तारकेश कुमार ओझा
प्रख्यात व्यंग्यकार स्व. हरिशंकर परसाई , चिंतक रजनीश और फिल्मों के चरित्र अभिनेता रहे प्रेमनाथ के गृह शहर जबलपुर जाने का अवसर मिला तो मन खासा रोमांचित हो उठा। अपने गृह प्रदेश उत्तर प्रदेश में रोजी – रोजगार के सिलसिले में महाकौशल के जबलपुर और आस – पास के जिलों में बस चुके अनेक लोगों से इस शहर का नाम सुना था। लेकिन कभी वहां जाने का संयोग बनेगा, ऐसा सोचा न था। कार्यक्रम तय होने के बाद पड़ताल की तो मालूम हुआ कि रेलनगरी कहे जाने वाले अपने खड़गपुर से कोई सीधी ट्रेन जबलपुर नहीं जाती, हालांकि प्रदेश की राजधानी कोलकाता से केवल दो ट्रेनें हावड़ा – मुंबई मेल और हावड़ा – जबलपुर शक्तिपुंज एक्सप्रेस ही जबलपुर जाती है।लिहाजा हमने इसी विकल्प को चुना। समय की सुविधा के लिहाज से आवागमन के लिए हमने हावड़ा – मुंबई मेल के बजाय शक्तिपुंज एक्सप्रेस को चुना और आने – जाने का आरक्षण भी करा लिया। यह जान कर अच्छा लगा कि इस ट्रेन का अावागमन हमारे दो गंतव्यों के बीच ही होना है। स्वतंत्रता दिवस की गहमागहमी के बीच हमने हावड़ा से यात्रा की शुरूआत की। अनुमान के विपरीत हमारे डिब्बे में वैसी भीड़ – भाड़ और मारा – मारी नहीं थी, जैसा साधारणतः हिंदी प्रदेशों की ओर जाने वाली ट्रेनों में होता है। किसी हिंदी प्रदेश के बड़े शहर की ओर जाने वाली ट्रेनों में तो साधारणतः यही देखने को मिलता है कि आरक्षित डिब्बों में आरक्षण वालों से ज्यादा यात्री वेटिंग लिस्ट और आरएसी वाले मिलते हैं। या फिर जवाब मिलता है… अरे भाई साहब, बस दो घंटे की बात है…। बस फलां स्टेशन पर उतर जाएंगे। लेकिन इस ट्रेन में कुछेक यात्री थे भी तो ज्यादातर दो – चार घंटे बाद आने वाले स्टेशनों में उतरने वाले थे।
ट्रेन बिल्कुल समय से रवाना हुई। इस बीच बूंदाबादी भी जारी रही।थोड़ी देर में बारिश की बुंदे डिब्बे में इधर – उधर बिखरने लगी। हालांकि मैं अपने क्षेत्र के बर्द्धवान , दुर्गापुर , आसनसोल और धनबाद जैसे परिचित शहरों को रेलवे की खिड़की से झांक लेने को आतुर था। अंधेरा घिरने के साथ बारिश तेज होने लगी और इसी के साथ डिब्बे में पानी भी बढ़ने लगा। भूख लगने पर हमने भोजन की तलाश की तो पता चला कि इस ट्रेन में पेंट्री कार की व्यवस्था नहीं है। लिहाजा चाय – पान आदि बेचने वाले हॉकर चीजों की दोगुनी – तिगुनी कीमत यात्रियों से वसूल रहे थे। थोड़ी – थोड़ी देर में किन्नरों की फौज भी डिब्बे में आती और यात्रियों से वसूली करती रही। यात्रियों के यह कहने पर कि अरे भैया.. थोड़ी देर पहले ही तो तुम्हारे साथी आकर रुपए ले गए हैं, आगंतुकों का जवाब होता वे जरूर नकली होंगे। आपने नकली किन्नरों को दान दिया है, इस दान का कोई फायदा आपको मिलने वाला नहीं।कुछ देर में यह भान भी हो गया कि डिब्बे के हमारे तरफ के टॉयलट में एक का दरवाजा और नल टूटा हुआ है। इससे मन में उठे कोफ्त के बीच हम सो गए । सुबह नींद खुली तो डिब्बे का पूरा फर्श पानी से लबालब हो चुका था। समझ में नहीं आ रहा था कि पानी बारिश की बूंदों से जमा हो रहा था या टूटे नलों की वजह से।
स्वतंत्रता दिवस से चंद दिन पहले जब दिल में देशभक्ति का ज्वार उठ रहा था, अपने देश की बदहाल रेल – व्यवस्था मन में कोफ्त पैदा कर रही थी। क्योंकि हर यात्री इस पर अपना रोष जाहिर करते हुए कह रहा था… हुंह जो है वो तो संभलता नहीं… बूलेट ट्रेन चलाएंगे। बहरहाल अपने निर्धारित समय से करीब तीन घंटे विलंब से जबलपुर पहुंची शक्तिपुंज एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर पहुंच गई तो हम ने राहत की सांस ली। मन में यही उथल – पुथल था कि 15 अगस्त की रात जब हमारी इसी ट्रेन से वापसी है तो इस तरह का बुरा अनुभव हमें न हो। लेकिन होनी कुछ और ही थी। जबलपुर से हावड़ा के लिए यह ट्रेन देर रात 11.50 पर छूटती है। स्टेशन पर हमें मालूम हुआ कि यह ट्रेन प्लेटफार्म नंबर दो या तीन से छूटती है। उद्घोषणा प्लेटफार्म संख्या दो से छूटने की हुई। भारी बारिश के बीच हम प्लेटफार्म पर पहुंच गए और ट्रेन आने का इंतजार करने लगे। इस बीच डिस्प्ले बोर्ड और उद्घोषणा में ट्रेन के प्लेटफार्म संख्या दो से छूटने की होती रही। तय समय पर एक ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंची। लेकिन यह क्या ये तो हबीबपुर – जबलपुर जनशताब्दी एक्सप्रेस थी। फिर शक्तिपुंज का क्या। तेज बारिश के बीच सैकड़ों यात्री परेशान होते रहे। लेकिन किसी के कुछ समझ में नहीं आ रहा था। क्योंकि ट्रेन छूटने का समय हो चुका था। कुछ देर बाद शक्तिपुंज के प्लेटफार्म संख्या तीन पर आने की घोषणा हुई। लेकिन देर तक इंतजार के बाद भी ट्रेन का अता – पता न था। बेसब्री के बीच एक बार फिर ट्रेन के प्लेटफार्म संख्या चार पर आने की नई घोषणा हुई। तेज बारिश के बीच भागमभाग की स्थिति में यात्री जब सारा माल – आसबाब समेट कर उक्त प्लेटफार्म की ओर जाने लगे तो फिर शक्तिपुंज एक्सप्रेस के प्लेटफार्म संख्या तीन पर आने की घोषणा हुई। आपाधापी और संशय के बीच ट्रेन करीब चालीस मिनट बाद इसी प्लेटफार्म पर आई। लेकिन तब तक शक्तिपुंज एक्सप्रेस हमें शक्तिहीन कर चुकी थी।
स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ के मौके पर हमारा दिल देश की रेल व्यवस्था के प्रति क्षोभ से भर चुका था। अमूमन हर यात्री इसे कोस रहा था। एक बार फिर यात्री मुंह बिचकाते हुए कहने को मजबूर थे… हूंह … जो है वो तो संभलता नहीं … बूलेट ट्रेन चलाएंगे..।
(लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं)