तारकेश कुमार ओझा
कहते हैं झूठी उम्मीदें जितनी जल्दी टूट जाए, अच्छी। लेकिन बात वही कि उम्मीद पर ही दुनिया भी टिकती है। पता नहीं यह हमारी आदत है या मजबूरी कि हम बार – बार निराश होते हैं, लेकिन नायकों की हमारी तलाश अनवरत लगातार जारी रहती है। चाहे क्षेत्र राजनीति का हो या किसी दूसरे क्षेत्रों का। हमें हमेशा करिश्मे की उम्मीद बनी रहती है। अब तो बाजार भी नए – नए नायकों को रचने – गढ़ने में लगातार जुटा रहता है। नायकत्व का यह बाजार एक पल के लिए भी विश्राम लेता नहीं दिखता। देश के विकसित राज्यों की तो नहीं कह सकता, लेकिन बदहाल हिंदी पट्टी के निम्न मध्य वर्गीय परिवारों के सदस्य अमूमन इसी झूठी उम्मीद में पूरी जीवन गुजार देते हैं। कह सकते हैं एक एेसा क्षेत्र जहां लोग झूठी उम्मीदों के बीच जन्म लेते व जीते हैं और एक दिन इसी कश्मकश में दुनिया छोड़ जाते हैं। खेलने – खाने की उम्र में शादी हो गई। लेकिन मन में उम्मीद कायम कि शायद अर्द्धांगिनी के भाग्य से ही कुछ भला हो जाए। सिर पर असमय आ गए जिम्मेदारियों के बोझ को देख – समझ ही रहे थे कि एक के बाद बच्चों का जन्म होता गया। लेकिन मन में वहीं उम्मीद की कि एक दिन यही बच्चे मुझे सुख देंगे। बच्चों की परवरिश मुश्किल हो रही तिस पर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की चिंता जीना मुहाल किए हुए हैं, लेकिन झूठी उम्मीद फिर भी नहीं टूटती कि शायद इसके बाद मुझे चैन का सांस लेने का अवसर मिले।
दिन बदलने की झूठी उम्मीद जितनी भुक्तभोगी को होती नहीं उतनी कुछ ताकतें उसे लगातार इस भ्रम में रखती है। कदाचित हिंदी पट्टी की राजनीति भी इससे मुक्त नहीं है। यहां भी एक उम्मीद टूटी नहीं कि दिल दूसरे से उम्मीद लगा बैठती है। इतिहास खंगालें तो एक नहीं कई नाम एेसे मिल जाएंगे , जिनसे भारी उम्मीदें बंधी। लेकिन जल्दी ही टूट भी गई। यह नियति शायद गरीबी की ही है। पड़ोसी देशों में नेपाल में जब राजशाही खत्म हुई और प्रचंड ने देश की कमान संभाली तो फिर आशा और उम्मीद की नई लहर दौड़ पड़ी। लेकिन कालांतर में क्या हुआ। यह सब जानते हैं। पता नहीं क्यों एेसा लगता है कि अपने राजनेताओं से जितनी उम्मीदें जनता करती नहीं , उससे ज्यादा माहौल बनाने में बाजार लगा रहता है। कोई राजनेता जमीन से जुड़ा निकला तो लगने लगता है यह सब कुछ बदल देगा। लेकिन जल्द ही निराशा हाथ लगती है। बिहार में लालू यादव की ताजपोशी से लेकर उत्तर प्रदेश में मायावती का मुख्यमंत्री बनना हो या अखिलेश यादव का। शुरू में यही लगा या माहौल बना कि सूरतेहाल बदलने में अब ज्यादा देर नहीं। लेकिन असलियत जल्द सामने आ गई। अब दिल्ली के मामले को ही देखें। पूर्व अाइपीएस किरण बेदी ने भाजपा ज्वाइन क्या की, ऐसा परिदृश्य तैयार किया जाने लगा मानो दिल्ली की तकदीर बस बदलने ही वाली है। आम जनता को कोई फर्क पड़े या नहीं लेकिन बाजार तो बाजार है। लिहाजा छनने लगी सर्वेक्षण की काल्पनिक जलेबियां। इतने प्रतिशत लोग फलां को मुख्यमंत्री पद पर देखना चाहते हैं और फलां को इतने। फलां राजनेता की लोकप्रियता में इतने फीसद की बढ़ोत्तरी हुई और फलां के मामले में इतने प्रतिशत की गिरावट अाई। दावे चाहे जैसे हों, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि जनता इतनी मूर्ख नहीं कि किसी के राजनीति से जुड़ जाने या किसी पद पर आसीन हो जाने मात्र से वह कायाकल्प की उम्मीद रखने लगे। क्योंकि जनता अच्छी तरह से जानती है कि विकास की अपनी निर्धारित प्रक्रिया और रफ्तार है। वास्तव में राजनेताओं से बदलाव की जितनी उम्मीद जनता को होती नहीं , उतनी बनाई जा रही है।