन मीडिया का स्तर गिरा है लेकिन आज के दौर में कोई कुत्ते के साथ या फिर किसी भी जानवर के साथ स्पेशल शो नहीं बनाता, सिर्फ इसी शॉट से लगता है कि फिल्म का काम काफी सालों से चल रहा है क्यूंकि बीच के कुछ सालों तक नाग-बिच्छू का दौर टीवी न्यूज में चला। हां यह जरुर है कि टेलीविजन कैमरे के पीछे और कैमरे के सामने में भेद करता है लेकिन ऐसा नहीं है कि पिछवाड़े पर त्रिशूल के निशान दिखाने लगे। और हां तकरीबन बीस सालों की अपनी पत्रकारिता और खासकर टीवी पत्रकारिता में हमने तो नहीं सुना कि बेल्जियम में कोई ऐसा इंस्टीट्यूट है जहां पढ़ने के लिए हिंदुस्तान-पाकिस्तान और दूसरे देशों से लोग जाते हैँ। अब पता यह करना चाहिए कि अनुष्का बेल्जियम क्या करने गई थी जहां राजू ने पूरा क्रू भेज दिया वहां तो क्रिकेट (अंतरराष्ट्रीय) भी नहीं होता।
संजय दत्त को पूरा ‘भेस्ट’ किया गया है। या तो किरदार और बड़ा करते या फिर उनसे यह किरदार न कराते। इस फिल्म के कथानक को कुछ-कुछ कहती परेश रावल की एक फिल्म आई थी ओ माई गॉड जिसके सामने यह फिल्म बौनी नजर आती है। एक बात और इस फिल्म की रिलीज के बाद सोशल मीडिया पर जिस तरह इसे हिंदू विरोधी कहा जा रहा है वैसा बिल्कुल नहीं है और शायद यह पब्लिसिटी और प्रमोशन का एक तरीका भर हो सकता है। कहानी को बढ़ाने के लिए कुछ रचना पड़ता है और भगवान की तलाश उसी दिशा में में एक कदम मात्र है। लेकिन फिल्म देख कर हम इस नतीजे पर पहुंचे कि आमिर खान सत्यमेव जयते से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं अभी और उस कार्यक्रम को प्रोड्यूस करने में हुए नुकसान की भरपाई के लिए उसी तरह का बड़े पर्दे के लिए रच कर एक तीर से कई निशान लगा रहे हैं। कुल मिलाकर यह भी एक रांग नंबर है और हम तो लुल नहिए हैं न । @fb
(लेखक देश के पहले मेट्रीमोनियल चैनल ‘शगुन टीवी’ के पूर्व सीईओ और एडिटर-इन-चीफ हैं.)